अमेरिका में नरेंद्र मोदी के भाषणों की काफी तारीफ़ हो रही है. मैं भी उन तारीफ़ करने वालों में शामिल हूं. नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में भारतीयों के सम्मान में इजाफा किया है और इसमें कोई दो राय नहीं कि उनका दौरा पिछले कई प्रधानमंत्रियों के दौरे से सफल रहा है. नरेंद्र मोदी में अमेरिका में बसे भारतीयों ने एक ऐसे राष्ट्रनेता की छवि देखी है, जिसका कद ओबामा के बराबर है. नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषण में अमेरिका में बसे भारतीयों का कद बढ़ाया है और इसमें कोई दो राय नहीं कि नरेंद्र मोदी अमेरिका से सफल होकर लौटे हैं.
लेकिन, जिस एक बात ने मुझे थोड़ा चिंतित किया है, वह देश और देश में रहने वाले लोगों के भविष्य के रास्ते की कल्पना को लेकर है. नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में बिल्कुल वैसा भाषण दिया, जैसा अमेरिका में रहने वाले लोग सुनना चाहते थे. नरेंद्र मोदी ने वहां अपने विकास की जिस अवधारणा का वर्णन किया, वह उच्च-मध्यम वर्ग की अवधारणा है. विकास के जिस मॉडल की बात उन्होंने अमेरिका में की, वह उच्च-मध्यम वर्ग के विकास का मॉडल है. साथ ही नरेंद्र मोदी ने मध्यम वर्ग में यह संदेश पहुंचाने की कोशिश की कि अगर मध्यम वर्ग के लोग चाहें, तो उनके बच्चे भी अमेरिका जा सकते हैं. अमेरिका ही क्यों, सारी दुनिया में जा सकते हैं, क्योंकि सारी दुनिया में वर्क फोर्स की कमी है. नरेंद्र मोदी ने 2019 का ज़िक्र कई जगह किया, इसका मतलब कि नरेंद्र मोदी 2019 तक इस उच्च-मध्यम वर्ग के विकास की बात करना चाहते हैं, उच्च-मध्यम वर्ग को हिंदुस्तान में कंज्यूमर सेक्टर में अवसर देने की बात करना चाहते हैं और मध्यम वर्ग को यह आशा देना चाहते हैं कि वह चाहे, तो उच्च-मध्यम वर्ग की तरफ़ बढ़ सकता है. इसका बहुत साफ़ अर्थ निकलता है कि नरेंद्र मोदी के दिमाग में हिंदुस्तान के विकास का नक्शा 30 प्रतिशत के विकास का नक्शा है.
ये सवाल आज उठाना नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सरीखा हो सकता है, पर पत्रकारिता चापलूसी नहीं है, पत्रकारिता पीआर जर्नलिज्म नहीं है. पत्रकारिता सही समस्या की तरफ़ ध्यान दिलाने का नाम है. आज हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विनम्र निवेदन करना चाहते हैं और इस बात की आशा करते हैं कि आप जल्दी से जल्दी एक भाषण तो ऐसा दें, जो देश के सत्तर प्रतिशत से ज़्यादा लोगों के मन में आशा का संचार कर सके. इन सत्तर प्रतिशत लोगों में देश के दबे-कुचले, वंचित, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक एवं पिछड़े यानी हर वर्ग के लोग शामिल हैं. इनमें वे भी शामिल हैं, जिन्हें बड़ी जाति का कहा जाता है.
मैं चाहूंगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझने वाले लोग मेरी इस धारणा को गलत साबित करें. मैं गलत साबित होना चाहता हूं, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि यह देश तनाव के उस मुकाम तक पहुंच जाए, जहां से परस्पर एक-दूसरे के प्रति तलवारें खिंच जाती हैं. हिंदुस्तान के 70 प्रतिशत से ज़्यादा लोगों के पास शिक्षा नहीं है, स्वास्थ्य नहीं है, पानी नहीं है और सबसे बड़ी चीज रोटी नहीं है. अगर है, तो तिल-तिल कर मरने के अवसर हैं. मेरे जैसा शख्स नरेंद्र मोदी के मुंह से यह सुनना चाहता है कि अगले पांच साल में हिंदुस्तान में सौ प्रतिशत शिक्षा की व्यवस्था होगी. हम दुनिया में अगर शिक्षक भेजने की बात करते हैं, तो वे शिक्षक उच्च-मध्यम वर्ग के शिक्षक होंगे, क्योंकि हिंदुस्तान में उच्च शिक्षा की संभावना स़िर्फ उच्च-मध्यम वर्ग के पास है, मध्यम वर्ग भी वहां पर मुश्किल से पहुंच पा रहा है.
