भारत में एक अजीब रिवाज चल पड़ा है. दुनिया के विकसित देश जिस योजना को खारिज कर देते हैं, हमारी सरकार उसे स़फलता की कुंजी समझ बैठती है. अनूठा पहचान (यूूआईडी)/आधार संख्या परियोजना इसकी ताजा मिसाल है. मोटे तौर पर ‘आधार’ तो बारह अंकों वाली एक अनूठी पहचान संख्या है, जिसे देशवासियों को सूचीबद्ध कर उपलब्ध कराया जा रहा है. लेकिन यही पूरा सच नहीं है. असल में यह 16 अंकों वाला है, जिसमें से 4 अंक छुपे रहते है. सरकार की इस परियोजना के कई रहस्य अभी भी उजागर नहीं हुए है. इसी के आलोक में देखें, तो चुनाव आयोग और यूआईडीएआई द्वारा गृह मंत्रालय को भेजी गई सिफारिश कि मतदाता पहचान पत्र को यूआईडी के साथ मिला दिया जाय, चुनावी पर्यावरण को बदलने की एक कवायद है.
ये एक बार फिर इस बात को रेखांकित करती है कि बायोमैट्रिक प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल उतना निर्दोष और राजनीतिक रूप से तटस्थ चीज नहीं जैसा कि हमें दिखाया जाता है. ध्यान देने वाली बात ये है कि चुनाव आयोग की वेबसाइट के मुताबिक, हर ईवीएम में यूआईडी होता है. मायावती, अरविन्द केजरीवाल सहित 16 सियासी दलों ने ईवीएम के विरोध में तो देरी कर ही दी, अब वे बायोमैट्रिक यूआईडी/आधार के विरोध में भी देरी कर रहे हैं. यही नहीं, राज्यों में जहां इन विरोधी दलों की सरकार है, वहां वे अनूठा पहचान यूआईडी/आधार परियोजना को बड़ी तत्परता से लागू कर रहे हैं.
यह ऐसा ही है, जैसे अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जब पहली बार शपथ ले रहे थे, तो उन्हें यह पता ही नहीं चला कि वे जिस कालीन पर खड़े थे वो उनके परम विरोधी पूंजीपति डेविड कोच की कम्पनी इन्विस्ता द्वारा बनाई गई थी. डेविड कोच ने ही अपने संगठनो के जरिए पहले उन्हें उनके कार्यकाल के दौरान गैर चुनावी शिकस्त दी और फिर बाद में चुनावी शिकस्त भी दी. भारत में भी विरोधी दल जिस बायोमैट्रिक यूआईडी/आधार और यूआईडी युक्त ईवीएम की कालीन पर खड़े है, वह कभी भी उनके पैरो के नीचे से खिंची जा सकती है. लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है, तो इसका दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में उनके लोकतांत्रिक अधिकार छीन जाते हैं.
ईवीएम के अलावा जमीन के पट्टे संबंधी विधेयक में जमीन के पट्टों को अनूठा यूआईडी/आधार से जोड़ने की बात शामिल है. यह सब हमारे संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण होगा. प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली की छाया लोकतंत्र के मायने ही बदल रही है. प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी कंपनियां नियामक नियंत्रण से बाहर हैं, क्योंकि वे सरकारों, विधायिकाओं और विरोधी दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं. यूआईडी/आधार और नैटग्रिड एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं. ये एक ही रस्सी के दो सिरे हैं. विशिष्ट पहचान/आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और कंपनिया विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण हैं.
यह परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष है. हैरत की बात यह भी है कि एक तरफ गांधी जी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर सरकारी कार्यक्रम हो रहे हैं, वहीं हमारी सरकार, एशिया के लोगों के बायोमैट्रिक निशानदेही आधारित पंजीकरण के खिलाफ गांधी जी के पहले सत्याग्रह और आजादी के आन्दोलन के सबक को भूल गई है. गांधी जी ने उंगलियों की निशानदेही द्वारा पंजीकरण कानून को काला कानून कहा था और सम्बंधित दस्तावेज को सार्वजनिक तौर पर जला दिया था. चीनी निवासी भी उस विरोध में शामिल थे.
ऐसा लगता है जैसे चीन को यह सियासी सबक याद रहा, मगर भारत भूल गया. चीन ने बायोमैट्रिक निशानदेही आधारित पहचान अनूठा परियोजना को रद्द कर दिया है. गौरतलब है कि कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों के निशान को सिर्फ मजिस्ट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है. कैदियों को होने वाली सजा अब हर देशवासी को होगी. कैदियों के मामले में तो उनकी रिहाई के वक्त उनकी पहचान को नष्ट करने का प्रावधान रहा है, लेकिन देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर को रिकॉर्ड में रखा जा रहा है. बावजूद इसके, जानकारी के अभाव में देशवासियों की सरकार के प्रति आस्था धार्मिक आस्था से भी ज्यादा गहरी प्रतीत होती है. सरकार जो कि जनता की नौकर है, वो जनता को अपारदर्शी बना रही है.
