माँ कहते ही एक आंतरिक आनंद की हलचल से तन-मन रोमांचित हो उठता है।हम लिखते रहे हैं कि जब माँ की बात होती है तो सारी दुनिया एक तरफ होती है और दूसरी और सिर्फ माँ। वह सिर्फ औरत या देह ही नहीं ।
वह पूरी की पूरी एक पाठशाला होती है ।यह
संस्मरण माँ पर है पर संवेदनाओं को महसूस करने के लिये हमें पहले अपनी परिस्थितियों से अवगत कराना होगा। उम्मीद है अन्यथा न लेंगे ।

हम लोग माँ को बाई बोलते थे।कारण जो भी रहा हो।बड़ी मौसी को भी उनके बच्चे बाई ही बोलते थे।मौसिया जी अंग्रेजों के जमाने के डिप्टी कमिश्नर थे अतः घर में बहुत नौकर थे और वे सब मौसी को बाई ही कहते थे।शायद इसीलिए सुनकर हम लोग भी बाई ही बोलने लगे हों।
हम6वर्ष की उम्र तक बाई के साथ या कहें परिवार में रहे। पहली क्लास तक बस।
बाई का रंग गोरा था। ससुराल में सबसे सुंदर थीं।सौंदर्य सिर्फ शरीर का ही नहीं था ।संस्कारित, मर्यादित,मृदुभाषी और मितभाषी स्वभाव की स्वामिनी ।बहुत ही धीमे स्वर में बात करतीं । जोर से हँसना हो तो मुँह न पूरा खुले न आवाज निकले। चार बहन और दो भाइयों में सबसे छोटी ।नाना जी आर्यसमाजी और खुले विचारों वाले थे;पर वह समय पितृ सत्तात्मक दबावों में मर्यादित था या बँधा हुआ था भी कह सकते हैं।बड़ों के सामने या उनकी बराबरी से बैठना या उनसे बात करने की बात सोचना भी सख्त और कठोर अपराध की तरह था।पिताजी के सम्मुख तो हम ही नहीं हमारे सब भाई बहन भी ऐसे ही रहे।शायद इसीलिए बाई कभी खुलकर हँसना भी सीख नहीं पाईं। ससुराल में भी पहले संयुक्त परिवार में रहीं फिर अपने परिवार की तीसरी व सबसे छोटी बहू वही बंधन और दबाव एक भय की तरह साथ रहा। चौथी हिन्दी तक पढ़ी थीं । इतना पढ़ना भी उस समय के लिए बहुत अर्थपूर्ण था ,बाकी ससुराल में घर की कोई भी महिलाएँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं।बाद में पिताजी रायपुर और फिर वहाँ से सरायपाली आ गए।बर्तन की दुकान कर ली।

बाई नियम की बहुत पाबंद थीं और बच्चों के टाइम टेबल के मामले में बहुत सख्त।यह हम 4साल के हुए तब समझ पाए। उठने का सोने का,नाश्ता और खाना;टाइम फिक्स था।
सुबह जल्दी उठना ,सूर्य भगवान को प्रणाम करना यहाँ से टाइम-टेबल शुरु हम लोगों का।दोनों समय की आरती में हम लोग सम्मिलित रहते अनिवार्यता थी यह। धार्मिकता उनके रग- रग में व्याप्त थी और वह हम सब भाई बहनों में भी कब व्याप्त हो गई पता ही नहीं चला।पता ही नहीं लगता था कि किस दिन उपास नहीं रहता था बाई का ।कभी सुबह जागते ,सोते या आराम करते या खाना खाते हमने नहीं देखा बाई को।

हमसे पहले एक भाई होकर नहीं रहा था और बाद में एक बहन तो हम काफी लाड़ले रहे। पर बाई को हमने हमेशा काम करते ही देखा। कई बार पूछते भी कि आप सोती नहीं हो क्या तो हँस कर कहती- सोते हैं ( हमें याद है कि शादी के वक्त की हमारी समझाइश में सम्मिलित था कि बहू को सोते व जागते कोई न देखें यह याद रहे।) तब हम समझने लगे थे थोड़ा- थोड़ा ।उनके पास वक़्त ही नहीं होता था शायद खुद के लिये भी।
जीवन के उतार-चढ़ाव और व्यस्तता को महसूस करने की समझ बचपन के साथ- साथ परिपक्व होती गई,साथ ही यह भी समझते रहे कि लड़कियों को यही सब काम करना होता है जो बाई कर रही हैं ।उन्हें हमने जोर से हँसते कभी नहीं देखा और न ही कभी सिर पर बिना पल्लू के देखा।मृत्युपर्यन्त नहीं ।

