मेरा हमऐब और एक ही जंगल के हम..
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सिरहाने मीर के कोई न बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है…
रोया नहीं, तो शायर क्या? फ़नकार क्या! अपने ही लिए रोया, अपने ही दुखों से रोया तो भी शायर क्या? धूप झेलते हैं, आग पीते हैं, झंझावातों से टकराते हैं और न जाने कितनों के ताने सुनकर पनपते जाते हैं… फिर भी दिल ऐसा कि धड़के तो दुख देने वाली कायनात के लिए ऑक्सीजन ही फूंके. जंगलों का किरदार सबके नसीब में नहीं होता. मोहन भाई के भीतर के जंगल से ही कोई तेज़ झोंका उड़ा था और मेरी झोली में एक नज़्म डाल गया था. यह तब की बात है जब दास्तां कहते-कहते मोहन भाई को रोना आने लगा था और रोते-रोते खोना भी.
दर्द हुआ था. होता है. होता रहेगा कि एक ज़िन्दा शख़्स महफ़िल से तक़रीबन रुसवा चला गया. एक बेलौस आवाज़ नये अल्फ़ाज़ की तमाम संभावनाओं से मुंह मोड़कर गूंज बन गयी. एक दिलदार दोस्त, हौसले का एक हाथ अचानक छूट गया, बेवफ़ा हो गया…
बहुत सी बातें पूरी होनी थीं बहुत से ख़्वाब पूरे होने थे
अधूरे थे बहुत से काम और अचानक वक़्त पूरा हो गया.
ग़ज़ब का यारबाश आदमी था. रिश्तों की हरारत से उसके बदन में ख़ून दौड़ता था तो ज़िन्दगी छलछलाकर उफनती थी. अपनी मुश्किलों से तपकर ढला इन्सान था. हम एक-ही या एक-से ही तो नहीं थे, पर जौन के ढंग से कहूं तो, थे एक ही जंगल के. अब मैं अपने जंगल में अजनबियों के बीच काफ़ी तनहा उस इत्तेफ़ाक को भी सोचता हूं कि हम एक-दूसरे से अनजान भी न थे.
हमारी सोहबत का रास्ता साहित्य से जुड़ी बातों से बना. फ़ोन का एक फ़ायदा हुआ कि एक समूह ‘साहित्य की बात’ पर हम टकराये. एक ही जंगल का मिज़ाज था तो टकराहट भी हुई, फिर उसी जंगल का दिल था, तो मिला था. पिपरिया और पचमढ़ी की ‘साहित्य की बात’ की यात्रा के दौरान उन्हें नज़दीक से देखने को मिला, तो कुछ हमआहंगी भी बढ़ी. हमख़याली तो शायद कुछ कम, लेकिन हमऐब हम बहुत रहे. मोहन भाई को ख़ास नशों से लगाव था, मेज़बानी का शौक़ था, मुहब्बत और हक़ के लिए तड़प थी और पाखण्ड से बड़ी कोफ़्त थी, ‘ख़ुदी की ख़ुदाई’ से चिढ़ थी और साहित्य के नाम पर स्वयंभू प्रवृत्ति से सख़्त ऐतराज़ था. मौक़ा मिलते ही भाई भी तन्ज़, प्रतिरोध या खुला तार्किक विरोध दर्ज कराने से चूकते नहीं थे. मुझे लगता है, अब भी जहां होंगे, वहां हमारा जंगल ही आबाद कर रहे होंगे.
किसी की सोच रोशन करनी है किसी आवाज़ में दम भरना है
अभी ज़िन्दा बने रहना है दोस्त बेशक वक़्त पूरा हो गया.
ज़िन्दा वही है जो ढर्रे का विरोधी है, बाग़ी है. फ़कीरों को जीने का यही सलीक़ा आता है. मोहन भाई की कविताओं से लेकर लघुकथाओं तक ऐसे तेवर और फ़ल्सफ़े मिल जाते हैं. धर्म के नाम पर चल रही मक्कारियों को लताड़ना फ़ितरत में था. एक बार फ़ोन पर बात हुई तो एक प्रसंग में बोले, ‘भावेश, चमड़ी और धर्म का धंधा कभी ख़त्म नहीं होता’. उनके पास अपनी एक समझ थी, मैं बहुत हद तक जिसका मुरीद भी रहा.