10 अप्रैल, 2017 को रवि शंकर प्रसाद ने राज्यसभा में आधार पर चर्चा के दौरान बताया कि सरकार नैटग्रिड और बायोमैट्रिक आधार को नहीं जोड़ेगी. ऐसी सरकार जिसने आधार को गैरजरूरी बता कर देशवासियों से पंजीकरण करवाया और बाद में उसे जरूरी कर दिया, उसके किसी भी ऐसे आश्वासन पर कैसे भरोसा किया जा सकता है. जनता इतनी तो समझदार है ही कि वो यह तय कर सके कि कंपनियों के समूह फिक्की और एसोचैम की रिपोर्ट और मंत्री की बातों में से किसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाय.
इन्हीं कंपनियों के समूहों में वे गुमनाम चंदादाता भी शामिल हैं जो ज्यादा भरोसेमंद हैं, क्योंकि उन्हीं के भरोसे सत्तारूढ़ सियासी दलों का कारोबार चलता है. फिक्की और एसोचैम की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि नैटग्रिड और बायोमैट्रिक आधार संरचनात्मक तौर पर जुड़े हुए हैं. वैसे भी ऐसी सरकार, जो स्वैच्छिक कह कर लोगो को पंजीकृत करती है और धोखे से उसे अनिवार्य कर देती है, उसके आश्वासन पर कौन भरोसा कर सकता है. इस हैरतंगेज सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि देशवासियों की पहचान के लिए यूआईडी/आधार संख्या की जरूरत को कब और कैसे स्थापित कर दिया गया. पहचान के संबंध में यह 16वां प्रयास है.
चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव से पहले यह घोषणा करता है कि यदि किसी के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है, तो लोग अन्य 14 दस्तावेजों में से किसी का प्रयोग कर सकते हैं. ये वे पहचान के दस्तावेज हैं, जिनसे देश में प्रजातंत्र एवं संसद को मान्यता मिलती है. ऐसे में इस 16वें पहचान की कवायद का कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता जिसे लोकशाही में स्वीकार किया जाए. संसद में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में वित्त विभाग की संसदीय समिति ने खुलासा किया है कि सरकार ने इस 16वें पहचान के अनुमानित खर्च का पहले के पहचान पत्रों से कोई तुलना नहीं किया है.
देशवासियों को अंधकार में रखकर बायोमैट्रिक-डिजिटल पहलों से जुड़े हुए उद्देश्य को अंजाम दिया जा रहा हैं. ज्ञात हो कि इस समिति ने सरकार के जवाब के आधार पर यह अनुमान लगाया है कि एक आधार संख्या जारी करने में औसतन 130 रुपए का खर्चा आता है, जो देश के प्रत्येक 130 करोड़ लोगों को भुगतान करना पड़ेगा. बायोमैट्रिक यूआईडी नीति को नागरिक जीवन (सिविल लाइफ) के लिए समीचीन बताकर 14 विकासशील देशों में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और विश्व बैंक के जरिए इसे लागू किया जा रहा है. दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागू हो चुका है और नेपाल और बांग्लादेश में भी लागू किया जा रहा है.
भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की ये धारणा किस तरह से चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है. विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, 2009 के औपचारिक निर्माण से अस्तित्व में आई यूआईडी/आधार परियोजना, जनवरी 1933 (जब हिटलर सत्तारूढ़ हुआ) से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद के दौर की याद ताजा कर देती है.
इंटरनेशनल बिजनेस मशीन्स (आईबीएम) नाम की दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नॉलाजी कम्पनी ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों को हथियाने और उन्हें नारकीय शिविरों में महदूद कर देने का काम किया. उन्हें देश से भगाने और आखिरकार उनके सफाए के लिए पंच-कार्ड (कम्प्यूटर का पूर्व रूप) का प्रयोग किया गया. इन कार्डों के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिए यहूदियों की निशानदेही की गई. इसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को सम्भव बनाया. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है.
इसे लेकर खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज किया गया. 2010-2011 का बजट संसद में पेश करते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री ने फरमाया कि यूआईडी परियोजना वित्तीय योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी. जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औजार बदले की भावना से किन्हीं खास धर्मो, जातियों, क्षेत्रों या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं.
आश्चर्य है कि आधार परियोजना के प्रमुख यानि वित्त मंत्री ने वित्तीय समावेशन की तो बात की, लेकिन गरीबों के आर्थिक समावेशन की नहीं. भारत में 1947, 1984 और 2002 में राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन उनके जनसंहार का कारण बना. अगर एक समग्र अन्तः अनुशासनिक अध्ययन कराया जाए, तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार करने वालों को आसानी से उपलब्ध थे.
भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती. अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है, तो क्या गारंटी है कि यूआईडी के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ नहीं करेगा? एक तरह से जनवरी 1933 ही है, जनवरी 2009 से अप्रैल 2017 तक के निशानदेही के प्रयासों के सफर की मंजिल है. यूआईडी वही सब कुछ दोहराने का मंच है, जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ, जहां वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम बना.
