aap-partyचुनाव में अभी कई महीने बाकी हैं. चुनावी राजनीति की दिशा और दशा बदलने के लिए एक सप्ताह का वक्त भी काफी होता है. एक गलत फैसला या एक गलत बयान से जीती हुई बाजी हार में बदल जाती है. पंजाब चुनाव में तो अभी कई महीने बाकी हैं. अभी किसी भी पार्टी ने अपने-अपने पत्तों का खुलासा भी नहीं किया है. किसी पार्टी का उम्मीदवार भी तय नहीं हुआ है. ऐसे में चुनावी सर्वे ही एकमात्र माध्यम हैं जिसके जरिए लोग मतदाताओं के मूड को समझने की कोशिश करते हैं. हालांकि चुनावी सर्वे की सत्यता और विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं. आज का मतदाता इतना खामोश और परिपक्व हो चुका है कि एक्जिट पोल पूरी तरह गलत साबित हो जाते हैं. चुनावी सर्वे से हमें महज इशारा मिलता है. हवा के रुख का पता चलता है. इसलिए पंजाब चुनाव को समझने के लिए चुनावी सर्वे पर नजर डालना जरूरी है.

कुछ दिन पहले सी-वोटर्स का सर्वे आया. यहां ये बताना जरूरी है कि सी-वोटर्स के बारे में यह धारणा है कि इसका आंकलन भारतीय जनता पार्टी के प्रति झुका होता है. सी-वोटर्स के सर्वे के जो नतीजे हैं वो चौंकाने वाले हैं. इस सर्वे के मुताबिक पंजाब के कुल 117 सीटों में से आम आदमी पार्टी 94-100 सीट जीत सकती है. कांग्रेस पार्टी 8-14 सीटें जीत कर दूसरे स्थान पर रहेगी, तो वहीं अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ 6-12 सीटें मिलने की उम्मीद है. बेशक, इस सर्वे का नतीजा आम आदमी पार्टी के लिए एक बड़ी खुशखबरी है. लेकिन इस सर्वे में आम आदमी पार्टी के लिए खतरे की घंटी भी है. इस सर्वे के मुताबिक 59 फीसद लोग अरविंद केजरीवाल को पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. पंजाब के मतदाताओं की जनभावना को अरविंद केजरीवाल कैसे पूरा करेंगे यह देखना रोचक होगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई में पंजाब की जमीनी हकीकत यही है जैसा कि सी-वोटर्स के सर्वे के नतीजे में अनुमान लगाया गया?

दरअसल, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-भारतीय जनता पार्टी सरकार के खिलाफ माहौल है. मतदाता वर्तमान राज्य सरकार से नाराज हैं इस बात को सरकार चलाने वाले पार्टियों के लोग भी मानते हैं. इसमें दो राय नहीं है कि पंजाब विधानसभा चुनाव में सरकार-विरोधी लहर का बड़ा असर होने वाला है. लोगों में नाराजगी की वजह कई हैं. नाराजगी की सबसे बड़ी वजह भ्रष्टाचार है. लोगों को लगता है कि अकाली दल – भारतीय जनता पार्टी की सरकार अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है. कई घोटाले उजागर हुए और प्रकाश सिंह बादल की गलती यह रही कि उन्होंने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. दूसरी समस्या ये है कि बादल सरकार युवाओं को रोजगार मुहैय्या कराने में पूरी तरह से विफल रही है. पंजाब में औद्योगीकरण पूरी तरह से ठप्प रहा है. निवेश के मामले में भी पंजाब देश के दूसरे राज्यों से पिछड़ता चला गया. युवाओं के लिए बादल सरकार अवसर प्रदान नहीं कर सकी और इसका असर ये हुआ कि नशे का जहर समाज में घुलता चला गया. सरकार विरोधी लहर का असर शहरों में ज्यादा दिखाई दे रहा है. शहरों में सरकार के प्रति ज्यादा नाराजगी है. वैसे भी, परंपरागत रूप से शिरोमणि अकाली दल की ताकत पंजाब के ग्रामीण मतदाता हैं और इस वर्ग में प्रकाश सिंह बादल की साख आज भी बरकरार है. अकाली दल की दूसरी समस्या यह है कि इस पार्टी में बादल परिवार के बाहर किसी भी नेता की कोई हस्ती नहीं है. यह आम धारणा है कि प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री के नाम पर मुखौटे की तरह रहे, असल में सारे फैसले उनके बेटे सुखवीर सिंह बादल के हाथ में था. सुखवीर सिंह बादल के बारे में कहा जाता है कि वो तानाशाह की तरह पार्टी चलाते हैं. किसी दूसरे की बात सुनते ही नहीं है. दस साल तक लगातार सत्ता में रहने के बाद भी उनके रवैये में कोई बदलवा नहीं हुआ जिसकी वजह से अब पार्टी कार्यकर्ताओं, गठबंधन के नेताओं और आम जनता का धैर्य भी खत्म हो गया.

