संसद में यूआईडी को लेकर बिल लंबित रहा और इधर कार्ड बनने लगे. अब तक छह करोड़ से ज्यादा यूआईडी कार्ड बन चुके हैं. चुनाव के बाद मोदी सरकार आई. मोदी सरकार भी यूपीए सरकार के बनाए रास्ते पर चल पड़ी. ये भी नहीं सोचा कि अगर यूआईडी की पूरी प्रक्रिया बिल्कुल सटीक है तो अब तक क़रीब एक करोड़ कार्ड बेकार कैसे हो गए हैं? किसी में पता गलत है तो किसी में पहचान गलत है. अधिकारी और मीडिया इसे देश की जनता की ही ग़लती बता रहे हैं. जिस देश में 48 फ़ीसदी लोग अनपढ़ हैं, जो स्वयं अपना फॉर्म नहीं भर सकते तो ग़लतियां तो होंगी ही. इस योजना को बनाने वालों को यह पहले से पता होना चाहिए था कि देश की लगभग आधी आबादी अपने हस्ताक्षर नहीं कर सकती है.
क्या मोदी सरकार को ये पता नहीं है कि आधार कार्ड का कोई क़ानूनी आधार ही नहीं है? यह देश का अकेला ऐसा कार्यक्रम है, जिसे संसद में पेश करने से पहले ही लागू करा दिया गया. असलियत यह है कि यूपीए सरकार इस क़ानून को संसद में पास भी नहीं करा सकी, क्योंकि संसदीय कमेटी ने इस योजना पर ही सवाल खड़ा कर दिया था. संसदीय कमेटी ने कहा, आधार योजना तर्कसंगत नहीं है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रहा है. आधार के ख़िलाफ़ केस करने वाले स्वयं कर्नाटक हाईकोर्ट के जज रहे हैं. जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटीशन दायर की है. इस पिटीशन पर देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई जजों ने सहमति दिखाई है.
पहले इतिहास का एक पन्ना पलटते हैं. क़रीब सौ साल पहले मोहनदास करमचंद गांधी ने अपना पहला सत्याग्रह दक्षिण अफ्रीका में किया था. शायद देश के राजनीतिक दलों को यह याद नहीं है कि गांधी ने यह सत्याग्रह क्यों किया? 22 अगस्त, 1906 को दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने एशियाटिक लॉ एमेंडमेंट ऑर्डिनेंस लागू किया. इस क़ानून के तहत ट्रांसवल इला़के के सारे भारतीयों को अपनी पहचान साबित करने के लिए रजिस्ट्रार ऑफिस में जाकर अपने फिंगर प्रिंट देने थे, जिससे हर भारतीय का परिचय पत्र बनना था. इस परिचय पत्र को हमेशा साथ रखने की हिदायत दी गई. न रखने पर सज़ा भी तय कर दी गई. 19वीं शताब्दी तक दुनिया भर की पुलिस चोरों और अपराधियों की पहचान के लिए फिंगर प्रिंट लेती थी. गांधी जी को लगा कि ऐसा क़ानून बनाकर सरकार ने सारे भारतीयों को अपराधियों की श्रेणी में डाल दिया है. गांधी जी ने इसे काला क़ानून बताया. जोहान्सबर्ग में तीन हज़ार भारतीयों को साथ लेकर उन्होंने मार्च किया और शपथ ली कि कोई भी भारतीय इस क़ानून को नहीं मानेगा और अपने फिंगर प्रिंट नहीं देगा. यही महात्मा गांधी के पहले सत्याग्रह की कहानी है. अगर आज गांधी जी होते तो यूआईडी पर सत्याग्रह ज़रूर करते. झूठे वायदे करके, सुनहरे भविष्य का सपना दिखाकर सरकार देश की जनता को बेव़कू़फ नहीं बना सकती. मोदी सरकार गांधी जी का नाम तो बहुत जपती है लेकिन उनके आदर्शों के प्रति उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है.
