डैन ब्राउन का एक बेस्टसेलर नावेल है “द लॉस्ट सिंबल”..(खोई हुई अलामत).
इसके पहले सफ़्हे पर ब्राउन ने Mystic,अदीब और नजूमी Manly Palmer Hall की मशहूर किताब “द सीक्रेट टीचिंग्स ऑफ़ एजेज़” से कुछ सतरें क़ोट की हैं –
“To live in the world without becoming aware of the meaning of world is like wandering about in a great library without touching the books.”
यानी आप दुनिया में दुनिया के मआनी/भेद/असरार जाने बिना अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं तो दरहक़ीक़त आप अपना वक़्त ज़ाए’अ कर रहे हैं.
तक़रीबन 2500 बरस पहले वेदों का वर्गीकरण करने वाले महान ऋषि बादरायण भी अपनी किताब ब्रह्मसूत्र में जो पहला वाक्य/जुमला लिखा वो भी कुछ यूं था –
अथातो ब्रह्म जिज्ञासा !
तो दुनिया को देखने जानने और दुनिया की खोई अलामतों को रौशनी में लाने की कोशिश ही इंसानी ज़िंदगी का सबसे अहम काम है..इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए.
ख़ल्क़ के इन्हीं निहां असरार को खोजने की क़वायद से तहज़ीबें शक़्ल पाती हैं.
अब ख़ल्क़/मआशरे/ज़िंदगी या मन के भेद जानने के लिये कविता/शाइरी से बेहतर ज़रीआ और क्या होगा !
हर शाइर/कवि के पास चीज़ों को देखने का अपना एक ज़ाविया या नज़रिया होता है..और इन मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से दुनिया को देखना अपनी समझ को वक़्त बवक़्त रौशन करने का काम है.
किसी भी शे’री मज्मूए पर बात करना इसलिये भी एक दिलचस्प वाक़या है कि इस से हमें दुनिया को देखने का एक मुख़्तलिफ़ और नया ज़ाविया दस्तयाब होता है.
चुनांचे आज का मौज़ू ए गुफ़तगू है अज़ीज़ इरशाद ख़ां सिकंदर का शेरी मज्मूआ “दूसरा इश्क़”.
मेरे लिये किसी भी शाइर को पढ़ते/सुनते वक़्त उसके शे’र/शाइरी के सियाक़ ओ सिबाक़ या कांटेक्स्ट को समझना भी एक लतीफ़ तजरिबा होता है..शे’र के मआनी तो आसानी से खुलते ही हैं साथ ही साथ आगे आने वाले अशआर को देखने समझने के लिये भी निगाहों को रौशनी मयस्सर हो जाती है.
कहने का मतलब ये कि तस्वीर में कोई ख़ास रंग मज़ीद खिला हुआ हो तो दो घड़ी रुक कर उसके पसमंज़र पर ग़ौर कर लेना चाहिए..बहुत मुमकिन है कि शबीह के असरार आप पर खुल जाएं.
इरशाद की शाइरी के पसमंज़र पर बात करने से क़ब्ल आपको अमेरिका की मशहूर सहाफ़ी,अदीब और सियासी तब्सिराकार मॉली इविंस का एक जुमला बताता चलूं,
“तंज़ रवायती तौर पर वो हथियार है जिसे कमज़ोर आदमी ताक़तवर के ख़िलाफ़ उठा सकता है.
(Satire is traditionally the weapon of powerless against powerful
~ Molli Ivins)
अब कमज़ोर अगर ताक़तवर के ख़िलाफ़ हथियार उठा ले तो तहज़ीब की ज़बान में इसे इंक़लाब कहते हैं..लेकिन बात इंक़लाब पर ही ख़त्म नहीं हो जाती.
ज़िंदगी की बेनियाज़ी और महरूमी के आस्तां से उठ कर चल पड़ने वाले हर मुसाफ़िर का पहला मरहला इंक़लाब का होता है..इसके बाद पस्ती और फिर समझौते के मरहले आते हैं.
बेशतर मुसाफ़िर इस तीसरे मरहले तक आते आते थक जाते हैं और उनका आगे का सफ़र मुमकिन नहीं हो पाता.
