संघ किस तरह भारत की जनता के जीवन में खुशहाली लाएगा यह देखने की चीज है. नरेंद्र मोदी को जो ढांचा मिला है, वह ढांचा भ्रष्टाचार के तरी़के तलाशने में तो माहिर है, लेकिन लोगों की ज़िंदगी में खुशहाली लाने में सक्षम नहीं है. नरेंद्र मोदी के पास एक अतिरिक्त साधन है और वह साधन है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का देश में फैला जाल. क्या देश की जनता को भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोज़गारी से मुक्ति दिलाने में कार्यकर्ताओं के इस महाजाल का कोई उपयोग संघ और नरेंद्र मोदी करेंगे? करेंगे तो कैसे करेंगे, यह भी एक सवाल है.
भारतीय राजनीति में नई ताक़तें सामने आ रही हैं और इन ताक़तों ने नए सिरे से देश की समस्याओं को हल करने का नक्शा भी बनाना शुरू दिया है. इन ताक़तों ने पुरानी ताक़तों को सफलता पूर्वक किनारे करने का भी काम किया है. इनमें पहली ताक़त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. अब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक सांस्कृतिक संगठन माना जाता था. न केवल संघ ने, बल्कि भारतीय जनता पार्टी ने भी हमेशा इस आरोप को ख़ारिज किया कि भारतीय जनता पार्टी संघ के आदेश पर काम करती है. भारतीय जनता पार्टी हमेशा कहती रही है कि वह स्वतंत्र संगठन है. चूंकि संघ से उसका रिश्ता है तो, वह आदर करती है और संघ भी यह कहता रहा है कि भारतीय जनता पार्टी एक स्वतंत्र संगठन है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में माना जाता है कि उसने राजनीति के लिए भाजपा को जिस तरह स्थापित किया, उसी तरह उसने समाज के विभिन्न वर्गों में काम करने के लिए अलग-अलग संगठन स्थापित किए हैं. विश्व हिंदू परिषद, वनवासी सेवा आश्रम और विवेकानंद के नाम से चलने वाले 90 प्रतिशत संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पोषित संगठन माने जाते हैं. ये तमाम संगठन समाज में एक निश्चित विचारधारा और आदर्श स्थापित करने के लिए काम कर रहे हैं. इनमें सबसे बड़ी श्रृंखला शिशु मंदिरों की है, जहां बच्चों को प्रारंभ से ही संघ की परिभाषा के अनुसार भारतीय आदर्शों में ढ़ालने की कोशिश की जाती है. लगभग दो साल या तीन साल पहले संघ ने यह महसूस किया कि भारतीय जनता पार्टी अपने आदर्शों से दूर हो गई है, बेलगाम हो गई है और वह भी उसी तरह काम कर रही है, जिस तरह कांग्रेस पार्टी काम करती है. जब श्री मोहन भागवत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघकार्यवाह बनें तो, उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के ऊपर विशेष ध्यान देना शुरू किया. उन्होंने पहली कोशिश भारतीय जनता पार्टी के स्थापित नेताओं को बदलने की की. भाजपा में उस समय के स्थापित नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री मुरली मनोहर जोशी और श्री अटल बिहारी वाजपेयी थे. अटल बिहारी वाजपेयी का क़द सामान्य था, लेकिन मोहन भागवत को लग गया था कि जब भी वह सत्ता में आएंगे तो, भाजपा को 70 साल से ऊपर के नेताओं से मुक्त कराएंगे, क्योंकि जब तक भारतीय जनता पार्टी इन नेताओं की छाया से मुक्त नहीं होती, तब तक दूसरे दर्जे के नेताओं को स्थापित करना लगभग असंभव है. हालांकि उनकी तमाम कोशिशों को अक्सर नाक़ाम होते देखा गया.
