देश की पहली महिला शिक्षिका होने के साथ ही सावित्रीबाई फुले ने ही देश में पहली बार स्त्रियों और शूद्रों के लिए शिक्षा की शुरुआत की थी. ‘मनुस्मृति’ में लिखा है- ‘नास्ति स्रिणां क्रिया मत्रेः इति धर्मे व्यवस्थिती’ (9-18), अर्थात स्त्रियों के लिए विवाहविधि ही उनका वैदिक अथवा उपनयन संस्कार है; स्त्रियों को गुरु के पास अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं है. पति सेवा ही उसका गुरुकुल निवास है और रसोई में गृहकार्य करना ही उसके लिए होमहवन हैं. इस तरह का विधान हजारों सालों से लागू रहने के कारण महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाजे उस समय तक बंद ही रहे थे. महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी जीवन संगीनी सावित्रीबाई फुले ने मिल कर 180 साल पहले ही अपनी कृतियों से ‘मनुस्मृति’ के खिलाफ सक्रिय रूप से बगावत की थी. वह भी पूना जैसे पेशवाई के सनातनियों के गढ़ में! यह हिंदू धर्म और समाज के भीतर जबरदस्त बदलाव की, सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी.
इसी कारण लिये सनातनियों की तरफ से रोजाना सावित्रीबाई फुले के ऊपर कीचड़-गोबर और कंकड़ों की बौछारो होती थी इसका परिचय मिलता है. उनके बीच से ही चल कर अपने स्कूल पहुँचने के बाद, गंदे कपड़े बदल कर पढ़ाने में जुट जाना! इससे पता चलता है कि वित्रीबाई किस मट्टी की बनी थी! आज किसी को छोटा-सा ताना मारने पर स्कूल छोड़ देने के उदाहरण मौजूद हैं और आज से कोई पौने दो सौ साल पहले राह चलती महिला पर खुराफाती लोग कीचड़ – गोबर फेंकने का काम रोज करते थे. शांत भाव से वह सब सह कर स्कूल जाने पढ़ाने की साधना कोई असाधारण ही कर सकता है! एक सावित्री के अपने पति के प्राण तक वापस लाने की कहानी हम बचपन से ही सुनते रहे हैं! सावित्रीबाई ने जिस निष्ठा के साथ महिलाओं और शूद्रों-पददलित लोगों के लिए शिक्षा की, उनको ज्ञान देने की शुरुआत की, वह आधुनिक युग की सावित्रीबाई फुले ही कर सकती थी!
आज हमारे देश की राष्ट्रपति- एक आदिवासी महिला को उस पद तक पहुंचा कर अगर सत्ताधारी दल, यह समझता है यह उसका कोई बड़ा कारनामा है, तो वह गलतफहमी में है, यह दावा गलत भी है. इसलिए कि जब डॉ बाबा साहब अंबेडकर ने संविधान सभा में पहली बार संविधान की घोषणा की थी, उसके तुरंत बाद उनकी मातृसंस्था- संघ- के संघप्रमुख श्माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कहा था कि इस संविधान में भारतीयता का कोई समावेश नही है! यह अन्य देशों के संविधानों नकल करने के बाद एक गुदड़ी जैसा संविधान है! हजारों वर्ष पूर्व ऋषि मनु द्वारा लिखित सविंधान के रहते हुए इसकी क्या जरूरत है? और उनके दल के कुछ पदाधिकारी अब भी उसे ‘मनुस्मृति’ का महिमामंडन करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमें महिलाओं को सिर्फ घर की चारदीवारी के अंदर रहने कहा गया है! इस कतजीत कथित ईश्वरीय विधान का उल्लंघन आज से करीब पौने दो सौ साल पहले वित्रीबाई फुले ने किया था स्त्रियों और शूद्रों के लिए स्कूलों की शुरुआत करके; और उन्हें संकीर्ण मनुवादी हिंदुओं की जुमलेबाजी से लेकर शारीरिक प्रताड़ना तक सहनई पड़ी थी. आज हमारे देश की माहीलाएं राष्ट्रपति पद से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में अपनी क्षमता सिद्ध कर रही है. स्त्रियों-शूद्रों की मुक्तिदात्रि सावित्रीबाई फुले की 194 वीं जयंतीपर विनम्र अभिवादन!