कुछ जुनूनी मुसाफ़िर यहां से गुज़र कर चौथे मरहले पर भी पंहुचते हैं..और इस मरहले पर इंक़लाब,पस्ती और समझौते..तीनों की आमेज़िश से बना एक नायाब तंज़िया लह्जा मुसाफ़िर को दस्तयाब होता है..जो इंक़लाब की कोशिशों के बाद आए पस्ती और समझौते के दौर को एक नया ज़ाविया फ़राहम कर देता है.
मुसाफ़िर अगर शाइर हो तो ये लह्जा उसके कहन का दाइमी रंग बन जाता है.
शाइरी के माउंट एवरेस्ट को फ़त्ह करने वाले मुसाफ़िर मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शे’र देखिये –
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक.
इतना नफ़ीस और बारीक़ तंज़ है कि पूछिये ही मत.
अब ये लह्जा मा’मूल तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता.
इस लह्जे के एक क़दम पहले मिज़ाह/हास्य का कुआं है और एक क़दम आगे sarcasm की खाई.
इनके बीच में कहीं सैटायर/तंज़ की एक पतली सी पगडंडी है…फिसलन भरी..ज़रा चूके कि गिरे !
इरशाद ख़ान सिकंदर का शाइर इसी पतली सी पगडंडी पर गामज़न मुसाफ़िर है और मेरे देखे यही लह्जा यही तंज़ इरशाद की शाइरी का पसमंज़र भी है.
इरशाद ख़ुद से,मआशरे से,अपनी महबूब से,यहां तक की ख़ुदा से भी इसी लह्जे में बात करते हैं.
कुछ शे’र देखिये –
हुआ है और भी जाहिल पढ़ा लिखा तबक़ा
हुज़ूर आप तो कहते थे रौशनी होगी
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मेरी आवाज़ जाती रही
उनके अल्फ़ाज़ पढ़ते हुए
(अजीब कैफ़ियत का शे’र है..इन्फ़रादियत को खोने के दुख अफ़सोस और हैरत के पहलू तो एक साथ नज़र आते ही हैं..साथ ही एक और ज़ाविये से तंज़ भी नुमायां होता है)
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कश्ती जब तक कि ख़ुद की डूबी नइं
बात उनके गले से उतरी नइं
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आपकी बात अलग हो शायद
ख़ैर हम सब को तो मर जाना है
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हमारी नाव डूबने से ये हुआ
तुम्हारे शाहकार भी नहीं रहे
(क्या कहने हैं..अपनी ज़ाती हार को इरशाद ने एक और ज़ाविये से ख़ुदा की हार में बदल दिया है..ये भी कि अमूमन नज़र केवल ज़ाहिरी नुक़सान पर जाती है..लेकिन नुक़सान दरअस्ल दिखाई देने वाले सानिहे से कहीं बड़ा है..)
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ये एक बात ख़ुदा को भी रास आएगी
हरेक मोड़ पे हमने ख़ुदा ख़ुदा न किया
(ये अपने अज़्म को सालिम रख कर ज़िंदगी की तमाम परेशानियों से जूझने की कहानी रक़म करने वाले शख़्स का मज़्मून के आख़िर में लिखा गया फ़ुटनोट है..पूरी कहानी को पढने के लिये रौशनी मयस्सर करवाता हुआ फ़ुटनोट.)
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मसअला मसअले से हल होगा !
मुहतरम के सुझाव क्या कहने
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कौनसी दुनिया में रहते हो मियां
इश्क़ है इस दौर में कारीगरी
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सब अक़ीदों की फ़ौज यकजा थी
इक अक़ीदे पे वार करना था
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किनारा कर लिया जिनसे अदब ने
वही सबसे बड़े अब नुक्ताचीं हैं
मियां ये लोग हैं ज़ेह्नी अपाहिज
जहां थे सौ बरस पहले वहीं हैं
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ज़ेह्न के दर बंद कर के हुक्म की तामील हो
मुहतरम मेरे गले ये मशवरा उतरा नहीं
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मज़हब तो रास्ते की दीवार है हमारे
हम दीनदार लोगों दूजे ख़याल के हैं
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तिरी कारीगरी पर ख़ाक दर्ज़ी
हमारे नाप की दुनिया नहीं है
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इधर हम हैं उधर है क्या
तुम्हें पक्की ख़बर है क्या
यहां आंखें ही आंखें हैं
कहीं कोई नज़र है क्या
(आंखों और नज़र के फ़र्क़ इस शे’र में कितनी ख़ूबसूरती से डिफ़ाइन किया गया है..)