भारतीय जनता पार्टी और अकाली दल में तालमेल नहीं है. हकीकत यह है कि जमीनी स्तर पर यह गठबंधन टूट चुका है. वैसे, पंजाब में भारतीय जनता पार्टी एक छोटी पार्टी है और केंद्रीय नेताओं ने इसके विस्तार पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. पंजाब में भारतीय जनता पार्टी शिरोमणि अकाली दल की पिछलग्गु पार्टी बनकर रह गई है. हालांकि, पंजाब में भारतीय जनता पार्टी के जमीनी नेता और कार्यकर्ता भी बादल सरकार से नाराज रहे लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के फैसले की वजह से खुल कर विरोध नहीं कर सके. कई लोगों का मानना है कि लोकसभा चुनाव में अमृतसर से अरुण जेटली की हार इसी वजह से हुई थी. फिलहाल, हालात तो ये हैं कि भारतीय जनता पार्टी के कई नेता पंजाब में शिरोमणि अकाली दल से अलग होकर चुनाव लड़ने को इच्छुक हैं. इसका अर्थ ये है कि सरकार विरोधी लहर के साथ-साथ शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी के साथ तल्ख हुए रिश्ते का भी नुकसान उठाना पड़ेगा.

कांग्रेस पार्टी के सामने पंजाब चुनाव बहुत बड़ी चुनौती है. विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी लगातार हारती जा रही है. कांग्रेस पार्टी जिन जिन राज्यों में सरकार चला रही थी हर जगह सत्ता से बाहर होती चली जा रही है. लेकिन जिन राज्यों में विपक्ष में है वहां तो कम से कम चुनाव जीत कर पार्टी को अपनी उपस्थिति, प्रमाणिकता और औचित्य साबित करना होगा. असम और केरल में सरकार गंवाने के बाद, पंजाब में चुनावी जीत से ही कांग्रेस पार्टी को संजीवनी मिल सकती है. साथ ही, उत्तर प्रदेश के चुनाव से पहले पंजाब में चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए अनिवार्य है, नहीं तो उत्तर प्रदेश के साथ-साथ गांधी पारिवार की साख पर भी सवालिया निशान खड़ा हो जाएगा. पंजाब की राजनीति और इतिहास को देखें तो सामान्य तर्क तो यही कहता है कि इस बार कांग्रेस की सरकार बननी चाहिए. लेकिन जिस तरह का राजनीतिक-वातावरण है उसमें कांग्रेस पिछड़ती दिखाई दे रही है. अमरिंदर सिंह लोगों में विश्वास जगाने में विफल नजर आ रहे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि पार्टी पहले से ही अतर्ंकलह में उलझी हुई थी. हाईकमान अभी तक पंजाब के अंतर्कलह का हल निकाल नहीं पाया है. इनका नतीजा ये है कि कांग्रेस पार्टी पंजाब में तैयारी के लिहाज से सबसे पीछे है. पंजाब में चुनावी रणनीति बनाने के लिए प्रशांत किशोर को लगाया गया है. बताया ये जा रहा है कि प्रशांत किशोर को लेकर अमरिंदर सिंह नाराज हैं. कांग्रेस की समस्या ये है कि उसके पास कैप्टन अमरिंदर सिंह से ज्यादा विश्वसनीय कोई दूसरा चेहरा नहीं है.

पंजाब में भ्रष्टाचार है. पंजाब की कानून व्यवस्था खराब है. लोगों को लगता है कि पंजाब में माफिया राज है. बेरोजगारी की वजह से पंजाब का युवा नशे के जाल में फंस गया. न निवेश हुआ न विकास. यही वजह है कि वर्तमान सरकार से पंजाब के लोग जबरदस्त नराज हैं. लोग बदलाव चाहते हैं. सवाल यह है कि पंजाब की जनता के सामने विकल्प क्या है? सच्चाई ये है कि लोग अभी भी कांग्रेस से नाराज हैं. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर राहुल गांधी हों या कैप्टन अमिरंदर सिंह, लोगों के विश्वास को जीतने में कांग्रेस विफल रही है. यही वजह है कि पंजाब में तीसरी शक्ति का स्थान बना, जिसे आम आदमी पार्टी ने भरा है. फिलहाल, पंजाब का माहौल आम आदमी पार्टी के पक्ष में है. जो लोग बदलाव चाहते हैं उनके लिए आम आदमी पार्टी पहली पसंद बन गई है.

