कट्टर इस्लाम स्वतंत्रता के लिए हर जगह ख़तरा बन गया है. यह इस्लामिक समाज को बर्बाद कर रहा है, जिसे हम पाकिस्तान में देख सकते हैं कि आख़िर कैसे अलकायदा वहां के लोगों को सता रहा है. यह संगठन आधुनिकता से डरता है, क्योंकि आधुनिकता आपको अपने हिसाब से सोचने और अभिव्यक्ति की आज़ादी देती है. अलकायदा चाहता है कि सभी इस्लामिक देश मध्य युग में वापस लौट जाएं.
क्या पेरिस हमला शिक्षा, साक्षरता, अख़बार, कार्टून और दूसरी सृजनात्मक चीजों के बारे में था, जो कि धार्मिक उन्मादियों को बहुत ही ज़्यादा क्रोधित कर देती हैं. आख़िर इसमें बेइज्जती किसकी हुई थी? यह बेइज्जती निश्चित रूप से ईश्वर की नहीं हो सकती, क्योंकि इस तरह की मानवीय भावनाओं को ईश्वर के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है. क्या ऐसा नहीं लगता कि स़िर्फ धार्मिक उन्मादी इससे बेइज्जती महसूस करते हैं? क्या वे इस बात से दु:खी हैं कि बच्चियां स्कूल जा रही हैं और इसी वजह से मलाला को गोली मार दी गई? या फिर शायद उनके दिमाग में एक ऐसा घृणित विचार है, जो उन्हें को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि पेशावर के स्कूल में 132 बच्चों की हत्या कर दी जाए.
हमने पेरिस में क्रोध देखा. उसी तरह के कार्टूनों पर, जिन पर कुछ साल पहले डेनमार्क में बवाल हो चुका है. डेनमार्क में भी ऐसे कार्टून पर तुरंत विवाद नहीं हुआ था. उसमें थोड़ा समय लगा, जब तक कि उसे किसी ने राजनीतिक रंग नहीं दे दिया. और, आख़िर यह मामला क्या था? मामला यह था कि पैगंबर मोहम्मद साहब का कोई चित्र नहीं बनाया जा सकता है. यह धारणा हाल में स्थापित की गई है, जबकि ऐसा कोई प्रतिबंध कुरान में नहीं है. कुरान में पैगंबर वही कहते हैं, जो उन्हें अल्लाह की तरफ़ से आदेश दिया जाता है. वहीं यहूदी धर्म में भी ईश्वर की कोई तस्वीर नहीं बनाई जाती, लेकिन यह निषेधाज्ञा पैगंबर के लिए नहीं है. पैगंबर की मौत के कई शताब्दी बाद उनकी छवि के आधार पर सिक्के निकाले गए. लेकिन, यह बात जानता कौन है और कौन इस बात की चिंता करता है?
अगर लोग हर उस बात का बुरा मानने पर उतारू हो जाएं, जो उन्हें बुरी लगती है, तो वे तर्क नहीं करते. वे स़िर्फ विध्वंस का रास्ता जानते हैं. कई बार यह विध्वंसक रूप स़िर्फ उलझन पैदा करने के लिए होता है, जैसे कि बजरंग दल एमएफ हुसैन की चित्रकलाओं की प्रदर्शनी पर रोक लगाने की कोशिश करता रहा है. लेकिन, अलकायदा कोई भी काम आधे-अधूरे रूप में नहीं करता, वह लोगों की सीधे हत्याएं करता है. दरअसल, ये लोग ज्ञान, कला, खूबसूरती, संगीत और शब्दों से डरे हुए हैं. पश्चिम भी पहले ऐसे धार्मिक उन्माद से जूझ चुका है, जब स्पेन में जियोरडानो बर्नो को उनकी धारणा के लिए ज़िंदा जलाया गया था. उस समय कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच में कई धार्मिक युद्ध हुए थे, जिन्होंने सदियों तक यूरोप में उथल-पुथल बनाए रखी. उसके बाद एकाएक चिंतकों ने धर्म पर सवाल करने शुरू कर दिए.
बरुच स्पिनोजा ने इसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी में की. वास्तविक ज्ञान का समय आ चुका था. उस समय तर्क ही प्रमुख सिद्धांत बन गया था. इसी वजह से मानवाधिकार और मानव स्वतंत्रता जैसे विचार आने शुरू हुए, लेकिन दो विश्व युद्धों और कई देशों की सत्ताएं हिलने के बाद ही वैश्विक मानवाधिकारों की घोषणा हुई. यही घोषणाएं भारतीय संविधान में भी मानवाधिकारों को परिभाषित करती हैं और बोलने एवं अभिव्यक्ति का अधिकार देती हैं. यह स्वतंत्रता सभी अख़बारों, टीवी चैनलों, रेडियो, किताबों, भाषणों, कार्टूनों, पेंटिंग्स, संगीत और नृत्य में मिलती है. यह स्वतंत्रता पूरे विश्व में रक्त के समान प्रवाहित होती है. रामराज्य चाहे जो भी हो, लेकिन उसमें यह स्वतंत्रता नहीं थी. शायद इसी वजह से शंभूक ने अपने आपको राजा की तलवार के ग़लत सिरे पर पाया था. उसके पास वैदिक किताबें पढ़ने का अधिकार नहीं था. शंभूक पिछड़ी जाति का था.
कट्टर इस्लाम स्वतंत्रता के लिए हर जगह ख़तरा बन गया है. यह इस्लामिक समाज को बर्बाद कर रहा है, जिसे हम पाकिस्तान में देख सकते हैं कि आख़िर कैसे अलकायदा वहां के लोगों को सता रहा है. यह संगठन आधुनिकता से डरता है, क्योंकि आधुनिकता आपको अपने हिसाब से सोचने और अभिव्यक्ति की आज़ादी देती है. अलकायदा चाहता है कि सभी इस्लामिक देश मध्य युग में वापस लौट जाएं. अभी तक उसके हमले ज़्यादातर मुस्लिम देशों तक ही सीमित हैं, पाकिस्तान से लेकर पूर्व में मोरक्को तक और उत्तर में चेचेन्या तक. यही आईएसआईएस इराक और सीरिया में कर रहा है. वह उन सभी लोगों को मार रहा है, जो मध्ययुगीन नियमों में विश्वास नहीं रखते. अलकायदा लोगों की हत्याएं करने में यह नहीं देखता कि वह कौन है या क्या है? इसका असर उन देशों पर भी पड़ रहा है, जो मुस्लिम देश नहीं हैं.
9/11 के हमले या इसके पहले ईरान की इस्लामिक क्रांति के समय से ही इस्लाम के धार्मिक उन्माद और आधुनिकता के बीच जंग जारी है. इसकी एक खराब प्रतिक्रिया हो रही है, जिसमें इस्लामोफोबिया का डर यूरोप में पैदा हो रहा है. ऐसा लग रहा है, जैसे कट्टर इस्लाम के मानने वाले अपनी ही छवि बर्बाद करने पर तुले हुए हैं. मुसलमानों को चाहिए कि वे इनका साथ न दें और अपना सिर ऊंचा रखें. स्वतंत्रता के साथ बोलें और व्यवहार करें. भारत ने अपने इतिहास से यह हासिल किया है.