मैं इस बात के लिए लालायित हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कहें कि हिंदुस्तान के गांवों और शहरों में शिक्षा की ऐसी व्यवस्था होगी, जिस शिक्षा को प्राप्त कर लोग दुनिया का मुक़ाबला करने की स्थिति में पहुंच जाएं. देश के सत्तर प्रतिशत लोगों के पास न तो स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचने की क्षमता है और न स्वास्थ्य सुविधाएं उन तक पहुंच पाती हैं. दवाइयां कहीं से मिल भी जाएं, तो कौन दवाई किस बीमारी में देनी है, यह बताने वाला 70 प्रतिशत लोगों के पास कोई नहीं है. तीसरी सबसे बड़ी बात, जिसके ऊपर नरेंद्र मोदी का ध्यान दिलाने की आवश्यकता है और मेरे जैसा शख्स प्रधानमंत्री से यह सुनना चाहता है कि हिंदुस्तान के गांवों में कम से कम ऐसे उद्योग लग जाएंगे, जिनका रिश्ता वहां पैदा होने वाले कच्चे माल से होगा. पर दुर्भाग्य की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में मिले इस अवसर को गंवा दिया. नरेंद्र मोदी को अमेरिका में हिंदुस्तान की 70 प्रतिशत आबादी के लिए, जो विकास की धारा से बाहर हैं, जिसे शिक्षा, स्वास्थ्य एवं उद्योग की ज़रूरत है, जो कि बेरोज़गारी का जवाब हैं और खासकर, हिंदुस्तान के गांवों में महामारी की तरह फैली हुई बेकारी का हल ढूंढने का ऐलान करने का अवसर मिला था, लेकिन उन्होंने उस अवसर को उच्च-मध्यम वर्ग के लिए संभावित अवसरों की घोषणाओं में बदल दिया.
मुझे नहीं लगता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह बताने की ज़रूरत है कि यदि इन सत्तर प्रतिशत लोगों के पास विकास की गंगा तो दूर, नाला भी नहीं पहुंचा और ये सत्तर प्रतिशत लोग शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रा़ेजगार की संभावनाओं से दूर रहे, तो 30 प्रतिशत लोग जिनके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणाएं की हैं, वे भी आसानी के साथ इन अवसरों का उपयोग नहीं कर पाएंगे. अगर वे इन अवसरों का उपयोग करना चाहेंगे, तो उन्हें सेना की सहायता लेनी पड़ेगी. जिस एक बात को हम बार-बार दोहराते हैं कि अभी भी हिंदुस्तान के एक तिहाई से ज़्यादा ज़िले विकास से दूर हैं और इतने दूर हैं कि वहां पर भारत सरकार का शासन चलता ही नहीं है. और, यह असंतोष क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं है, यह असंतोष विकास की समस्या है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सारे देश के लिए विकास का नक्शा कब पेश करेंगे, इसकी प्रतीक्षा मेरे जैसे शख्स को है. इसलिए जब नरेंद्र मोदी अमेरिका में भाषण देते हैं, तो वहां भारतीयों का सिर गर्व से उठ जाता है. लेकिन किन भारतीयों का सिर गर्व से उठ जाता है? उच्च-मध्यम वर्ग के भारतीयों का, जो अमेरिका जा सकते हैं, जो अमेरिका में शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं और जो अमेरिका में जाकर व्यापार कर सकते हैं, नरेंद्र मोदी की घोषणाएं उनके लिए हैं. लेकिन, जो अपने गांव से शहर नहीं जा सकता, जिसने टेलीविजन के अलावा देश की राजधानी को नहीं देखा और जिसने अच्छी रेलगाड़ी में यात्रा नहीं की, उसके लिए ये सारी घोषणाएं बेमानी हैं. क्योंकि न वह पढ़ पाता है, न लिख पाता है, न समझ पाता है और न ज़िंदा रहने के लिए बीमारी से लड़ पाता है.
