आख़िर ग़रीब कौन है? क्या ग़रीबी महज आंकड़ों में सिमट जाने का नाम भर है? क्या ग़रीबी का मतलब 20 रुपये रोजाना की कमाई पर जिंदा लोगों या 32 रुपये रोजाना की कमाई पर जिंदा लोगों से है? आज़ादी के 65 वर्षों के बाद भी आज अगर हम यह तक तय नहीं कर सके कि ग़रीबी रेखा क्या हो, तो यह वाकई इस देश के लिए शर्म की बात है. करोड़ों रुपये खर्च करके एक कमेटी बनाई जाती है, यह तय करने के लिए कि ग़रीब कौन है. फिर एक कमेटी बनाई जाती है, ताकि वह पहली वाली कमेटी की सच्चाई का पता लगाए. सवाल यह है कि क्या इस देश में ग़रीबी कमेटी-कमेटी खेलने से ख़त्म हो जाएगी या फिर सचमुच एक ईमानदार प्रयास की ज़रूरत है, ताकि बुलेट ट्रेन के साथ-साथ ग़रीबों की ज़िंदगी भी पटरी पर आ सके?
ग़रीबी का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल कर सामने आ गया है. इस बार यह जिन्न निकालने का काम किया है रंगराजन समिति ने. रंगराजन समिति की रिपोर्ट ने बताया है कि 2011-12 में देश में 36.3 करोड़ ग़रीब थे. भारत में ग़रीबी रेखा का निर्धारण हमेशा विवादों के घेरे में आता रहा है. इसके तरीकों और नतीजों पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं. रंगराजन समिति की रिपोर्ट के अनुसार, शहरों में रोजाना 47 रुपये और गांवों में 32 रुपये से कम खर्च करने वालों को ग़रीब माना जाए. इससे पहले सुरेश तेंदुलकर समिति ने बताया था कि शहरों में 33 रुपये और गांवों में 27 रुपये से कम खर्च करने वाले लोग ग़रीब हैं. जाहिर है, इस रिपोर्ट की मानें, तो देश में ग़रीबों की संख्या बढ़ गई है. अब देश में ग़रीबों की संख्या बढ़कर 36.3 करोड़ यानी कुल आबादी का 29.3 फ़ीसद हो गई है, जबकि सुरेश तेंदुलकर समिति के अनुसार, यह संख्या 26.98 करोड़ यानी 21.9 फ़ीसद थी. ग़ौरतलब है कि सितंबर 2011 में यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि शहरों में प्रतिदिन 33 एवं गांवों में 27 रुपये से ज़्यादा खर्च करने वालों को केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से ग़रीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का लाभ नहीं दिया जाएगा.
बहरहाल, अगर रंगराजन समिति की सिफारिशें मान ली जाती हैं, तो देश में ग़रीबों की संख्या में 10 करोड़ की बढ़ोत्तरी हो सकती है. यह रिपोर्ट नई सरकार के पहले बजट से ठीक पहले आ गई है. रंगराजन समिति ने केंद्रीय योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह को अपनी रिपोर्ट से संबंधित जानकारियां दे दी हैं. नई सरकार इस रिपोर्ट पर क्या करती है और बजट में इसे लेकर क्या प्रावधान किए जाते हैं, यह भी देखना इस देश के ग़रीबों के लिए दिलचस्प होगा. यूपीए सरकार ने 2012 में रंगराजन की अगुवाई में टेक्निकल एक्सपर्ट ग्रुप बनाया था. यह एक्सपर्ट ग्रुप सरकार ने तेंदुलकर समिति के ग़रीबों के आकलन पर बवाल मचने के बाद बनाया था. रंगराजन उस वक्त प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन थे. रंगराजन समिति ने केंद्रीय योजना मंत्री को दिए गए अपने 9 पृष्ठीय प्रेजेंटेशन के जरिये पेश किए आंकड़ों की पद्धति में बारे में विस्तार से नहीं बताया है.
रंगराजन समिति ने गांवों में ग़रीबों के लिए रोजाना प्रति व्यक्ति आय 27 से बढ़ाकर 32 रुपये कर दी है, जबकि शहरी ग़रीबों के लिए यह सीमा 33 से बढ़ाकर 47 रुपये कर दी गई है. यानी नई सिफारिशों के अनुसार, शहरों में 1407 और गांवों में 972 रुपये प्रति माह से ज़्यादा कमाने वाले लोग ग़रीब नहीं माने जाएंगे. इससे पहले तेंदुलकर समिति ने 2011-12 के नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों के आधार पर यह सीमा क्रमश: 1,000 और 816 रुपये बताई थी. इसका अर्थ यह हुआ कि रंगराजन समिति के मुताबिक, 5 सदस्यों वाले परिवार में कंज्मप्शन एक्सपेंडिचर के लिहाज से ग्रामीण इलाकों में यह रकम 4,760 और शहरी इलाकों में 7,035 रुपये प्रति माह बैठती है. तेंदुलकर समिति ने इसे 4,080 और 5,000 रुपये प्रति माह रखा था. रंगराजन समिति की मानें, तो 2011-12 में ग्रामीण इलाकों में 30.95 फ़ीसद लोग ग़रीबी रेखा से नीचे थे, जबकि शहरी इलाकों में 26.4 फ़ीसद. योजना आयोग ने पिछले साल तेंदुलकर समिति के आधार पर ग़रीबी से जुड़े आंकड़े पेश किए थे, जिनमें 7 वर्षों के दौरान 13.7 करोड़ लोगों के ग़रीबी रेखा से ऊपर उठने की बात कही गई थी.
इस रिपोर्ट के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. आरबीआई के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन को ग़रीबी रेखा के निर्धारण की ज़िम्मेदारी मनमोहन सिंह सरकार ने दी थी, जबकि रिपोर्ट नरेंद्र मोदी सरकार में ठीक बजट के वक्त आई. जाहिर है, आम बजट के ठीक पहले आई इस रिपोर्ट ने मोदी सरकार के सामने एक कठिन चुनौती पेश की है. बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल ग़रीबी के पैमाने तय करने के तरीकों को लेकर भी है. इस पर अब तक एक राय नहीं बन सकी है. विश्व बैंक ने 2008 में सवा डॉलर की एक ग्लोबल पावर्टी लाइन तय की थी. इस आधार पर भारत में ग़रीबी का पैमाना 75 रुपये के आसपास होना चाहिए. एक सवाल यह भी कि जिस देश में खुदरा महंगाई दर 9 फ़ीसद हो, वहां एक महीने में 1,400 रुपये से कुछ ज़्यादा खर्च करने वाले को ग़रीबी रेखा से ऊपर यानी खुशहाल कैसे माना जा सकता है?
आंकड़ों में उलझ गई ग़रीबों की किस्मत
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