यूआईडी का नागरिकता से कोई संबंध नहीं है, वह महज निशानदेही का साधन है. इस पृष्ठभूमि में, ब्रिटेन द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय पहचान पत्र योजना को समाप्त करने का निर्णय स्वागत योग्य हैं, क्योंकि यह फैसला नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा करता है. पहचान पत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार ने अपना राष्ट्रीय पहचान पत्र रजिस्टर बंद कर दिया है.
इसकी आशंका प्रबल है कि आधार जो कि यूआईडी (विशिष्ट पहचान संख्या) का ब्रांड नाम है, इसके जरिए वही किया जाने वाला है, जो कि हिटलर के सत्तारूढ़ होने से पहले के जर्मन सत्ताधारियों ने किया. अन्यथा यह कैसे सम्भव था कि यहूदी नामों की सूची नाजियों के हाथ लग गई, जो उनके आने से पहले जर्मन सरकार के पास रहा करती थी? नाजियों ने यह सूची आईबीएम कम्पनी से प्राप्त की, जो कि जनगणना के व्यवसाय में पहले से थी. यह जनगणना नस्लों के आधार पर भी की गई थी, जिसके चलते न केवल यहूदियों की गिनती, बल्कि उनकी निशानदेही सुनिश्चित हो सकी. वाशिंगटन डीसी स्थित अमेरिका के होलोकास्ट म्यूजियम (विभीषिका संग्रहालय) में आईबीएम की होलोरिथ डी-11 कार्ड सार्टिंग मशीन आज भी प्रदर्शित है. इसी के जरिए 1933 की जनगणना में यहूदियों की पहले-पहल निशानदेही की गई थी.
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने एक जैवमापन मानक समिति (बायोमैट्रिक्स स्टैंडर्डस कमिटी) का गठन किया. ये समिति खुलासा करती है कि जैवमापन सेवाओं के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा प्रमाणिकता स्थापित करने का काम किया जाएगा. यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को परिभाषित नहीं किया गया है. जैवमापन मानक समिति ने यह संस्तुति की है कि जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए.
ये समिति नागरिकों के आंकड़ा कोष को राष्ट्रीय निधि अर्थात धन बताती है. यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी, कहा नहीं जा सकता. ऐसे समय में जब बायोमैट्रिक आधार और कंपनी कानून मामले में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच खिचड़ी पकती सी दिख रही है, आधार आधारित केंद्रीकृत ऑनलाइन डेटाबेस से देश के संघीय ढांचे को खतरा पैदा हो गया है. आधार आधारित व्यवस्था के दुरुपयोग की जबर्दस्त संभावनाएं हैं और यह आपातकालीन स्थिति तक पैदा कर सकने में सक्षम है. इससे देश के संघीय ढांचे का अतिक्रमण होता है और राज्यों के अधिकार और मौलिक व लोकतांत्रिक अधिकार कम होते हैं.
देश के 28 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से अधिकतर ने यूआईडीएआई के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. राज्यों में वामपंथी पार्टियों की सरकारों ने इस मामले में दोमुहा रवैया अख्तियार कर लिया है. अपने राज्य में वे इसे लागू कर रहे हैं, मगर केंद्र में आधार परियोजना में अमेरिकी ख़ु़िफया विभाग की संलिप्तता के कारण इसका विरोध कर रहे हैं. क्या उनके हाथ भी ठेके के बंटवारे के कारण बंध गए हैं? कानून के जानकार बताते हैं कि इस समझौते को नहीं मानने से भी राज्य सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि इसे लेकर कोई कानूनी बाध्यता नहीं है.
पूर्व न्यायाधीश, कानूनविद और शिक्षाविद यह सलाह दे रहे हैं कि यूआईडी योजना से देश के संघीय ढांचे एवं संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है. राज्य सरकारों, केंद्र के कई विभागों और अन्य संस्थाओं को चाहिए कि यूआईडीएआई के साथ हुए एमओयू की समग्रता में समीक्षा करें और अनजाने में अधिनायकवाद की स्थिति का समर्थन करने से बचें. राज्य और उनके नागरिक अपने अधिकारों को लेकर चिंतित हैं और केंद्रीकृत ताकत का विरोध करने में लगे हैं.
लेकिन प्रतिगामी कनवर्जेंस इकनॉमी पर आधारित डेटाबेस और अनियमित सर्वेलेंस, बायोमैट्रिक व चुनावी तकनीकों पर मोटे तौर पर किसी की नजर नहीं जा रही है. उनके खिलाफ अभी-अभी आवाज उठना शुरू हुआ है. ठेका-राज से निजात पाने के लिए विशिष्ट पहचान/आधार संख्या जैसे उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों, जन आंदोलनों और संस्थाओं के अभियान का समर्थन करना एक तार्किक मजबूरी है.
फिलहाल देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार परियोजना का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है. अगले चुनाव से पहले एक ऐसे भरोसेमंद विपक्ष की जरूरत है, जो यह लिखित वादा करे कि सत्ता में आने पर ब्रिटेन, अमेरिका और अन्य देशों की तरह भारत भी अपने वर्तमान और भविष्य के देशवासियों को बायोमैट्रिक आधार आधारित देशी व विदेशी खुफिया निगरानी से आज़ाद करेगा.
-लेखक, सिटीजन्स फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज के सदस्य हैं.