ये सवाल आज उठाना नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सरीखा हो सकता है, पर पत्रकारिता चापलूसी नहीं है, पत्रकारिता पीआर जर्नलिज्म नहीं है. पत्रकारिता सही समस्या की तरफ़ ध्यान दिलाने का नाम है. आज हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विनम्र निवेदन करना चाहते हैं और इस बात की आशा करते हैं कि आप जल्दी से जल्दी एक भाषण तो ऐसा दें, जो देश के सत्तर प्रतिशत से ज़्यादा लोगों के मन में आशा का संचार कर सके. इन सत्तर प्रतिशत लोगों में देश के दबे-कुचले, वंचित, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक एवं पिछड़े यानी हर वर्ग के लोग शामिल हैं. इनमें वे भी शामिल हैं, जिन्हें बड़ी जाति का कहा जाता है. हमारे देश के आर्थिक विकास की सड़क पर हर एक को चलने का मौक़ा मिले, इसे सुनिश्चित स़िर्फ और स़िर्फ सरकार कर सकती है. अभी जो भी चल रहा है, वह बाज़ार के ऊपर निर्भर होकर चल रहा है. बाज़ार लोगों को रोटी नहीं देना चाहता, बाज़ार रोटी कमाना चाहता है. बाज़ार लोगों को शिक्षित नहीं करना चाहता, बाज़ार शिक्षा को और बड़ा व्यवसाय बनाना चाहता है. बाज़ार लोगों को ज़िंदा नहीं रखना चाहता, बल्कि ज़िंदा लोगों को अपने लिए गुलाम बनाना चाहता है. इस तथ्य को अगर मनमोहन सिंह ने नहीं समझा, तो क्या नरेंद्र मोदी भी इस तथ्य को नहीं समझेंगे? नरेंद्र मोदी अगर सारे देश को बाज़ार के हवाले करने का ़फैसला करेंगे, तो उन्हें इस बात के लिए भी तैयार होना चाहिए कि देश में अव्यवस्था, शोषण, भ्रष्टाचार, बेरा़ेजगारी, महंगाई, भूख और मौत के सवालों को लेकर अगर नौजवानों के आंदोलन हुए, तो उनका सामना वह कैसे करेंगे? क्या ऐसे आंदोलनों का सामना गोलियों से होगा या फिर लोगों की पीड़ाओं का समाधान करने से होगा?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक बात और अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि यदि वह समस्याओं से भागने वाली पूर्ववर्ती सरकारों का अनुसरण करेंगे, तो वह देश के वैसे ही प्रधानमंत्री साबित होंगे, जैसे राजीव गांधी 404 सांसदों के विशाल बहुमत से बने प्रधानमंत्री अपने आख़िरी दिनों में साबित हुए. मैं दोनों की तुलना नहीं कर रहा हूं. मेरा मानना है कि आज नरेंद्र मोदी के पास बहुत कुछ करने का अवसर है, लेकिन अगर वह निहित स्वार्थों, कॉरपोरेट और बाज़ार के रखवाले बन जाएंगे, तो उनके लिए इतिहास में अपनी जगह बनाना मुश्किल होगा. लेकिन, मैं आशा करता हूं कि नरेंद्र मोदी देश को बाज़ार के हवाले नहीं करेंगे और देश की सत्तर प्रतिशत जनता को विकास की धारा में शामिल करने के लिए जी-जान लगा देंगे. हालांकि, अमेरिका में दिया गया उनका भाषण 30 प्रतिशत को बहुत उत्साहित करने वाला है, लेकिन 70 प्रतिशत को बहुत निराशा देने वाला है.