एक संस्मरण दिनेश मिश्र को बतौर श्रद्धांजलि:ब्रज श्रीवास्तव

संसार में ऐसे कम ही शख्स होते हैं जिनका हर तरह से कद ऊंचा होता है।जो आकर्षक होते हैं,जिनके केश वृद्ध हो जाने पर भी नहीं झरते।जिनकी वाणी शीतलता देती है,जो बहुरूचि संपन्न होते हैं और जो लोकप्रिय भी होते हैं।दिनेश मिश्र ऐसे ही शख्स थे।हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी रहे।बड़े किसान रहे।संगीत के तो जैसे दीवानों की हद तक प्रेमी थे।वे फिल्मी संगीत की निंदा सहन ही नहीं कर सकते थे।अंताक्षरी में तक उन्हें कोई हरा नहीं सकता था।उन्हें साधारण बीमारी हरा नहीं सकती थी।यदि कोरोना की दूसरी लहर उन्हें न लीलती तो वे कम से कम दस बारह साल और जीकर पचहत्तर पार कर लेते।इतना जीकर वे कम से कम अपने एक कविता संग्रह साया हो जाने की कामना को पूरा होता देख पाते।अपने प्रिय जनों की विकास यात्रा देख पाते।

वे परसों ही कोरोना से लड़ते लड़ते सांसों का युद्ध हारे हैं।लेकिन बरसों तक मेरे ह्दय से उनकी छवि नहीं हटेगी,वह उतनी ही ताज़ा,उतनी ही जीवंत और उतनी ही आत्मीय दिखाई देती रहेगी, जितनी आज है।न जाने ऐसा क्यों है कि मुझे उनकी विदा से इस हद तक टीस है कि सपनों में,जागते हुए और कुछ भी करते हुए उनकी याद आ रही है।क्या वे हमारे इतने पारिवारिक रहे हैं,या दिन रात संपर्क में रहे हैं।नहीं,ऐसा नहीं, इसके बावजूद उनकी अनुपस्थिति इस हद तक तड़पा रही हैं तो निश्चित ही उनसे एक स्थायी लगाव का ऐसा संबंध जरूर रहा है जो चेतन से ज्यादा अचेतन में सींचा,संवारा जाता रहा है।

पीछे जाता हूँ तो ऐसा कुछ धुंधला सा याद आता है कि विदिशा के न्यास के कार्यक्रमों में जब मैंंने 98 में जाना शुरू किया तो कुछ सुदर्शन व्यक्ति श्रोता,दर्शकों की दीर्घा में नियमित रूप से मौजूद होते थे,उनके बीच दिनेश जी भी थे।अखबारों में कवि के रूप में अलबत्ता हम जरूर छपते रहते थे, तो यह भान था कि हम लोग लेखक हैं ये लोग नहीं।शहर की लोकल कवि गोष्ठियों में उन दिनों बड़ा भरा भरा लगता था, हमें वहां महत्व मिलना शुरु हो गया था।एक गोष्ठी निकासा में दूसरी मंजिल पर एक सरकारी स्कूल में हुई,संचालक ने माँ वीणावादिनी को प्रणाम के बाद सबसे पहले एक नये कवि को प्रस्तुत किया,उस कवि ने कुछ साधारण सी क्षणिकाएं पढ़ीं।जिनमें से एक थी कुत्ते और अफसर पर।सब लोग हंसे।दिनेश जी पहली ही गोष्ठी से हिट हो गए।हम सोचते रहे हूंह ये क्या कविता हुई।