सामाजिक-साहित्यिक समूहों में छोटे-मोटे स्वयंभू टाइप के लोगों को तो वह एकाध बयान में ही उधेड़ दिया करते थे. उनकी पाखण्ड विरोधी चेतना के दो उद्धरण मुझे ज़ाती तौर पर याद आते हैं. एक, चंद्रकांत देवताले के साथ अपनी एक वार्ता और बहस को याद करते हुए वह बताते थे कि कैसे उन्होंने जटिल कविताई पर देवताले जी को घेरा था और तर्क के स्तर पर उन्हें निरुत्तर किया था. प्रसंग उनके शब्दों में इस तरह था :
‘आपकी कविता पढ़ने पर समझ क्यों नहीं आती?’
‘एक बार में शायद न आये, फिर पढ़िए.’
‘दस बार पढ़ने पर भी समझ नहीं आती, तो?’
‘ग्यारहवीं बार पढ़िए.’
‘हा हा हा’
दूसरा प्रसंग मेरे लिए और भी महत्वपूर्ण था. कोरोना काल में सरकारी तंत्र में कई तरह की गड़बड़ियां चल रही थीं. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में कुछ बड़े घपले सुर्खियों में थे. चन्द रोज़ में मुझे पत्रकारिता से जुड़े कुछ सूत्रों से एक इशारा मिला, तो मैंने उन्हें फ़ोन करके कहा, ‘आप तो छुपे रुस्तम हो दादा..’ अपने अंदाज़ में हंसे, बोले ‘हां, तूने सही सुना.’ फिर मेरी पत्रकारिता के बारे में कुछ सवाल पूछकर कहा, ‘अरे! पहले बताया नहीं तूने. रुक, अगला बड़ा ख़ुलासा तेरे ज़रीये ही होगा.’ मुझे उनकी बात पर अब भी यक़ीन रहता है.
जहां हम तुम मिलेंगे अब कभी वहां आड़े न आने देंगे वक़्त
ये दुनिया एक लमहे की ही थी यहां तक वक़्त पूरा हो गया.
इस यक़ीन की एक वजह छोड़ गये हैं मोहन भाई. 7 नवंबर 2020 की बात है. एक कविता पूरी हुई, तो शायर के मन में होने वाली खलबली की वज्ह से मुझे एक ही नाम याद आया. फ़ौरन भाई को भेज दी. उनके लिखित शब्द आये, ‘चंद्रकांत देवताले का एक संग्रह ऐसा था, जो केवल एक कविता थी… हिंदी साहित्य में ऐसी कोई दूसरी रचना ये हो सकती है भावेश, यदि तैयार हो पायी तो. तुम्हें नहीं पता कि क्या प्लॉट आया है तुम्हारी क़लम पर’. इस संदेश के बाद हमारी बातचीत हुई फ़ोन पर और क़रीब एक घंटे तक वो यही एक्सप्लेन करते रहे कि ‘क्या प्लॉट आया मेरी क़लम पर’.
उनकी बातें, सुझाव और हिदायतें इतनी पुरअसर थीं कि अब तक उस कविता पर मैं सिर्फ़ काम कर रहा हूं. कहीं किसी से साझा नहीं की है. मुझे यक़ीन है कि कभी एक बड़ा ख़ुलासा होगा. इसका उलट एक मामूली प्रसंग और था. उनकी लघुकथाओं में ‘धर्म और चमड़ी का धंधा’ केंद्रीय विषयों के रूप में मौजूद रहे थे. ‘चमड़ी के धंधे’ विषयक एक लघुकथा पर मैंने उनके साथ कोरोना काल की एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट और उस पर अपना एक ‘मन’ साझा किया था. तब उन्होंने कहा था, ‘ये वाक़ई एक ग़ज़ब का प्लॉट है.. इससे ज़रूर कुछ नया निकलेगा.’ अस्ल में, कुछ आवाज़ें ऐसी होती हैं, जो तनहाई में आपसे बातें करती हैं, जो आपके आसपास गूंजती रहती हैं. जो अकेले में, टूटने वाले पलों में आपसे बतियाने चली आती हैं. उन आवाज़ों में से एक मोहन भाई की है और रहेगी मेरे साथ.