यूआईडी की शुरुआत को लेकर एक हैरतअंगेज बात बताता हूं. देश में एक विशिष्ट पहचान पत्र के लिए विप्रो नामक कंपनी ने एक दस्तावेज तैयार किया. इसे प्लानिंग कमीशन के पास जमा किया गया. इस दस्तावेज का नाम है स्ट्रेटजिक विजन ऑन द यूआईडीएआई प्रोजेक्ट. मतलब यह कि यूआईडी की सारी दलीलें, योजना और उसका दर्शन इस दस्तावेज में है. बताया जाता है कि यह दस्तावेज अब ग़ायब हो गया है. विप्रो ने यूआईडी की ज़रूरत को लेकर 15 पेज का एक और दस्तावेज तैयार किया, जिसका शीर्षक है, डज इंडिया नीड ए यूनीक आइडेंटिटी नंबर. इस दस्तावेज में यूआईडी की ज़रूरत को समझाने के लिए विप्रो ने ब्रिटेन का उदाहरण दिया. इस प्रोजेक्ट को इसी दलील पर हरी झंडी दी गई थी. हैरानी की बात यह है कि ब्रिटेन की सरकार ने अपनी योजना को बंद कर दिया. उसने यह दलील दी कि यह कार्ड खतरनाक है, इससे नागरिकों की प्राइवेसी का हनन होगा और आम जनता जासूसी की शिकार हो सकती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इस योजना की पृष्ठभूमि ही आधारहीन और दर्शनविहीन हो गई तो फिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह इसे लागू करने के लिए सारे नियम-क़ानूनों और विरोधों को दरकिनार करने पर आमादा है. क्या इसकी वजह नंदन नीलेकणी हैं, जो यूपीए सरकार के दौरान प्रधानमंत्री के करीबी और यूआईडीएआई के चेयरमैन थे. क्या यह विदेशी ताक़तों और मल्टीनेशनल कंपनियों के इशारे पर किया जा रहा है? देश की जनता को इन तमाम सवालों के जवाब जानने का हक़ है, क्योंकि यह काम जनता के हज़ारो करोड़ रुपये से किया जा रहा है, जिसे सरकार के ही अधिकारी अविश्वसनीय, अप्रमाणिक और दोहराव बता रहे हैं.
पहले यूपीए और अब मोदी सरकार वही गलतियां कर रही है जिसके बारे में दुनिया की तमाम एजेंसियां चेतावनी दे रही हैं. क्या सुरक्षा एजेंसियों को अब तक ये मालूम नहीं है कि इस योजना के तहत ऐसे लोग भी पहचान पत्र हासिल कर सकते हैं, जिनका इतिहास दाग़दार रहा है. एक अंग्रेजी अख़बार ने विकीलीक्स के हवाले से अमेरिका के एक केबल के बारे में ज़िक्र करते हुए यह लिखा कि लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन के आतंकवादी इस योजना का दुरुपयोग कर सकते हैं. कुछ कश्मीरी आंतकियों के पास से यूआईडी बरामद भी किए गए हैं. फिर भी किसी के कान में जूं नहीं रेंग रही है. अजीब स्थिति है. अब पता नहीं नंदन नेलकणी ने पहले मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी को कौन पट्टी पढ़ाई है कि दोनों ही प्रधानमंत्री यूआईडी के दीवाने बन गए.
यूआईडीएआई ने न स़िर्फ प्राइवेसी को ही नज़रअंदाज़ किया है, बल्कि उसने अपने पायलट प्रोजेक्ट के रिजल्ट को भी नज़रअंदाज़ कर दिया है. इतनी बड़ी आबादी के लिए इस तरह का कार्ड बनाना एक सपने जैसा है. अब जबकि दुनिया के किसी भी देश में बायोमेट्रिक्स का ऐसा इस्तेमाल नहीं हुआ है तो इसका मतलब यह है कि हमारे देश में जो भी होगा, वह प्रयोग ही होगा. यूआईडीएआई के पायलट प्रोजेक्ट के बारे में एक रिपोर्ट आई है, जो बताती है कि सरकार इतनी हड़बड़ी में है कि उसने पायलट प्रोजेक्ट के सारे मापदंडों को दरकिनार कर दिया. मार्च और जून 2010 के बीच 20 हज़ार लोगों के डाटा पर काम हुआ. अथॉरिटी ने बताया कि फाल्स पोजिटिव आईडेंटिफिकेशन रेट 0.0025 फीसदी है. फाल्स पोजिटिव आईडेंटिफिकेशन रेट का मतलब यह है कि इसकी कितनी आशंका है कि यह मशीन एक व्यक्ति की पहचान किसी दूसरे व्यक्ति से करे. मतलब यह कि सही पहचान न बता सके. अथॉरिटी के डाटा के मुताबिक़ तो हर 15,000 कार्ड के बाद एक कार्ड में ग़डब़डी निकलेगी. समस्या यह है कि इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए बायोमेट्रिक पहचान की किसी देश ने कोशिश नहीं की. कोरिया के सियोल शहर में टैक्सी ड्राइवरों के लिए ऐसा ही लाइसेंस कार्ड बना, जिसे टोल टैक्स एवं पार्किंग वगैरह में प्रयोग किया गया. एक साल के अंदर ही पता चला कि 5 से 13 फीसदी ड्राइवर इस कार्ड का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. नतीजा यह निकला कि ऐसा सिस्टम लागू करने के कुछ समय बाद हर व्यक्ति को इस परेशानी से गुज़रना पड़ता है और एक ही व्यक्ति को बार-बार कार्ड बनवाने की ज़रूरत पड़ती है. सच्चाई यह है कि इस तरह के कार्ड के लिए हमारे पास न तो फुलप्रूफ टेक्नोलॉजी है और न अनुकूल स्थितियां. 24 घंटे बिजली उपलब्ध नहीं है और न इंटरनेट की व्यवस्था है पूरे देश में. ऐसे में अगर इस कार्ड को पढ़ने वाली मशीनों में गड़बड़ियां आएंगी तो वे कैसे वक्त पर ठीक होंगी? प्रधानमंत्री और सरकार की ओर से दलील दी जा रही है कि यूआईडी से पीडीएस सिस्टम दुरुस्त होगा, ग़रीबों को फायदा पहुंचेगा.