एक चुटकुला हुआ बस।लेकिन ऐसी विचारधारा होने के बावजूद हम भी गोष्ठी का तारीफ करने के चलन का अनुकरण करते रहे ।सच भी है आलोचना के नेलकटर से तो उनके ही नाखून काटे जाते हैं जो लंबी दूरी तक चलने के लिए तैयार दिखाई दे।शौकिया कवि तो बस हर पाठ के बाद वाह वाह के अभिलाषी होते हैं,आलोचना अभिलाषी नहीं होते।दो चार साल बाद मुझे लगा कि दिनेश मिश्र शौकिया कवि नहीं हैं,वे आलोचना अभिलाषी भी हैं।जब वे मेरी कविताओं को पत्रिकाओं में पढ़ते,इस बहाने बातचीत करते,फिर कहते कि मैं आप जैसा क्यों नहीं लिख पाता।मुझे कुछ सिखाइये,मेरी कविताओं में कमी बता कर रहनुमाई कीजिए।इसी व्यवहार से वे अनेक समकालीन कवियों से भी मुखातिब होते रहे ।और अभ्यास करते करते एक काव्य भाषा अर्जित करके ही माने।देखते ही देखते वे वागर्थ में छपने लगे और समीक्षाएं लिखने लगे।कविताओं को आलोचना और विवेक के चश्मे से देखने लगे।उनका हमेशा यह नारा रहा कि समकालीन कविता में संप्रेषण होना चाहिए,तभी वह सौद्देश्य होगी।

जब कवि मालम सिंह चंद्रवंशी विदिशा से जा रहे थे, तो वे विदिशा के वसुधा के ग्राहकों पाठकों को मुझे देते हुए यह कह गये कि सदस्य बढ़ाइये।तो मैंनै 5 से 10 करने में जिन अतिरिक्त पांच को और जोड़ा,उनमें एक दिनेश जी भी थे।हर तीन माह में एक बार वसुधा को देने उनके जाता था।वह अंदर वाले कमरे से पहले बरामदे में आते,सांकल हटाते और एडवोकेट आफिस वाले कमरे में सामने बैठाकर खुद बैठ जाते।उनकी टेबल पर पत्र पत्रिकाओं का करीने से रखा हुआ एक उर्ध्व ढ़ेर होता।वे उन्हें दिखाना चाहते।पानी का गिलास और दूध ही दूध से बनी चाय के प्याले के आने के बीच हम दोनों की एक औपचारिक संगत हो जाती।तब भी वह यह ज़रूर कहते कि आप कितनी अच्छी कविताएं लिख लेते हो।कैसे लिख लेते हो।

ज़ाहिर है यह उनका स्वाभाविक अंदाज था जिससे वह सामने वाले को महत्वपूर्ण व्यक्ति मानकर खुद को छोटा कहकर बड़े बन जाते।एक दो बार आलोक के साथ भी मैं गया।एक बार तो आलोक ने एक विवाद सुलझाने के लिए दिनेश जी का घर ही चुना।विदिशा के कवियों पर केंद्रित दिशा विदिशा संकलन प्रकाशन की तैयारी के दौरान शहर के नाराज़ कविगण आलोक और मुझे टारगेट कर रहे थे।तब एक बैठक का सोचा गया जिसमें बातें साफ साफ होकर सामने आ जायें।सच में दिनेश जी ने अपनी उसी बैठकी में हम सात आठ लोगों को आमंत्रित किया।शायर श्री निसार मालवी, गीतकार कालूराम पथिक,नर्मदेश भावसार,घनश्याम मुरारी पुष्प, शीलचंद पालीवाल, आनंद श्रीवास्तव, मैं और आलोक श्रीवास्तव वहां मौजूद थे।इसके बाद फिर उस संकलन पर कोई विवाद नहीं हुआ।