पिताजी अधिकतर बाहर रहते। और बाई सब अकेले संभालतीं। पर जब तक पिताजी घर में रहते बाई उनके पास ही रहतीं ।बच्चे सब आखिरी कमरे में जिसका नाम लेकर बुलाया जाएगा वही दौड़कर एक क्षण की देरी किये बिना पिताजी के सामने जाकर ही “जी पिताजी?” कहता।यह नहीं कि वहीं से आवाज देकर पूछ लें कि क्या कह रहे हैं ?ना!रोटी तवे पर हो तो भले ही छोड़ कर भागना पड़े।
हम आस-पड़ौस में ज्यादा रहते।जब तीन साल के थे तब एक बहन और हुई ज्योत्सना।बस इतना ही याद है।सभी में 2साल का अंतर है पर हम बाई के किसी दुख में कभी, चाहे उनकी डिलेवरी का समय हो या भाई बहनों को संभालने की बात हो,किसी सुख-दुख में सहयोगी न बन पाए। 😔
पढ़ने में बहुत रुचि थी बाई-पिताजी की भी व हमारी भी।हमें इंटेलीजेंट कह सकते हैं उस उम्र में बहुत वाचाल पर वाचालता संतुलित व मर्यादित रही।बाजार से कुछ खाने की चीज नहीं आती थी सब घर में बनता।कोई चाॅइस पूछने का काम नहीं जो बना है वह खाना ही है।

एक बार खाना बन गया तो बाई ने कहा कि पिताजी को दुकान से बुला लाओ खाने के लिए। हम बुलाने गए तब पिताजी अपने मित्र बच्छू(काका जी )के होटल में किसी काम से बैठे हुए थे।जब हम वहाँ पहुँचे तो काकाजी ने हमें जलेबी दी खाने के लिए । हम ने मना कर दिया बहुत जिद करने लगे पिताजी ने कह दिया कि ले लो, तो हमने ले ली। दूसरे दिन फिर जब पिताजी को खाने के लिए बुलाने गए तो काका जी से कहा कि ,”जो चीज कल दी थी वह बहुत अच्छी थी, आज भी दे दीजिये।” पिताजी ने कहा,” चलो !घर में पहले ही रखी हुई है ।”और घर जाकर बाई को बताया कि हम दोबारा से जलेबी माँग रहे थे।बाई रोटी बना रही थीं ।और वह चूल्हे का जमाना था ।वही गर्म चिमटा बाई ने हाथ में लगा दिया था कभी कुछ न माँगने की हिदायत के साथ ।ऐसी सख्त थीं गलती के प्रति।
हमने पड़ोस के गुरुजी की कृपा से 5 साल की उम्र में पढ़ना पूरा सीख लिया था। और पिताजी रोज एक बाल कहानी की किताब लाकर देते। उस समय रामायण की कहानियाँ महाभारत की कहानियाँ, पंचतंत्र की कहानियाँ, जातक कथाएँ, यही सब ज्यादा चलती थीं।

पिताजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। उस समय लड़कियों को ज्यादा पढ़ाते नहीं थे हमारे समाज में लेकिन उनकी जिद थी कि वे अपनी बेटियों को पढ़ाएंगे। सरायपाली बहुत छोटा गाँव था।वहाँ लड़कियों के लिए पढ़ाई की उचित व्यवस्था नहीं थी तो उन्होंने अपने एक दोस्त को हमें गोद दे दिया।वे पिताजी के जिगरी दोस्त थे चांपा में। मूलतः पिताजी चांपा के ही थे और हमारा जन्म भी वहीं का है। शालिग्राम देवांगन कक्का जी।वे चीफ म्युनिसिपल सेक्रेटरी थे वहाँ ।उनके बच्चे नहीं हुए थे ।अतः उन्होंने हमें बहुत लाड़ से रखा ।कहानियों की किताब वहाँ भी मिलती रही। उस परिवार से हम इतना जुड़े थे कि घर से अलग होने का बहुत ज्यादा दुख नहीं हुआ शायद ।वैसे पिताजी के साथ तो ज्यादा बातचीत ही नहीं थी पर प्यार असीम! उनके अतिरिक्त किसी की ताकत न थी कि जोर से बोल भी दे हमसे।पर मर्यादाओं का बहुत कड़क बंधन उस काल की परंपरा थी जो हर घर में नजर आती। परीक्षा के समय ही वहाँ चेचक महामारी की तरह फैली वह भी बच्चे उसकी जद में मौत का शिकार बन रहे थे। जब हम सीरियस हुए तो कक्काजी ने इस डर से कि हमारे साथ कोई हादसा न हो जाए, हमें पिताजी के पास वापस छोड़ दिया ।तब हमारी चौथे नम्बर की बहन का जन्म हुआ था सन् 58 का जनवरी माह। वह समय बेहद बुरा गुजरा। फिर दूसरी क्लास ही दुबारा पढ़नी पड़ी परीज्क्षा न पाने के कारण, पर अब हम नागपुर में मामाजी के पास थे। दूसरी-तीसरी धीरन कन्या विद्यालय सीता बर्डी से की।फिर जुलाई 60से वनस्थली चले गए। पिताजी इस बीच बरगढ़ (उड़ीसा) शिफ्ट हो गए।