यह नाक़ामी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर बहुत ज़्यादा चिंता का विषय बनीं और तब श्री नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का नया अध्यक्ष बनाने की कोशिश शुरू हुई. भारतीय जनता पार्टी का स्थापित नेतृत्व किसी भी क़ीमत पर नितिन गडकरी को न तो दिमाग़ी तौर पर इस योग्य मानता था और न ही उन्हें राजनीति में बहुत प्रासंगिक मानता था. दरअसल, नितिन गडकरी एक राज्य स्तरीय नेता थे और उनके खाते में कुछ अच्छी सड़कें बनाने के अलावा कुछ भी नहीं था, लेकिन नागपुर वासी होने के नाते मोहन भागवत के साथ उनका अच्छा संवाद था. यही वजह थी कि मोहन भागवत उनकी राजनीतिक समझ के कायल हो गए. उन्हें लगा कि इस सवाल के ऊपर शो डाउन होना चाहिए. तमाम विरोध के बावजूद अंततः नितिन गडकरी भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए. नितिन गडकरी को महल के अंदर होने वाले षड्यंत्र का शिकार होना पड़ा. भारतीय जनता पार्टी के अंदर से ही उनकी कंपनी पूर्ति के ख़िलाफ़ दस्तावेज़ बाहर आए और चिदंबरम को मिले. उनके यहां इनकम टैक्स का छापा पड़ा और उस छापे ने नितिन गडकरी को इस्तीफ़ा देने के लिए विवश किया. संघ ने इस आश्वासन के साथ उनका इस्तीफ़ा लिया था कि जैसे ही वह इनकम टैक्स के आरोपों से बरी होंगे, वैसे ही उन्हें भारतीय जनता पार्टी का पुनः अध्यक्ष बनाया जाएगा.
इन घटनाओं के बीच में नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच जवाबी अंताक्षरी हुई. नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गुजरात में एक किनारे किया और भारतीय जनता पार्टी के उन पुराने नेताओं को एक किया, जो उनका शासन चलाने में किरकिरी बन सकते थे. संघ को यह पसंद नहीं आया, लेकिन जब संघ ने तुलना की कि एक तरफ लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वैंकेया नायडू और अनंत कुमार की जोड़ी है. दूसरी तरफ सुषमा स्वराज और अरुण जेटली की जोड़ी है, जो दिल्ली में किसी को घुसने नहीं देना चाहते और भाजपा को अपने वैचारिक ़कैद से मुक्त ही नहीं करना चाहते, तो क्यों न नरेंद्र मोदी का साथ देकर इन्हें एक किनारे किया जाए. जितनी बातें हम लिख रहे हैं, इन बातों में सौ प्रतिशत सच्चाई इसलिए है कि ये बातें इन घटनाओं में शामिल लोगों ने ही मुझे बताई हैं. संघ जो पहले नरेंद्र मोदी को नापसंद करता था, उसने अचानक नरेंद्र मोदी को पसंद करना शुरू किया. उसे लगा कि नरेंद्र मोदी को गुजरात से निकाल कर भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं को एक किनारे करना चाहिए और नरेंद्र मोदी के ज़रिए भारत की सत्ता के ऊपर दांव लगाना चाहिए. नरेंद्र मोदी के लिए भी संघ का यह साथ सौ प्रतिशत मददगार साबित हो रहा था. नरेद्र मोदी ने एक तरफ वर्ष 2006 से अपना व्यक्तिगत मार्केटिंग प्लान शुरू किया और प्रधानमंत्री बनने के लिए रणनीति बनाई. दूसरी तरफ संघ ने देशभर में अपने स्वयंसेवकों को इस बात के लिए संकेत देने शुरू कर दिए कि जब अंतिम युद्ध हो यानी 2014 के चुनाव में वोटिंग होने वाली हो, उसके बीस-पच्चीस दिन पहले नरेंद्र मोदी को लेकर किस तरह की बातें सारे देश में फैलानी है. एक तरफ संघ नियंत्रक की भूमिका में था, वहीं दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी सामने आकर उसे कार्यरूप में परिणित करने की भूमिका में थे. भारतीय जनता पार्टी के किसी और नेता को कोई भूमिका नहीं दी गई. एक भूमिका राजनाथ सिंह की थी, जिनके ऊपर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में विश्वास और अविश्वास दोनों थे. संघ का यह राजनीतिक दांव सफल हुआ और पहली बार भारतीय जनता पार्टी बहुमत में आ गई. अब संघ चाहता है कि कांग्रेस को इतना ज़्यादा अकेला कर दिया जाए कि कांग्रेस चुनाव में जाने के नाम पर लड़े और राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय पार्टी की भूमिका निभाए. इसके लिए उसने नरेंद्र मोदी को सलाह दी है कि कांग्रेस के जितने भी सहयोगी हैं, उन्हें अपने साथ लेकर कोई न कोई भूमिका निश्चित करें. संघ चाहता है कि नरेद्र मोदी की तस्वीर कुछ इस तरह बदले की यह देश, जो विकास के नाम पर पिछले बीस वर्षों से ठहरा हुआ था, वह विकास की ओर जाता हुआ दिखाई दे. हालांकि संघ एक अंतर्विरोध में है. संघ स्वदेशी चाहता है और आर्थिक नीतियां स्वदेशी के ख़िलाफ़ खड़ी हुईं हैं.