पंजाब में आम आदमी पार्टी एक विश्वसनीय विकल्प के रुप में उभरी है. इस बात की पुष्टि लोकसभा चुनाव के नतीजे ने भी की. आम आदमी पार्टी ने पंजाब में चार सीट जीत कर पूरे देश को चौंका दिया था. लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी के अंदर काफी उथल पुथल भी हुई है. पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच गुटबाजी है. नेताओं के बीच भी भारी गुटबाजी है. पंजाब में आम आदमी पार्टी के चार में से तीन सांसद पार्टी के साथ नहीं है. पार्टी में स्थानीय नेतृत्व नहीं है. यही वजह है कि केजरीवाल ने प्रचार की कमान अपने हाथ में ले रखी है. इतना ही नहीं सांगठनिक कार्यों से जुड़ा सारा फैसला दिल्ली से आए नेता लेते हैं. समझने वाली बात यह है कि हर पार्टी के अंदर इस तरह की खेमेबाजी होती है. पावर के लिए संघर्ष होता है. यह कोई नई बात नहीं है. हर पार्टी को इस विरोधाभास से गुजरना होता है. हर पार्टी अपने तरीके से पार्टी के आंतरिक कलह का हल निकालती है. जब पार्टी के सर्वोच्च नेता और सारे वरिष्ठ नेता एक साथ मिलकर चुनावी-रणनीति को बनाने से लेकर अमल करने पर शामिल हों तो पार्टी के अंदर खेमेबाजी पर नियंत्रण करना आसान हो जाता है. अरविंद केजरीवाल यही कर रहे हैं. चुनाव प्रचार की कमान केजरीवाल ने अपने हाथ में रखी है. पार्टी के सारे बड़े नेता पिछले छह महीने से लगातार पंजाब में कैम्प कर रहे हैं. हर शहर और कस्बे में जाकर पार्टी को संगठित कर रहे हैं. अभी तक मुख्यमंत्री के उम्मीदावार की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन यह तय है कि आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही चुनाव लड़ेगी.

केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के प्रचार अभियान को लोगों का समर्थन मिल रहा है. केजरीवाल जहां जाते हैं लोगों की भीड़ होती है. दिल्ली से गए आम आदमी पार्टी के नेताओं को भी अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. लेकिन दिक्कत ये है कि पार्टी के पास स्थानीय चेहरे की कमी है. जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता तो हैं, लेकिन उन्हें नेतृत्व देने वाले नेताओं की कमी है. आम आदमी पार्टी के रणनीतिकारों को इन कमियों के बारे में पता है इसलिए दिल्ली से नेताओं को लगातार पंजाब भेजा जा रहा है और अलग-अलग कार्यक्रम के जरिए कार्यकर्ताओं और लोगों में उत्साह को बरकरार रखने की कोशिश हो रही है. इसमें कोई शक नहीं है कि पहली बार पंजाब में मुकाबला त्रिकोणीय होने जा रहा है. कई विश्लेषकों को लगता है कि 2012 के चुनाव में मनप्रीत सिंह बादल ने भी त्रिकोणीय मुकाबला बनाने की कोशिश की थी, लेकिन चुनाव के आखिर तक वो मैदान में टिक नहीं सके. संसाधन की कमी, चुनाव तैयारी में कमी और अच्छे उम्मीदवार की कमी के बावजूद मनप्रीत सिंह 5 फीसदी वोट तो लेने में कामयाब हुए लेकिन एक भी सीट नही जीत सके. लेकिन समझने वाली बात यह है कि अरविंद केजरीवाल और मनप्रीत सिंह की राजनीति में काफी फर्क है. सबसे बड़ा फर्क ये है कि केजरीवाल को न तो संसाधन की कमी है और न ही कार्यकर्ताओं की. अरविंद केजरीवाल ने बड़ी सफलता से वर्तमान सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी को अपने समर्थन में तब्दील किया है. पंजाब में दलितों में भी अपनी पैठ बनाई है. साथ ही वह काग्रेस पार्टी के शहरी वोटरों का दिल जीतने में भी कामयाब रहे हैं. यही वजह है कि पंजाब में महौल आम आदमी पार्टी के पक्ष में है. फिलहाल यह कहा जा सकता है कि चुनाव जीतने के लिए आम आदमी पार्टी को अब सिर्फ 117 अच्छे उम्मीदवार की जरूरत है. लेकिन सभी राजनीतिक दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव और क्रिकेट मैच में एक समानता है. इसमें आखरी दांव तक जीत और हार का पता नहीं चलता है. पंजाब के लोग धार्मिक है, जज्बाती हैं और संवेदनशील भी हैं. चुनाव के दौरान दिल को छूने वाला एक वाक्य भी हार को जीत में बदल सकता है और अतिउत्साह में हुई छोटी सी गलती भी विध्वंशकारी साबित हो सकती है.

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