यूपीए सरकार के दौरान यूनीक आईडेंटिटी कार्ड यानी यूआईडी को लेकर पता नहीं कितने हवाई किले बनाए गए. अख़बारों में, टीवी पर, सेमिनारों में और कई विशिष्ट लोगों के ज़रिए यह समझाया गया था कि यह अब तक का सबसे सटीक पहचान पत्र बनेगा. इसमें कोई गड़बड़ी की गुंजाइश ही नहीं है. संसद में यूआईडी को लेकर बिल लंबित रहा और इधर कार्ड बनने लगे. अब तक छह करोड़ से ज्यादा यूआईडी कार्ड बन चुके हैं. चुनाव के बाद मोदी सरकार आई. मोदी सरकार भी यूपीए सरकार के बनाए रास्ते पर चल पड़ी. ये भी नहीं सोचा कि अगर यूआईडी की पूरी प्रक्रिया बिल्कुल सटीक है तो अब तक क़रीब एक करोड़ कार्ड बेकार कैसे हो गए हैं? किसी में पता गलत है तो किसी में पहचान गलत है. अधिकारी और मीडिया इसे देश की जनता की ही ग़लती बता रहे हैं. जिस देश में 48 फ़ीसदी लोग अनपढ़ हैं, जो स्वयं अपना फॉर्म नहीं भर सकते तो ग़लतियां तो होंगी ही. इस योजना को बनाने वालों को यह पहले से पता होना चाहिए था कि देश की लगभग आधी आबादी अपने हस्ताक्षर नहीं कर सकती है. यही वजह है कि यूआईडीएआई को लगातार इस तरह की शिकायतें मिल रही हैं कि यूआईडी नंबर के लिए ग़लत पता लिखा है. इस घटना से दूसरा सवाल उठता है. क्या कोई ग़लत पते भर कर यूआईडी बना सकता है. अगर बना सकता है तो भविष्य में भी ग़लत पते पर यूआईडी बनते रहेंगे. सवाल कार्ड बनाने वाले अधिकारियों और यूआईडीएआई के नंदन नीलकेणी से पूछना चाहिए कि इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई और इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है. समस्या स़िर्फ यही नहीं है. दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में कुछ बुजुर्ग यूआईडी बनवाने पहुंचे. उन्होंने हाथों को जब मशीन पर रखा तो मशीन ने उनके हाथों की रेखाओं को पढ़ने से इंकार कर दिया. पता चला कि 65 साल से ज़्यादा के बुजुर्गों के सूखे हाथों की रेखाओं को मशीन पढ़ ही नहीं सकती. नंदन नीलेकणी साहब इस कार्ड की टेक्नोलॉजी के बारे में कई बार व्याख्यान कर चुके हैं. यह कितनी सर्वोत्तम टेक्नोलॉजी द्वारा तैयार किया जा रहा है, अख़बारों में इसके बारे में कसीदे हर दिन छपते हैं. हक़ीक़त यह है कि यूआईडी बनवाने की हसरत रखने वाले बुजुर्ग बड़ी संख्या में उदास होकर लौट रहे हैं.
यूआईडी ने देशवासियों को कैदी बना दिया.