उनकी आवाज़ मेरे साथ उन दिनों में भी लगातार जुड़ी रही, जब मैं सर्जरी और उसके बाद के दर्द से दो-चार था. फिर कुछ-कुछ दिनों में फ़ोन पर हम बतियाते रहते थे. कविताओं को लेकर, साहित्यिक बातों को लेकर और रोज़मर्रा की कुछ बातों को लेकर भी. लघुकथा लेखन के दौर में उनके लिखे पर चर्चा होती थी. इसे लेकर वह बहुत गंभीर थे. कहते थे, ‘पता नहीं भावेश.. ये लेखन बहुत गंभीर है और जब तक कुछ बहुत-बहुत सार्थक और अलहदा न आये मन में.. अगली कोई लघुकथा भी न हो पाएगी. आगे कुछ निकला तो तुम्हें ज़रूर भेजूंगा.’ उनकी लघुकथाओं की धार एक आश्वस्ति बन रही थी साहित्य विश्व के लिए. मुझे पता नहीं कि उसका अंजाम क्या हुआ! क्या कोई प्रकाशन हो सका या नहीं?
उस के सुनने के लिए जमा हुआ है महशर
रह गया था जो फ़साना मिरी रुस्वाई का…
जब कोई मुझे ‘भावेश’ कहेगा, जब कोई टाइप संदेशों में डॉट्स लगाकर बात करेगा, जब कोई मेरी आलोचना करता हुआ भी चहेता लगेगा.. मोहन भाई मुझे शायद ऐसे भी याद आते रहेंगे. बग़ैर परवाह किये कि किसकी है, ख़राब कविता को ख़राब कह देना, ख़राब आलोचना को भी नकार देना, नाजायज़ पक्ष की बखिया उधेड़ देना… इन तमाम ऐबों के लिए मोहन भाई की याद मुझे हमेशा आती रहेगी. मुझे याद है, उन्होंने बताया था कि उनका बचपन कैसे बीता था. सिर पर ईंटें ढोकर जो जवान हुआ हो, उसके मन में ग़लत को ग़लत कहने का डर होता भी क्यों! वो पाखण्ड से लोहा लेता भी क्यों नहीं? कुल मिलाकर बात वही कि जंगलों को अंधेरा, चीखें और आंधियां डराती नहीं.
यूं भी कहना चाहता हूं कि बन्दा नहीं था वो, बन्दगी न उसका मक़सद थी, न मन्सब. नहीं, यानी वो ख़ुदा भी नहीं था. उसे ऐसा कोई भरम न था. ऐसे भरम पालने वालों को आईना और औक़ात दिखाने में उसकी कबीरी उभरकर आती थी. उन्हें किसी से ज़ाती द्वेष या बैर नहीं था, केवल मुद्दों को लेकर या ग़लत लिखे-कहे (उनकी नज़र में) की मुख़ालिफ़त उनका कैरेक्टर था.
उन्होंने मेरी भी दो चार रचनाओं को सिरे से ख़ारिज किया था. मैंने ग़ौर किया तो पाया कि उनका रवैया ठीक था. हम सोशल मीडिया दौर में सब्र खो चुके हैं और जो मन में आया, वह सब कुछ प्रकाशन या प्रचार योग्य समझने के षडयंत्र के शिकार. मोहन भाई ऐसे ख़तरों के लिए भी ज़रूरी रहे. उन्हें ग़ज़लों में मुझसे कुछ ‘नये और सार्थक’ प्रयोगों की अपेक्षा भी थी. अपने इस हमऐब के साथ रूहानी तौर पर हमेशा जुड़ा रहूंगा. कोशिश करता रहूंगा कि उनकी कुछ तमन्नाओं और उम्मीदों को किसी तरह निभा सकूं. वरना यहां से आज़ाद होकर जब उनके पास पहुंचूंगा, तो उनकी सोहबत मिलेगी. अपने जंगल की तनहाई से छुटकारा पाकर हम एक महफ़िल और आबाद करेंगे… हम क्या? मैं ही अपने जंगल से अनजान हूं. उनके तो शायद और भी हमऐब रहे हों! वो तो महफ़िल कर ही रहे होंगे, यारबाश आदमी जो थे.
सुक़ूं में अब रहो दिलशाद तुम, ये अच्छा है हुए आज़ाद तुम
चलो क़ैद-ए-हयात-ओ-मौत का भयानक वक़्त पूरा हो गया.