परिवार में 2माह की छुट्टियों में और पत्रों के माध्यम से बाई हमारी जिन्दगी को उम्र के अनुरूप सुदृढ़ और समझदार बनाने की समझाइश के साथ निरंतर प्रयासरत रहीं । बाहर रहने के कारण पिता की कठोर मर्यादाएँ ग्रीष्मकालीन ताप में बर्फ के मानिंद पिघल रही थीं।और उनका प्यार उनके हर क्रिया-कलाप में नजर आ रहा था।वे ज्यादा बोलते न थे पर हमारा आग्रह टालते भी न थे।हम पिताजी से खुल रहे थे।अब कभी-कभी लगता है की पिताजी बहुत प्यार करना चाहते तो थे पर पता नहीं क्यों ?शायद मर्यादा ही बाधा रही हो, कर नहीं पाते थे। न जाने क्या कुछ चलता रहा होगा उनके मन में।
उस समय उड़ीसा के चीफ मिनिस्टर बीजू पटनायक थे।हमें याद है, वे स्वयं के डकोटा हवाई जहाज से वनस्थली आए थे।तब उड़ीसा से हम दो बहने ही थे।हमें बुलवाया और मुलाकात की तो हमारी स्कॉलरशिप शुरू हो गई। पूरा खर्च उड़ीसा गवर्नमेंट उठाने लगी उस समय हम छठवीं क्लास में गए थे किंतु दूसरी के बाद हमारी छोटी बहन वनस्थली न पढ़ पाई। उसके बाद हर साल छुट्टियों में जाते हुए अपने घर की गिरती हुई आर्थिक स्थितियों को हमने महसूस किया ।खामोशी में भी बहुत ताकत होती है। बिना कहे भी कितना बोलना और समझना हो जाता है यह हम देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे। बाई कभी कुछ न कहतीं।

हमें याद नहीं कि हमने कभी भी बाई या पिताजी से अपने लिए कोई भी चीज माँगी हो या फिर पैसे ही माँगे हों। स्कॉलरशिप में इतने पैसे मिलते थे कि हॉस्टल के पूरे खर्च के अलावा आने-जाने का खर्च और इसके अलावा लगभग ढाई सौ रुपये हाथ खर्च के लिए भी हम लोगों को मिल जाते थे। सस्ते का वक्त था। स्टूडेंट कन्सेशन से आने जाने की टिकेट बनती। जयपुर टु आगरा टु नागपुर टु रायपुर ।इसी तरह जाने की। रायपुर से 6-घंटे बस का बरगढ़ का सफर। ट्रेन से 15 रु. जाने और 15 आने के।जाते समय हम कभी न रोते पर बस और ट्रेन में पिताजी से बचकर घर को बिदा करते आँसू बहा लेते खिड़की से बाहर देखते हुए। हमारे जीवन का आरंभ वक्त के समझौते के साथ ही शुरू हुआ और हमने कभी भी अपनी इच्छाओं को जन्म ही नहीं लेने दिया। जो मिला ,जितना मिला ,जैसा मिला, उसी के साथ हँसी- खुशी और संतोष के साथ आगे बढ़ते रहे।बड़े हुए और फर्स्ट इयर में पढते हुए बीच में ही शादी हो गई। यहाँ जिंदगी के पहले दृश्य का पहला पटाक्षेप हुआ।