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क़ैस का चाक गरीबान हुए जाते हैं
हम कि तफ़रीह का सामान हुए जाते हैं
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यहां इस बात की तस्दीक़ भी ज़रूरी है कि इरशाद अपनी शाइरी में किसी तरह का कोई फ़लसफ़ा पेश नहीं करते.
इसकी वज्ह शायद ये हो कि फ़लसफ़ा पेश करने के लिये आपको मआशरे के सामने यक़ीनी तौर पर ख़ुद को एक ऊंचे मिम्बर एक ऊंचे पेडेस्टल पर तसव्वुर करना होता है..और इस क़दर हस्सास दिल फ़र्द के लिये (जितने कि इरशाद हैं और जितना मैं इरशाद को जानता हूं) ये तसव्वुर करना बेहद मुश्किल काम है.
उनकी जेह्नी तासीर मआशरे के चारागर की तासीर नहीं है.
इसलिए इरशाद किसी की रहनुमाई करते नज़र नहीं आते..इरशाद दरअस्ल मआशरे के ज़ाहिर और बातिन असरार को पूरी शिद्दत पूरी ज़िम्मेदारी से दर्ज करने वाले शाइर हैं.
देखिये कुछ अशआर –
ज़ख़्म सब हैं हरे भरे देखो
फिर न कहना ख़ुदा ने कुछ न किया
ज़ह्र था काम का सो आया काम
जी ! दवा ने दुआ ने कुछ न किया
(केवल एक लफ़्ज़ “जी !” ने शे’र को अलग तेवर अलग लह्जा दे दिया है.)
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मैं बस्ती भर के चेहरे देख आया
सुनो कोई भी शर्मिंदा नहीं है
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आवाज़ दे रहा हूं तो सुनता नहीं कोई
मैं सब्र टूटने प’ न चीख़ों में ढल पड़ूं
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मैं मेरी सच्चाई और वो
तीनों तीन जगह रहते हैं
सब कुछ अच्छा हो जाएगा
सच हम भी कितने झूठे हैं
(“सच” लफ़्ज़ को बरतने में ज़बान और बयान दोनों का हुस्न देखने लायक़ है.)
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लड़ झगड़ कर इसी दुनिया से निभानी होगी
तिरी ख़ातिर नई दुनिया वो बनाने से रहा
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अभी उरूज की परियां नज़र में रक़्सां हैं
अभी ज़वाल का ख़तरा टला हुआ है क्या
(क्या अच्छा शे’र है..सवाल ख़ुद से भी है और मआशरे से भी..सवाल के साथ साथ शाइर ख़ुद और मआशरे को आगाह करता भी नज़र आता है..और यहां इस मुशाहिदे की भी निशानदेही है कि ज़वाल का ख़तरा बस ज़वाल हो जाने के बाद ही टलता है..)
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चांद आधा था रात आधी थी
रात आधी मगर वो गुज़री नइं
रात के बाद रात आती है
कैसे दिन हैं कि सुब्ह होती नइं
(यहां “कैसे दिन हैं” से मुराद है कि “कैसा वक़्त है”..पहले मिसरे में रात और दूसरे मिसरे में “दिन” के कहावती इस्तेमाल ने शे’र को बालातर कर दिया है.)
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यहां एक और बात मैं कहना चाहता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान की नई शाइरी में ज़बान को ले कर जो तजरिबे किये जा रहे हैं वो सारे तजरिबे बेशतर अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़ (फ़ोन/कॉकरोच/कैमरा/मैसेज/डी पी/बैनर/ज्योग्राफ़िया/फ़ेसबुक/शिफ़्ट/लाइव) को शे’र में बरतने के ही तजरिबे हैं.
इरशाद को अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ से गुरेज़ नहीं है लेकिन साथ ही साथ इरशाद ने अपनी ग़ज़लों में ख़ालिस हिंदी के लफ़्ज़ और मुहावरों को भी बेहद सलीक़े से बरता है.
