Best-HD-Wallpaper-Download-संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति का अभिभाषण और धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री का भाषण ठीक रहा. ऐसा कुछ नहीं कहा गया, जिससे जनता के किसी भी हिस्से में किसी तरह के विरोध के स्वर उठें. वास्तव में कांग्रेस कह रही है कि सरकार के ज़्यादातर प्रस्तावों या नीतियों का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस से नकल किया गया है. यदि ऐसा है, तो कांग्रेस पार्टी इसका विरोध नहीं कर सकती है, क्योंकि यह एक अजीब तर्क है. यदि वे कांग्रेस की नीतियां अपना रहे हैं, तो उसमें कांग्रेस को भला क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन इसे छोड़ दें. मुख्य बात तो यह है कि भाषण देना एक बात है, लेकिन इस वक्त हम दो चीजें देख रहे हैं. एक, हमने ऐसा कुछ भी नहीं सुना कि यह सरकार पिछली सरकारों से काफी कुछ अलग क्या करने वाली है. ऐसा एक भी प्रस्ताव नहीं सुना. केवल एक चीज हमने सुनी कि कनिष्ठ मंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय अपना काम करेगा. ठीक है. यह उनके कामकाज की शैली है, लेकिन नीतियां क्या होने जा रही हैं? आख़िरकार, एक जनादेश मिला है. एक बदलाव के लिए, पहली बार एक स्पष्ट जनादेश मिला है.
दुर्भाग्य से, उनका जोर राम मंदिर और अनुच्छेद 370 पर रहा है, जिसका वास्तव में कोई असर नहीं पड़ता. सौभाग्य से, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने इस पर कुछ बोला नहीं. लेकिन, आप देश को कैसे चलाने जा रहे हैं और आपकी नीतियों की लाइन क्या है, यह अहम है. क्या आप कांग्रेस की नीतियां जारी रखने जा रहे हैं, जहां खराब प्रशासन और कराधान नियम के तहत कॉरपोरेट्स से पैसे इकट्ठा करके ग़रीबों के लिए बनी योजनाओं, जैसे मनरेगा आदि पर बड़े पैमाने पर खर्च करेंगे? यह पैसा ग़रीबों की बजाय बिचौलियों को जाता है. जब एक परिवर्तन होता है, तो लोग उम्मीद करते हैं. ऐसे में नई सरकार को स्पष्ट नीति के साथ सामने आना चाहिए और बताना चाहिए कि वह काफी कुछ बदलने जा रही है. जैसे, कुछ ज़िलों में मनरेगा को सीमित किया जाएगा या एक साथ समाप्त किया जाएगा और ग़रीबों की मदद करने के लिए एक नए प्रकार की योजना तैयार की जाएगी. वित्त मंत्री को ऐसा कोई संकेत देना चाहिए था, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया, न किया गया. बेशक, आप क्या करेंगे, इसके लिए बजट का इंतजार करना होगा.
दूसरी ओर कुछ परेशानी वाले लक्षण, विशेष रूप से पूर्व सेना प्रमुख वी के सिंह और सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे से संबंधित मामले में दिख रहे हैं. यह हलफनामा नई सरकार को दिखाए बिना नौकरशाहों की ओर से दायर किया गया है. स्पष्ट है कि यह हलफनामा मनमोहन सिंह सरकार के विचारों को दर्शाता है. दु:खद बात यह है कि नई सरकार सेना से डरती दिख रही है. कोई भी सरकार सेना प्रमुख की नियुक्ति से पहले उसके नाम की समीक्षा करती है और करना भी चाहिए. सेना प्रमुख की नियुक्ति 31 मई को होनी चाहिए थी. यानी मौजूदा सेना प्रमुख की सेवानिवृत्ति से दो महीने पहले. बजाय इसके चुनाव परिणाम आने यानी 16 मई से पहले ही नियुक्ति कर दी गई. अकेले इसी आधार पर नई सरकार को कहना चाहिए कि नहीं, हमारे मन में किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं है, लेकिन हम इस मामले की समीक्षा करेंगे. अगर हम उन्हें इस पद के लिए सही व्यक्ति पाएंगे, तो अनुमोदन करेंगे और अगर नहीं पाएंगे, तो एक नए नाम का ऐलान करेंगे. लेकिन वे डरे हुए हैं और उन्होंने मामले पर किसी भी कार्रवाई से न कह दिया और कहने लगे कि आर्मी एक संस्थान है. मुझे यह सब समझ में नहीं आता. आख़िर कैसा संस्थान? आपके पास एक चुनी हुई सरकार है और वह भी पूर्ण बहुमत की सरकार. यह क्या बात हुई कि आर्मी एक संस्थान है! सुरक्षा बल है. वास्तविकता में अपने नियमों के साथ यह एक संस्थान है. इसलिए उस समय के सेना प्रमुख ने संस्थान के भीतर जो कुछ किया, उसका समर्थन किया जाना चाहिए.