न हम न बाई बिल्कुल नहीं चाहती थीं पर उनसे पूछना भी जरूरी नहीं समझा गया शायद।
हमारी शादी के 9 साल बाद ही पिताजी नहीं रहे सभी भाई बहन छोटे ही थे। बाई का संघर्ष अब और ज्यादा बढ़ गया ।उसके बाद हमने बाई को कभी भी चैन से जीते नहीं देखा। जाहिर है की बहनों ने भी बराबरी से उतना ही संघर्ष झेला और सिलाई करके जीवन यापन का साधन जुटाया।संयुक्त परिवार के बंधनों में जकड़े हुए हम उनके लिए तब भी कुछ नहीं कर पाए जैसे कि पहले नहीं कर पाए थे ।यह तकलीफ हमें आज भी कई बार बहुत पीड़ा देती है नासूर की तरह।
तीसरे नम्बर की बहन साधना का जीवन बहुत तपस्या का रहा और छोटी बहनें सहयोगी रहीं। छोटी दोनों बहनों की शादी के बाद साधना बाई और छोटे भाई को हमारे ससुर ने यहाँ होशंगाबाद ही बुला लिया।यहाँ पर साधना सिलाई का काम करती और मुन्ना ने राज्य परिवहन में कंडक्टर का काम शुरू किया।
और फिर साधना की भी शादी हो गई।
पिताजी ने तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के बावजूद सरकार से कोई भी मदद लेना उचित नहीं समझा पर आर्थिक तंगी के चलते बाई ने बहुत संघर्ष किया ।आगरा नागपुर ,ग्वालियर,सागर अकेले बार-बार जाकर लोगों से मिलीं और इस तरह से बाई को पेंशन मिलने लगी।

बाई के यहाँ रहने के बाद हम बाई के लिए थोड़ी बहुत काम से मदद कर देते थे ससुराल से समय चुराकर। बस इतना ही कर पाते थे क्योंकि साधना की शादी के बाद बाई अकेली हो गई थीं ।मुन्ना अक्सर ड्यूटी पर बाहर रहता ।इस बीच बाई बीमार भी रहने लगी थीं।संघर्ष की सीमाएँ ढलती उम्र का लिहाज नहीं करतीं और फिर छत्तीसगढ़ के अलग होने पर मुन्ना को वापस छत्तीसगढ़ भेज दिया गया।
जो बच्चा बचपन से ही माँ से दूर हो जाता है उसका साथ मिलने पर माँ को भी उतना ही सुकून मिलता है जितना बच्चे को ।प्रेम की प्रगाढ़ता एक नए रूप में ही दिखाई देती है। ऐसा लगता है कि एक दूसरे के लिए क्या न कर दें! वह सब कर दें जो जरूरत पर पहले नहीं कर पाए। बस यही प्रगाढ़ता हम दोनों को बहुत निकट ले आई।यह ममता और उसके प्रति प्रेम की अतिरंजित अव्यक्त अभिव्यक्ति की तरह था। बाई को थोड़ी सी भी तकलीफ होती तो बाई को लगता कि हम उनके सामने रहें। और हम भी इसी चिंता मे रहते।पर बाई और ज्यादा बीमार रहने लगी थीं। भाभी की मानसिक विक्षिप्तता से सारा घर त्रस्त था।दोनों बच्चे बहुत छोटे थे और मुन्ना की ड्यूटी दूसरे शहर राजिम में थी।बाई खुद विकलांग थी ।ऑपरेशन से उनका एक पैर छोटा हो गया था और वह वाकर से ही चल पाती थीं। वह समय वास्तव में बहुत कठिन रहा। बच्चे कहीं जा नहीं सकते थे ना भाभी किसी को आने देती थीं। और न ही खाना बनाती थीं । अपनी इच्छाओं के अनुरूप करतीं सब।बाद में सब ठीक हो गया ,भाभी के इलाज से पर बाई अब और अधिक बीमार रहने लगीं थीं कुछ उम्र का तकाजा कुछ सांसारिक संघर्ष क्योंकि ऑस्ट्रियोपोरोसिस के कारण उनकी हड्डियाँ बहुत कमजोर हो गई थीं ।एक पैर की पिंडली की हड्डी तो पलंग पर लेटे लेटे ही तीन जगह से टूट गई थी।वह बहुत ही दर्दनाक था ।उस समय होशंगाबाद से हमारा स्टूडेंट धीरज पाठक जो ऑर्थोपैडिक डाॅक्टर है यहाँ ,उसने हमारे कहने से फोन पर निर्देश दे देकर बाई को प्लास्टर और अन्य ट्रीटमेंट दिया। एक नर्स घर पर रखी। धीरज उससे बात करता व निर्देशित करता। इसी बीच अचानक जब बाई की ज्यादा खराब तबियत की खबर आई तो हम तत्काल रायपुर गए।
अब तो बाई को गुजरे ही चौथा साल चल रहा है पर