मित्र आलोक श्रीवास्तव (पत्रकार और शायर)के दिल्ली चले जाने के कारण अब विदिशा में मेरा इतना अपना कोई नहीं था,जिसके पास बैठने और कविता पर बात करने का मन होने लगे।गोया कि मेरी विधा ऐसी थी जिसके अभ्यासी नगण्य थे।ये स्थिति मुझे दिनेश मिश्र के नजदीक लाने लगी।ज्यादा तो नहीं लेकिन हां हमारे संवादों की आवृति अपेक्षाकृत ज्यादा हो चली थी।घर जाते तो अब नेहा भाभी भी हाल पूछने आ जातीं,स्वल्पाहार के लिए आग्रह करतीं।वह उस समय सरपंच थीं,मैं तब सर्व शिक्षा अभियान में समन्वयक था।तो उनकी दिलचस्पी शिक्षा के विकास में होती।वैसी बातें होतीं।
इधर मैं कुछ साहित्यिक आयोजन भी करने लगा था ।समकालीन कविता के प्रसिद्ध हस्ताक्षर नरेंद्र जैन ने एक बार कहा -ब्रज यार मेरी एक किताब आई है अनुवाद की,मैं चाहता हूं कि तुम इसका विमोचन का कार्यक्रम कराओ।भले ही छ सात लोग आएं।मैंनै सबसे पहले दिनेश जी को कहा तो उन्होंने सहर्ष उपस्थिति की सहमति दी।कभी वह संचालन करते,कभी मैं।पर यह भरोसा हुआ कि वह मेरे साथ हैं तो हो ही जाएगा।हालांकि सहयोग के लिए कोई भी इन्कार नहीं करता,मगर दिनेश भाई के साथ होने की मेरे लिए बात ही अलग थी।

दिनेश मिश्र अब मेरे लिए किसी केवल एक ही संबंध में मौजूद नहीं थे।बातचीत के जितने भी विषय हो सकते हैं उन सब में वे शामिल हो सकते थे।अगर मैं साहित्य की बात करूं तो ये तो था ही सेतु।अगर मैं विभाग की,या रिश्तेदारी की बातें करूं तो भी उनके पास बात आगे बढ़ाने के लिए प्रसंग होते।संगीत और चित्रकला में भी वह हमशौकिया रहे।

और सिनेमा,सिनेमा के नाम पर तो वह बोलने के लिए उतावले हो जाते।उनके लिए भारतीय सिनेमा एक विराट फलक था,जिसके अध्ययन और व्याख्यान में उन्हें भरपूर आनंद मिलता था।वे हर फिल्म के वास्तविक किस्से सुना सकते थे।फिल्म के निर्देशक, संगीतकार, और गायकों के नाम उनकी जुबान पर इस तरह चले आते थे,जैसे दिन रात पाठ याद करके आये किसी विद्यार्थी की जुबान पर प्रश्नों के उत्तर निर्बाध चले आते हैं।वह फिल्मों पर केंद्रित प्रकाशित अद्यतन किताब खरीद लेते थे भले ही कीमत हजारों में हो।पंकज राग रचित धुनों की यात्रा सहित लता मंगेश्कर पर आई किताब उनकी निजी पुस्तकालय में मौजूद है।

उन्होंने निम्मीं से फोन पर बात की।राजकुमार केसवानी ,जय प्रकाश चौकसे,अजातशत्रु और युनस खान से वे फोन पर बात करते थे।फिल्म अभिनेत्री रेखा उन्हें सौंदर्य और अदायगी की वजह से बेहद पसंद थीं।हम लोग उन्हें चिढ़ाते कि रेखा में खास कुछ नहीं तो रूठ जाते।हालांकि यह एक नूराकुश्ती होती,।ये वह भी जानते,मैं भी जानता,और हमारे बतरसिया,मधु सक्सेना,प्रवेश सोनी,सुधीर देशपांडे, श्याम गर्ग,पदमा शर्माऔर उदय ढोली भी जानते।बतरस यानि दस बारह साथियों को आत्मीय वाटस एप समूह

उन्हें फिल्मी गीतों की बारीकियां याद थीं। किसी गीत को मैं अंतरे से शुरू करके उनसे मुखड़े के बोल पूछता वे एकदम बता देते।ये उनकी विलक्षण क्षमता थी।विदिशा के पत्रकार गोविंद सक्सेना ने उनके निधन पर यह सटीक कहा कि विदिशा के राजकुमार केसवानी ने भी विदा ले ली है।यह अजीब बात है कि एक दिन पहले राजकुमार केसवानी की कोरोना मृत्यु हुई।