मनमोहन सरकार ने बिक्रम सिंह की नियुक्ति निहायत गलत तरीके से की. वह सेना प्रमुख बनने के काबिल नहीं थे. वास्तव में बारी तो किसी दूसरे की थी और अब ठीक उसी प्रकार उन्होंने दूसरी नियुक्ति भी कर दी. पिछली सरकार इस बात को लेकर जल्दबाजी में थी. उसकी जल्दबाजी समझ में भी आती है, क्योंकि किसी दूसरी तरह की सोच का व्यक्ति इस पद पर न बैठ सके. आख़िर क्या है यह दूसरी तरह की सोच? रक्षा विभाग के बारे में जानने वालों के लिए यह बात बहुत ही आम है. यह पूरा खेल आर्म्स डीलर्स का है. जनरल वी के सिंह के बारे में उनके विरोधी भी जानते हैं कि वह भ्रष्ट नहीं हैं और कोई भी आर्म्स डीलर उन तक पहुंच नहीं बना सका. यहां पर आर्म्स डीलर्स की एक पूरी लॉबी है, जो अपने पसंदीदा लोगों को सही जगहों तक पहुंचाना चाहती है. मैं बिक्रम सिंह और नए बनने वाले सेना प्रमुख के बारे में नहीं जानता. रक्षा मंत्रालय के तात्कालिक इंचार्ज अरुण जेटली ने कहा कि हम इस नई नियुक्ति में कोई बदलाव नहीं करेंगे. यह बात मुझे समझ में नहीं आती. आख़िर आर्मी सरकार से ऊपर तो नहीं है. आप एक पूर्ण बहुमत की सरकार हैं और आप अपने मतदाताओं के लिए उत्तरदायी हैं. लोग आपको उन बातों के लिए ज़िम्मेदार ठहराएंगे, जिनका आपने उनसे वादा किया है.
सरकार का इस मामले पर रुख एक शुभ संकेत नहीं है.
वर्दीधारी लोगों पर निर्भर होना एक हद तक ठीक है, लेकिन आप देश स़िर्फ इन्हीं के सहारे नहीं चला सकते हैं. ऐसी अवस्था में पाकिस्तान प्रसन्न होगा कि हम उसे कॉपी कर रहे हैं. हम एक सिविल सोसायटी हैं और एक सिविलियन गवर्नमेंट का सेना और पुलिस पर प्रभुत्व होना चाहिए. अपने चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने जो कुछ भी कहा हो, लेकिन अब उन्हें यह याद रखना होगा कि इससे पहले वाली एनडीए सरकार ने नौसेना अध्यक्ष को बर्खास्त किया था. लोगों ने भले ही उसकी आलोचना की हो, मगर चंद्रशेखर जी और वी पी सिंह ने कहा था कि एक सिविलियन गवर्नमेंट को पूरा अधिकार है कि वह सेना के किसी भी आदमी को बर्खास्त कर सकती है या नियुक्त कर सकती है. इसकी आलोचना करने का कोई मतलब नहीं है. सिविलियन गवर्नमेंट की पवित्रता बरकरार रहनी चाहिए. आख़िर यह सरकार एक सही नतीजे तक पहुंचने से डर क्यों रही है? आख़िर क्यों कुछ विधि अधिकारियों को हलफनामा देकर आपको शर्मसार करना चाहिए? जनरल वी के सिंह ने कुछ ट्वीट किया और सारे इलेक्ट्रानिक चैनलों ने कुछ भी दिखाना शुरू कर दिया. दरअसल, आर्म्स लॉबी का इन चैनलों तक पहुंच बना लेना भी कोई कठिन काम नहीं है. मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री को इस मामले में हस्तक्षेप करके इसकी तह तक जाना चाहिए.

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