भारथ के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के प्रति संपूर्ण आदर करते हुए हम कहना चाहते हैं कि सही शिक्षक दिवस तो तीन जनवरी को ही मनाया जाना चाहिए. इसके लिए अलग से तर्क देने और बहस की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए. वह सब ऊपर लिख चुका हूं. वर्तमान सत्ताधारी दल का देश के शहरों से लेकर कई योजनाओं के नाम बदलने का एकमात्र कार्यक्रम जारी है! वर्तमान राष्ट्रपति महोदया एक आदिवासी विदुषी महिला हैं, इसलिए उन्हें अच्छी तरह से मालूम होगा कि वह इस पद तक कैसे पहुँची हैं. तो हम उनसे ही विनती करते हैं कि तीन जनवरी को ‘शिक्षक दिवस’ मनाये जाने की दिशा में पहल करें, सरकार और प्रधानमंत्री को यह सुझाव दें. हम उम्मीद करते हैं कि उनकी इस बात का लिहाज सरकार शायद करेगी. फुले दम्पत्ति के कार्यो की जानकारी अब तक भारत में सबों को मालूम नहीं है! जाति निर्मूलन से लेकर गलत रूढ़ियों के खिलाफ और सबसे महत्वपूर्ण बात शिक्षा से वंचित रखे गये स्त्रियों और शूद्रों के लिए स्कूलों की स्थापना! 1882 के पहले शिक्षा के लिए गठित हंटर कमिशन को शिक्षा के लिए विस्तृत निवेदन महात्मा फुले ने दिया था!
3 जनवरी 1831 दिन सातारा जिले के, खंडाला तहसील के, नायगाव गाँव में, सावित्रीबाई का जन्म हुआ. रउम्र के नौवें साल में ज्योतिबा फुले के साथ शादी हुई! और अगले ही वर्ष नॉर्मल स्कूल शिक्षक प्रशिक्षण 1845 – 47 के दौरान उन्होंने अपना शिक्षक प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 1 जनवरी 1848 के दिन, भारत के स्वतंत्रता के 99 साल पहले पूना के बुधवार पेठ में, भिडे वाडा नामक जगह पर लड़कियों के स्कूल की शुरुआत की. और खुद ही शिक्षिका की भूमिका में काम शुरू किया! उनकी पहली छह छात्राओं में 4 ब्राम्हण 1 धनगर (भेड – बकरी चराने वाले समाज से!) 1 मराठा!
पांच महीने के बाद, ज्योतिबा फुले ने 15 मई 1848 में ‘महारवाडा’ में (दलितों की बस्ती को मराठी में ‘महारवाडा’ कहा जाता है!) दूसरे स्कूल की स्थापना की. और उसी साल फुले पति-पत्नी और उनके सहयोगियों ने मिल कर पूना में स्त्रियों और शूद्रों के लिए ‘नेटिव फिमेल स्कूल्स’ नाम से शिक्षा संस्था की स्थापना की. इन सब गतिविधियों को देखते हुए गोविंदराव फुले (ज्योतिबा फुले के पिता) ने सनातनी लोगों के दबाव के कारण ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले को 1849 में घर से बाहर निकाल दिया! और सावित्रीबाई के मैकेवालो का भी यही रवैया था. तो ज्योतिबा के मित्र उस्मान शेख नाम ने अपने घर में पनाह देकर घर में ही उम्रदराज लोगों के लिए स्कूल खोलने की इजाजत दी. उनकी बहन फातिमा शेख ने, सावित्रीबाई के साथ पुणे मे चल रहे शिक्षा के काम में हाथ बटाने की शुरुआत की. पूना, सातारा, और अहमदनगर जिलों में भी स्कूल खोले. उनमें भी सावित्रीबाई फुले ने शिक्षिका की भूमिका निभायी!