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि देश के किस क़ानून के आधार पर लोगों के बायोमैट्रिक्स को एकत्र किया जा रहा है? देश में मौजूद सारे क़ानून खंगालने के बाद पता चलता है कि ऐसा क़ानून स़िर्फ जेल मैन्युअल में है. ऐसा स़िर्फ कैदियों के साथ किया जा सकता है और इसमें भी एक शर्त है कि जिस दिन वह ़कैदी रिहा होगा, उसके बायोमैट्रिक्स से जुड़ी फाइलें जला दी जाएंगी, लेकिन इस योजना के तहत सरकार लोगों की सारी जानकारियां एकत्र कर रही है और विदेश भेजने पर तुली है. सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दे दिया है कि प्राधिकरण लोगों के बायोमेट्रिक डाटा किसी को नहीं दे सकता है. यह जनता की अमानत है और इसे दूसरी एजेंसियों के साथ शेयर करना मौलिक अधिकारों का हनन है. अब यहां एक टेक्निकल सवाल उठता है. प्राधिकरण ने तो लोगों की सारी बायोमेट्रिक जानकारियां स़िर्फ शेयर नहीं की हैं, बल्कि उन्हें विदेशी कंपनियों के सुपुर्द कर दिया है.
आधार की विशिष्टता काल्पनिक है
चौथी दुनिया साप्ताहिक अख़बार ने सबसे पहले आधार कार्ड से होने वाले ख़तरों का खुलासा किया था. हमने यह खुलासा किया था कि किस तरह आधार कार्ड सीआईए और अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों के पास हमारी और आपकी सारी जानकारी पहुंचाने की साजिश है. समय के साथ-साथ चौथी दुनिया की सारी बातों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग रही है. सूचना का अधिकार क़ानून के तहत निकली एक जानकारी के मुताबिक, यह बताया गया है कि बायोमीट्रिक सिस्टम 100 फ़ीसद एक्यूरेट नहीं है और दूसरी बात यह कि आधार कार्ड की विशिष्टता भी काल्पनिक है. यह जानकारी योजना आयोग के साथ करार करने वाली एर्नेस्ट एंड यंग प्राइवेट लिमिटेड और नेटमैजिक सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड ने दी है. इस सूचना के साथ ही आधार कार्ड का आधार ख़त्म हो जाता है. इस कार्ड को लेकर नंदन नीलेकणी ने जो बड़े-बड़े दावे किए थे, वे सब झूठे साबित हुए हैं. नंदन नीलेकणी ने इस योजना की शुरुआत में दावा किया था कि यह अब तक का सबसे सटीक व अति विशिष्ट कार्ड है और इसकी नकल नहीं की जा सकती. नंदन नीलेकणी को यह बताना चाहिए कि उन्होंने देश को गुमराह क्यों किया? केंद्र सरकार ने जब आधार कार्ड की योजना लॉन्च की, तो उसकी शान में जमकर कसीदे काढ़े गए थे. बड़े-बड़े दावे हुए कि आधार कार्ड बनने के बाद लोगों को तरह-तरह के पहचान पत्र दिखाने के झंझट से आज़ादी मिल जाएगी, लेकिन यूपीए सरकार के इस ड्रीम प्रोजेक्ट में धांधली चरम पर है. चंद रुपये खर्च करके कोई भी आधार कार्ड बनवा सकता है. हाल में एक साइट के स्टिंग ऑपरेशन के जरिये यह खुलासा हुआ है कि अवैध बांग्लादेशी चंद रुपये देकर आसानी से आधार कार्ड बनवा लेते हैं और भारत के मान्यता प्राप्त नागरिक बन जाते हैं और फिर मतदान में हिस्सा लेने के लिए वैध हो जाते हैं. जबकि यूपीए सरकार के मंत्री और इस प्रोजेक्ट के सर्वेसर्वा नंदन नीलेकणी ने भरोसा दिलाया था कि कोई भी अवैध प्रवासी हमारे देश का फर्जी पहचान पत्र नहीं बनवा पाएगा और न उसका कोई डुप्लीकेट बन सकता है. अब आधार कार्ड का तकनीकी और क़ानूनी आधार ही सवालों के घेरे में है. इससे जुड़ी संस्थाओं ने तकनीकी खामियां मानकर उन सारे दावों की पोल खोल दी, जो नंदन नीलेकणी ने अब तक बेचते आए हैं. इस खुलासे के बाद सरकार और प्राधिकरण को सुप्रीम कोर्ट में जवाब देना मुश्किल हो गया है.