उर्दू ज़बान ने मुख़्तलिफ़ ज़बानों से बेशुमार लफ़्ज़ लिये हैं..और ये कुशादादिली ही उर्दू की इर्तिक़ा का बाइस भी रही है.
एक अरसे बाद अब ये ज़बान फिर से मुतहर्रिक़/गतिशील होती नज़र आती है और अब ये देखना भी ख़ासा दिलचस्प होगा कि इस वक़्त बरते जा रहे अंग्रेज़ी और दीगर ज़बानों के अल्फ़ाज़ के पहिये उर्दू ज़बान की इस गाड़ी का साथ कहां तक दे पाते हैं..
चांद की रौशनी मद्धम है मुनव्वर कर दूं
सोचता हूं कि तिरा नाम उजागर कर दूं
(पहले मिसरे में मुनव्वर/रौशन और दूसरे में उजागर..मुनासिबत क़ाबिले तहसीन है..)
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मैं सिकंदर हूं फिर भी उलझन है
मांगने वाला एक वामन है
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अंतत: मौत मेरे काम आई
ज़िन्दगी बेहया ने कुछ न किया
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टकटकी बांधे कब से बैठा हूं
कुछ तो मेरा हला भला कीजे
(“मिट्टी का हला भला करना” एक मुहावरा है जिसके मआनी हैं “शव का संस्कार करना”..अब “बांधे” लफ़्ज़ को टकटकी के साथ साथ मिट्टी के हवाले से भी तसव्वुर करें और इसी तनाज़ुर में इस बज़ाहिर सीधे से दिखने वाले शे’र को एक बार और नज़रे सानी करें तो कुछ और ही मआनी खुलेंगे..यहां इरशाद के क्राफ़्ट की जितनी तारीफ़ की जाए कम है.)
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इक उदासी है मिरी अर्धांगिनी
क्या तुम्हारे हाथ पीले हो गये ?
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मोड़ है अब नया कहानी में
अब मैं छोटों से पस्त होता हूं
आ मिरी जान ये तमाशा देख
तेरी ख़ातिर मैं ध्वस्त होता हूं
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सांस लेना ही अगर सिग्नल है तो
है मिरे भी जिस्म की बत्ती हरी
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अश्कों की एक टुकड़ी हमले के मूड में है
इक ज़ब्त का सिपाही लड़ने के मूड में है
(“टुकड़ी” के साथ “हमले” और “सिपाही” के साथ “लड़ने” लफ़्ज़ का इस्तेमाल ग़ौर करने लायक़ है..कहने की ज़रूरत नहीं कि इस कहन के लिये कितना मश्क़े सुख़न दरकार होता है..)
बाहर किया गया है इक शख़्स दास्तां से
और शख़्स वो सुना है बदले के मूड में है
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अब लफ़्ज़ों की मुसव्विरी के ये ख़ुशनुमा तजरिबे भी देखिये जिसमें एक पूरा मंज़र आपकी आंखों के आगे आ खड़ा होता है..
झील झरने उदास रस्ता देख
इक शिकंजा सा दिल पे कसता देख
फूल डूबे हुए पसीने में
पीठ पर एक मन का बस्ता देख
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दिल मुहब्बत की ज़द प’ क्या आया
इक उदासी उछल के पास आई
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हाथ से छूटा रिसीवर फ़ोन का
ताक़ से सिंदूर की डिबिया गिरी
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तिरे अल्फ़ाज़ के पत्थर मिरे सीने प’ लगे
मेरे एहसास के टुकड़े मेरे चेहरे प’ लगे
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अचानक सारे मंज़र बोल उट्ठे
हंसी गूंजी तो पत्थर बोल उट्ठे
(मंज़रों के बोल उठने को पत्थरों से टकरा कर हंसी के गूंजने की बात से मंज़रों के बोल उठने को ख़ूबसूरती के साथ वाज़ेह किया गया है..गोया पत्थर हंसने लगे हों…एक और बात कि अगर तबीयत ख़ुश हो तो बेजान और बेहिस चीज़ें भी हमकलाम होती हुई लगती हैं..)