यह बात मृत्यु से शायद एक साल पहले की है ।जब हम पहुँचे तब बाई बहुत सीरियस थीं।हमने देखा -बाई बहुत कमजोर हो गई थीं, उनका खाना पीना लगभग छूट गया था , जीवन की उम्मीद कम होती दिखाई दे रही थी।बाई समझतीं पर बता नहीं पाती थीं अपनी तकलीफ । उनके लिए सारी व्यवस्थाएँ,मेडिकल सुविधाएँ घर में ही उपलब्ध करा दी गई थीं। आते ही हमने उन्हें कैथेटर लगवाया क्योंकि बाथरुम बहुत लगती थी उन्हें और बार-बार डाइपर बदलना पैरों को तकलीफ देता था। नाक में नली लगवाई जिससे उन्हें भोजन दिया जा सके।उन्हें दिखाई भी लगभग 5%ही देता था। बाई भाई के बिना बिलकुल नहीं रह पाती थीं । मुन्ना के सिवा तब शायद कुछ बोल भी नहीं पा रही थीं ।सुधार बहुत धीमी गति से पर नजर आ रहा था। हालांकि नाक की नली की उनकी तकलीफ हम लोगों के लिये भी पीड़ा का सबब थी।
वह तीजा की रात थी। रात के समय भाभी पूजा में थीं ।
सभी तन्मयता से बाई की सेवा करते थे।उनका सब काम सब करते थे।बच्चे भी लैट्रीन करवाने तक में घिन नहीं करते थे। काँच के सामान की तरह उन्हें संभालते। क्योंकि ऑस्ट्रियोपोरेसिस का खराब अनुभव ताजा था।
बाई पूरे समय भाई को ही पुकारतीं मुन्ना मुन्ना ।

तीजा की रात 10बजे से बाई लगातार भाई का नाम लेकर पुकारतीं रहीं और बदहवासों की तरह मुन्ना -मुन्ना कहती रहीं। हम बाई के पास थे ,हर संभव प्रयास किया हमने ,पूछा भी , कि क्या हो रहा है बाई ?पर न वो बता पाईं न हम समझ पाए।सारी रात हम सब जगे। कोई समझ ही नहीं पा रहा था।वह समय बहुत ही कठिन था। एक पल के लिये बाई चुप न हुईं । मुन्ना के पास रहने पर भी उनका निरंतर बदहवासों की तरह मुन्ना-मुन्ना बोलना बंद नहीं हुआ। सब तब देखा भी कि कुछ खड़ा वगैरह तो नहीं काट रहा पर फिर।भाई को सुला दिया 2 बजे क्यों कि ऑफिस जाना होता था उसे।सब जगते रहे और बाई शांत न हुईं ।

सुबह जब थोड़ा उजेला हुआ तब भतीजी ने यह देखना चाहा की दादीजी ने लैट्रीन तो नहीं की तब देखा कि अंदर कैथेटर के कारण उसकी नली से बहुत बारीक चीटियों का झुंड इकट्ठा हो गया था जिन्होंने काट काट कर बाथरूम की बाहर एक जगह घाव कर दिया था बल्ब की पीली लाइट में बार -बार देखने के बाद भी वो हमें नहीं दिखाई दीं थीं । यह सब देखकर हमारे होश उड़ गए।
तुरंत सब साफ कर दवा लगाई तब बाई सो पाईं । हम बहुत रोए। हमारे संरक्षण में हमारी माँ ने कितनी पीड़ा सही यह हमारे लिये सहन की सीमा से बाहर की बात थी।बाई को तो याद नहीं रहता था पर हम अपने को कभी माफ नहीं कर पाएंगे।वो जरा भी बीमार होतीं तीन बहने वहीं हैं पर हमें याद करतीं।
तकलीफ में अपने सामने हमीं को देखना चाहतीं।और हमारे सामने रहते यह सब हुआ।
आज भी यह प्रसंग धोखे से याद आने पर भी रुला देता है भुलाए से नहीं भूलता।😭😭😭😭😭😭😭😭😭😭

नीलिमा करैया का एक संस्मरण

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