यदि उन्हें कोई बड़ा मंच मिलता तो वे जरूर अपनी इस प्रतिभा के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध हो जाते।इस तरह उनका सिनेमा पर अर्जित विपुल ज्ञान दुनिया के काम आता।मगर ये हो न सका।यद्यपि नाचीज़ ने इंदौर के दैनिक विनय उजाला में उनके पचीस तीस लेख प्रकाशन को भेजे और वे छपे।अपने वाटस एप ग्रुप साहित्य की बात में भी उनका परिचय देश के अनेक से कराया,और वह प्रसिद्ध तो हुए ही।लोकप्रिय भी हुए।शरद कोकास,नरेश अग्रवाल, राजेंद्र गुप्ता, हरगोविंद मैथिल, आनंद,पदमनाभ सहित सभी उनकी कमी को महसूस कर रहे हैं।वे थे ही हर दिल अजीज़।

आज जब उनको दुनिया ए फ़ानी से गये तीन ही दिन हुए हैं।मुझे अपने कवि पिता घनश्याम मुरारी पुष्प के देहांत (2008) के बाद दिनेश भाई की आत्मीय रुप से मिली निकटता की भी याद आ रही है।कैसे उन्होंने आकर मुझे गले लगाकर आंख के आंसू पोंछे थे। पुष्प जी की याद के हर वार्षिक आयोजन में वह अतिरिक्त भावुक होकर कुछ कहते,सुझाव देते,हौसला बढ़ाते।अपने आलेख में उन्होंने बार बार कहा कि एक गोष्ठी में पुष्प जी की भावनाओं को ध्यान में न रखकर किसी मनचले कवि ने ऐसी वैसी कविता पढ़ दी थी और वह उठकर चले गए थे।दरसअल भावुक होना उनके स्वभाव का प्रधान गुण था ही।इसलिए उनकी कविताओं के विषय बिटिया,मां,मामा,काम वाली बाई,आदि होते थे,और उनमें एक नोस्टाल्जिया होता था।वह गद्य में भी लिखते थे।उनके गद्य में एक प्रवाहिका होती थी।

माधव उद्यान में जब भोर भ्रमण करने वालों की मंडली बनी तो संगीत के रसिकों के बीच अनौपचारिक संगीत गोष्ठियां होतीं।दिनेश मिश्र केंद्र में होते।उन्होंने संगी त साथी समूह बनाया।वहां उनको चाहने वालों की एक बड़ी कतार थी।उधर वह पहले से ही पंडित गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास के कार्यक्रमों में अक्सर संचालन करते ही थे।वह रेखा चित्र भी बनाते और गाने भी गुनगुनाते।फेसबुक पर वह प्रतिरोध की पोस्ट बराबर डालते रहे।सबसे पहले लिखते –साथियों–।यह उनकी स्टायल थी।

संयोग ही था,उनकी छोटी बेटी के रिश्ते का प्रशासनिक अधिकारी और कवि संगीतकार अविनाश तिवारी जी के बेटे और मेरे प्रिय कवि दुष्यंत के लिए प्रस्ताव मैंने ही दिया था और वह तय हो गया।फलस्वरूप भी वह मुझसे खुश थे।उनकी भावनाओं में अधिकार आ गया था, मुझे तुम संबोधित करते हुए अंतरंग वार्तालाप करने लगे थे।इसी विश्वास के चलते कदाचित उन्होंने मुझे दिनांक सात मई को एक संदेश भेजा। रिपोर्ट पोजिटिव आई है -अपने तक रखना।यह संदेश डरा रहा था लेकिन उनसे और उनकी तब सेवा समार और परवाह कर रहे अविनाश तिवारी जी से बातचीत से यह आशा बंधी रही कि वे स्वस्थ होकर वापस आएंगे।

मगर कुछ आशाएं सिर्फ नियति से संचालित होतीं हैं।हम बस नियति को खराब कह सकते हैं।मगर इस विलाप से होना क्या है।अब दिनेश मिश्र अगर कहीं मिलेंगे तो बस उनके चाहने वालों की बातों में।उनकी कविताओं में और गाये फेसबुक पर सुरक्षित कुछ गीतों की स्वर लहरियों में।और हाँ ऐसी अनेक स्मृतियों में वह मुझे मिलते रहेंगें जो हजार लिखने पर भी अलिखित रह ही जाएंगीं।

ब्रज श्रीवास्तव

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