1852 मेजर कॅंडी के अध्यक्षता में, अंग्रेज सरकार की तरफ से शिक्षा कार्य में विशेष योगदान के लिए अभिनंदन समारोह किया गया था, जिसमें 1852 को सावित्रीबाई फुले को आदर्श शिक्षिका का सम्मान दिया गया! 29 मई 1852 को ‘पूना ऑब्जर्वर’ नामक अखबार में लिखा गया है कि ‘सावित्रीबाई फुले के स्कूलों में सरकारी स्कूलों की तुलना में लड़कियों की संख्या दस गुना ज्यादा है. और इसकी मुख्य वजह वहां पर लड़कियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था, सरकारी स्कूलों की तुलना में श्रेष्ठ दर्जें की है!’
सावित्रीबाई कुल मिलाकर 66 साल और दो महीने की जिंदगी जी है, लेकिन जीवन का एक एक पल सार्वजनिक क्षेत्र के कामों में दिया! 28 नवंबर 1890 को ज्योतिबा की जीवन यात्रा समाप्त हुई, 63 साल छह महीने की उम्र में. और उनके जाने के बाद उनके दत्तक पुत्र यशवंत 1893 में मेट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सेना में डाॅक्टर की नौकरी में गया! तभी प्लेग का कहर शुरू हुआ, जिसमें यशवंत की पत्नी चल बसी! सावित्रीबाई प्लेग की बीमारी में में पूरी निष्ठा से सेवा का काम कर रही थीं. प्लेग से पिडीत एक दलित युवक को अपनी पीठ पर लादकर, इलाज के लिए ले गयी! फिर खुद प्लेग की शिकार होकर 10 मार्च 1897 के दिन अपनी जीवन यात्रा की समाप्त कर बैठी!
सही मायने में डी क्लास, डी कास्ट तथा डी – वुमेन युग-स्त्री सावित्रीबाई फुले की स्मृति को सहस्र वंदन! बाद में ज्योतिबा ने शुरू किये हुए हर काम को पूरा करने की कोशिश करती रही. ज्योतिबा के पहले स्मृति दिवस पर ओतूर अहमदनगर के पास) में खुद उपस्थित रही. उसी कार्यक्रम में महात्मा फुले का पहला चरित्र ‘अमरजीवन’ का को सार्वजनिक किया गया. सात नवंबर 1892 को उनके दूसरे कविता संग्रह ‘बावन्नकशि सुबोध रत्नाकर’ का प्रकाशन हुआ.
वह ‘सत्यशोधक परिषद’ की अध्यक्ष थीं, जब महिलाओं को घर से बाहर निकल ने की मनाही थी! किसी महिला द्वारा किसी सामजिक संस्था की अध्यक्षता का शायद यह पहला मौका होगा. महात्मा फुले के जाने के बाद ‘सत्यशोधक समाज’ के अधिवेशन में एक महिला को अध्यक्ष पद से विभूषित करने की घटना, आज से 131 साल पहले की है!
उधर बंगाल में भी पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने, आठ दस साल बाद 1856 – 57 के दौरान महिला शिक्षा की शुरुआत की. इसलिए पहली महिला शिक्षिका तथा महिलाओं के लिए शिक्षा की शुरुआत करने वाली सावित्रीबाई फुले ही हैं. इसलिए आज हम देश की राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मूर्मूजी से सावित्रीबाई फुले के 194 वें जन्मदिन के अवसर पर भारत में शिक्षक दिवस पांच सितंबर की जगह तीन जनवरी को ऐलान करने की विनम्र प्रार्थना कर रहे हैं!