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चांद की दस्तार सर से क्या गिरी
धूप की बौछार सर पे आ गिरी
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इश्क़ का मौज़ूअ भी एक नयी धज के साथ गाह गाह इरशाद की शाइरी में नुमायां होता रहता है..हालांकि उनका तंज़िया कहन (थोड़ा माइल्ड) यहां भी बदस्तूर जारी रहता है..
जहाज़ इश्क़ का ऊंची उड़ान भरता हुआ
वो बावली उसी साहिल प घर बनाती हुई
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इश्क़ का क़ायदा पढा कीजे
रूह तक रौशनी किया कीजे
नाउमीदी तो कुफ़्र है, उनसे
मुस्कुरा कर मिला जुला कीजे
(इरशाद के यहां ख़ुदा का मुनकिर होना कुफ़्र नहीं है..उम्मीद से रिश्ता तर्क कर लेना कुफ़्र है..यहां उम्मीद को ज़िन्दगी की तश्बीह भी समझा जा सकता है.)
ये भी इक तर्ह का तआल्लुक़ है
आप मुझसे ख़फ़ा हुआ कीजे
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हमें मालूम है खिड़की खुली है
मगर अब जी नहीं लगता हमारा
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डूबता हूं कि ऐ तिनके मैं उबरने से रहा
दूसरा इश्क़ मिरे ज़ख़्म तो भरने से रहा
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उसी प’ है लगा हमारा सार ध्यान
सो हम उसे पुकार भी नहीं रहे.
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फले फूलेगी इक दिन याद मेरी
सुनाओगे तुम्हीं रूदाद मेरी
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वही बस्ती वही सहरा वही रूदाद ज़िन्दाबाद
नये दिन में हुई ताज़ा तुम्हारी याद ज़िन्दाबाद
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उजाला ही उजाला चार जानिब
किसी की आंख के तारे हुए हम
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फिर वही मैं लबे दरिया वही ढलता सूरज
काश तुम भी चले आओ कोई वादा ओढे
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शाइरी के मुतअल्लिक़ कहे गये ये ख़ूबसूरत शे’र भी मुलाहिजा हों –
हमने पहनी ज़रूर है लेकिन
शाइरी अब समय की उतरन है
(शाइरी को समय की उतरन कहना और शाइर का उतरन को पहनना..यहां लफ़्ज़ों की मुनासिबत और बयान की सफ़ाई देखने जैसी है.)
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ज़िन्दगी का विष तो जूं का तूं रहा
शाइरी के कंठ नीले हो गये
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बढाय इश्क़ ने रुतबा हमारा
पढा जाता है अब लिक्खा हमारा
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पढने का शौक़ हमको लिखने का शौक़ हमको
हमने उरूज देखे हमने ज़वाल बांधे
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कभी ज़ुल्फ़ें संवारी शाइरी की
कभी मज़लूम के नारे हुए हम
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घना अंधेरा जहां था सहर बनाती हुई
ग़ज़ल की राह मुझे मोअतबर बनाती हुई
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शाइरी में दाख़िली और ख़ारिजी रंगों की बह्स या लखनऊ और दिल्ली की बह्स अब पुरानी हो चली है.
हालांकि ये वक़्त तमाम रवायतों के एकमेक हो जाने का वक़्त है लेकिन फिर भी चाबुकदस्ती से गढे गये मिसरे,साफ़ सुथरी ज़बान और लुत्फ़अंदोज़ कर देने वाला बयान उस सिलसिले का ख़ासा है जिससे इरशाद मंसूब हैं.
अब ये शे’र हज़रत ग़ुलाम हम्दानी मुसहफ़ी के ख़ानवादे का फ़र्द न कहता तो और कौन कहता !