संघ और भारतीय जनता पार्टी का यह अंतर्विरोध काफ़ी मज़ेदार अंतर्विरोध है. इसका मतलब एक यह निकलता है कि संघ देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लाना चाहता है. देश में बने सामानों का उत्पादन करना चाहता है और उसकी बिक्री करना चाहता है. वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की सरकार नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में भरोसा करती है, जिनका प्रादुर्भाव श्री मनमोहन सिंह ने नरसिम्हा राव के नेतृत्व में 1992 में किया था. देश महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी के जाल में इन नीतियों की वजह से फंस गया और उन्हीं नीतियों पर मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की सरकार चलती नजर आ रही है.
संघ और भारतीय जनता पार्टी का यह अंतर्विरोध काफ़ी मज़ेदार अंतर्विरोध है. इसका मतलब एक यह निकलता है कि संघ देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लाना चाहता है. देश में बने सामानों का उत्पादन करना चाहता है और उसकी बिक्री करना चाहता है. वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की सरकार नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में भरोसा करती है, जिनका प्रादुर्भाव श्री मनमोहन सिंह ने नरसिम्हा राव के नेतृत्व में 1992 में किया था. देश महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी के जाल में इन नीतियों की वजह से फंस गया और उन्हीं नीतियों पर मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की सरकार चलती नजर आ रही है. संघ किस तरह भारत की जनता के जीवन में खुशहाली लाएगा यह देखने की चीज है. नरेंद्र मोदी को जो ढ़ांचा मिला है, वह ढ़ांचा भ्रष्टाचार के तरी़के तलाशने में तो माहिर है, लेकिन लोगों की ज़िंदगी में खुशहाली लाने में सक्षम नहीं है. नरेंद्र मोदी के पास एक अतिरिक्त साधन है और वह साधन है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का देश में फैला जाल. क्या देश की जनता को भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोज़गारी से मुक्ति दिलाने में कार्यकर्ताओं के इस महाजाल का कोई उपयोग संघ और नरेंद्र मोदी करेंगे? करेंगे तो कैसे करेंगे यह भी एक सवाल है.
एक और सवाल है. देश में मुसलमानों के नाम पर और दलितों के नाम पर अतिरिक्त विकास हो, इसे भारतीय जनता पार्टी नहीं मानती. वह कहती है कि हम सबका विकास करेंगे. इसमें कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि जब सबका विकास होगा तो, मुसलमानों और दलितों का भी होगा. नदी से पानी सभी पीते हैं, बारिश होती है तो, सभी घरों में होती है, हवा चलती है तो, सभी घरों में जाती है, धूप होती है तो, सभी घरों में होती है. विकास का कौन सा ढ़ांचा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सुझाता है और कौन सा ढ़ांचा नरेंद्र मोदी अपनाते हैं यह यक्ष प्रश्न है.
मेरा अपना मानना है कि मौजूदा आर्थिक नीतियों का पुनरावलोकन आवश्यक है. ये आर्थिक नीतियां हमें डंकल ड्राफ्ट की तरफ़ ले जाती हैं, ये आर्थिक नीतियां हमें अमेरिका की गोद में ले जाती हैं, ये आर्थिक नीतियां देश में पूंजी का केंद्रीकरण दिखाती हैं और ये आर्थिक नीतियां इस देश के ग़रीबों के हक़ में उठी आवाज़ को नक्सलवादी बताती हैं. ये नीतियां विकास की समस्या नहीं, क़ानून और व्यवस्था की समस्या देखती हैं और ये उनके अंतर्विरोधों को भूल जाती हैं. तब संघ का स्वदेशी कहां जाएगा? संघ के स्वदेशी की पैरवी करने वाले नेता इन दिनों आश्चर्यजनक रूप से ख़ामोश हैं. वे आर्थिक नीतियों पर कुछ बोल नहीं रहे हैं और यह एक बड़े आश्चर्य की बात है. इस आश्चर्य से निकलने के लिए हमें कितने दिन की आवश्यकता होगी. शायद, एक महीना, दो महीना, तीन महीना, लेकिन तीन महीने के भीतर भी अगर इस स्वदेशी और बाज़ारी अर्थव्यवस्था के अंतरर्विरोध से हम नहीं निकले तो, हम मानेंगे कि उस व्यवस्था ने, जो देश की परेशानियों के लिए ज़िम्मेदार है, उसने नरेंद्र मोदी को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है.