मैं अपनी आंखों से पानी छिड़कने लगता हूं
कलेजा जब भी तुम्हारी ज़बान फूंके है
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तू जो बुलाए तो हो ये झूठा मुहावरा
तेरी तरफ़ मैं चल न अगर सर के बल पड़ूं
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किसी से सुन लिया फ़ुरक़त से प्यार बढता है
सो चाहता है मिरा माहताब दिन निकले
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ये मेरे ज़ख़्म ये मैं हूं ये मेरा हुजरा है
हटो ! यहां प’ तमाशा लगा हुआ है क्या
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हम तो डंके की चोट पर कह दें
उसके पैरों की चांद धोवन है
सामना हो तो आंखें जल जाएं
रौशनी उसके छब की कतरन है
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इश्क़ से मेरी सिफ़ारिश भी लगइयो क़ासिद
जान पहचान कोई तेरी पुरानी हो तो
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इधर तो आओ लगा लूं तुम्हें गले जी भर
फिर उसके बाद मिरा जी हुआ हुआ न हुआ
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सामने जब हुज़ूर आते हैं
कौन ? मैं ? बुतपरस्त होता हूं ?
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कर उठे बेसाख़्ता हम वाह वाह
वो ग़ज़ब की आह ज़ालिम ने भरी
जो मिरे सीने प’ रक्खी आपने
आज भी वो सिल धरी की है धरी
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हर घड़ी मुझपे हाथ शफ़क़त का
ज़ख़्म के रख रखाव क्या कहने !
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उनके जवाब सुनने लब पर सवाल बांधे
कल हम गये थे दिल में क्या क्या ख़याल बांधे
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ये सारे अशआर बार बार पढने को जी चाहता है..मिसरों की बुनत,गढ़त और साख़्त देखते ही बनती है.
इन अशआर में ज़बान और बयान तो धारदार है ही..साथ साथ ज़ख़्म/रौशनी/चांद/सिल और हुजरे जैसी अलामतों के इंतिहाई ख़ूबसूरत इस्तेमाल ने शाइरी के हुस्न को मज़ीद बढा दिया है.
यहां ये भी वाज़ेह करता चलूं कि अपने ख़ानवादे की रवायतों की पासदारी करते हुए भी इरशाद ने शाइरी की वुसअत से कोई समझौता नहीं किया और बयान के लिये बदलती ज़बान और तर्ज़ो तरीक़ से कोई गुरेज़ नहीं किया है..उनके यहां कोई लफ़्ज़ कोई मुहावरा या तर्ज़े बयान अछूत नहीं है.
और बात केवल इन्हीं अलामतों की नहीं है..एक और सत्ह पर जा कर नज़ारा करें तो पता चलता है कि इरशाद की शाइरी दरअस्ल हमारी और मआशरे की नज़रों से ओझल हो चुकी या मतरूक हो चुकी अलामतों (Lost Symbols) को ही खोजने और उन अलामतों को फिर से रौशन करने की क़वायद है.
ये अलामतें इस मज्मूए की रोशनाई से कितना रौशन हो पाई हैं इसका जवाब पाने के लिये मेरा मशवरा है कि आपको ये मज्मूआ पढना चाहिए.
वैसे ख़ुद इरशाद का एक जगह फ़रमाते हैं –
मैं चराग़ से जला चराग़ हूं
रौशनी है पेशा ख़ानदान का !
आख़िर में कोई चार बरस पहले इरशाद भाई के पहले मज्मूए “आंसुओं का तर्जुमा” पर मेरे लिखे एक अधूरे बयान से ये सतरें फिर लिख देने को जी चाह रहा है..
“उजाले को भी अपने हिस्से के अंधेरे से देखने के आदी इरशाद की शाइरी दरअस्ल उसके वजूद की सनद है..और इसीलिये इरशाद का शेरी मज्मूआ दिन के भरपूर उजाले में नहीं बल्कि रात के वक़्त चांद की मद्धम रौशनी में पढे जाने का मुस्तहिक़ है.
-बकुल देव
【डैन ब्राउन के शैदाई जानते होंगे कि “द लॉस्ट सिंबल” पढ़ने से क़ब्ल उनका नॉवेल “द दा विंची कोड” पढ़ा जाना चाहिए.. वही पुरानी कहानी वसीअ हो कर दूसरे नॉवेल की शक़्ल इख़्तियार कर लेती है.
इसी तरह आप अगर इरशाद ख़ां सिकंदर के शैदाई हैं तो यक़ीनन जानते होंगे कि उनकी कहानी की वुसअत को देखने और महसूस करने के लिये “दूसरा इश्क़” से पहले “आंसुओं का तर्जुमा” भी पढ ही लेना चाहिए.】
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