यह बहुत अचंभे की बात है कि आपको अपने हक की लड़ाई लड़ने में 36 साल से ज्यादा समय लग जाए और न्याय के नाम पर ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो जाए. यूपी के रामपुर से ताल्लुक रखने वाली नूर सबा की कहानी कुछ ऐसी ही है. उनके पति की मृत्यु 1980 में हुई थी. उसके बाद से ही फंड और आश्रित कोटे से मिलने वाली नौकरी के लिए शुरू हुई लड़ाई आज भी जारी है. उनकी यह लड़ाई त्रासदी में इसलिए तब्दील हो गई क्योंकि रामपुर जिले से अल्पसंख्यक तबके के तीन नामी-गिरामी नेता ताल्लुक रखते हैं.
केंद्र में मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी, यूपी में समाजवादी पार्टी के अल्पसंख्यक चेहरे के रूप में मशहूर आजम खान और कभी यहां से सांसद रहीं बेगम नूर बानो. लेकिन दुखद यह है कि इन तीनों ने भी नूर सबा को उसी तरह अकेला छोड़ दिया जैसा कि सिस्टम ने छोड़ा हुआ है. दरअसल पूरा मामला कुछ यूं है कि 1980 में नूर सबा के पति मसूद उमर खां की मृत्यु हुई.
वे स्कूल में प्रधानाध्यापक थे. स्कूृल की तरफ से बेसिक शिक्षा अधिकारी को इस बात की जानकारी दे दी गई. अब बीएसए कार्यालय को कार्रवाई करनी थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वहां मौजूद अकाउंटेंट ने उनसे घूस मांगी. नूर सबा को फंड के साढ़े बारह लाख रुपये मिलने थे. अकाउंटेंट ने तीस प्रतिशत घूस के रूप में मांगे तो नूर सबा ने मना कर दिया. इससे गुस्साए अधिकारियों ने भी यह ठान लिया कि नूर को उनका हक नहीं मिलने दिया जाएगा.
इसके बाद सालों लड़ाई चलती रही और कई जालीदस्ता वेज भी तैयार तैयार करवा लिये गए. साल 2000 में जब गवर्नर के आदेश पर विजिलेंस की टीम ने छापा मारा तो असली और नकली दोनों ही फाइलें मिलीं. 1997 में नूर सबा ने हाईकोर्ट का रुख किया. लेकिन यहां भी बीएसए रामपुर की तरफ से ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत कर दिए गए कि नूर सबा को बाकायदा पेंशन मिल रही है. इसी तरह से जब राष्ट्रपति से नूर सबा ने गुहार लगाई तो जाली दस्तावेज का ही जवाब भिजवाया गया.
वहीं साल 2000 में शिक्षक वेलफेयर फंड से जारी पेंशन 2012 में बंद कर दी गई. इस राशि को ही पेंशन बताने की झूठी कवायद भी बेसिक शिक्षा विभाग की तरफ से की गई. नूर सबा के पुत्र आबिद बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में अभी तक बीएसए कार्यालय की तरफ से कई अलग अलग हलफनामे दाखिल किए गए. इन सब में पेंशन जारी करने की तिथियां भिन्न हैं. वे कहते हैं कि आखिर देश का सर्वोच्च न्यायालय कैसे एक ही विषय पर इतने अलग-अलग हलफनामों पर भरोसा कर सकता है.
वे हाईकोर्ट के जज पर भी आरोप लगाते हुए कहते हैं कि उन्होंने उनको और उनकी मां को बुलाकर उनके पक्ष में फैसला लिखने की बात कही. लेकिन इसके लिए उन्होंंने यह शर्त रखी कि उस एकाउंटेंट के खिलाफ हमें अपनी शिकायत वापस लेनी पड़ेगी. अगर हम ऐसा करते तो हमारी पूरी लड़ाई का आधार ही खत्म हो जाता. आखिर हम अपनी लड़ाई उसी एकाउंटेंट के खिलाफ लड़ रहे थे.
हमारे शिकायत वापस न लेने के कारण जज साहब ने कहा कि वह एक ऐसा फैसला सुनाएंगे जिसे आगे सुप्रीम कोर्ट भी नहीं काट पाएगा. उन्होंने एक अजीब सा निर्णय दिया जिसमें उन्होंने लिखा कि नूर सबा ऐसा कोई दस्तावेज दे पाने में असफल रहीं जिससे यह सिद्ध हो सके उनके पति स्कू ल में प्रिंसिपल थे. दूसरा उनके बेटे को आश्रित की जगह पर नौकरी मिल गई. इसके बाद आजिज आकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की.
वहां भी यूपी के तत्कालीन मुख्य सचिव ने फर्जी दस्तांवेज ही दिए. हमने इन सारे दस्तावेजों की जांच कराने की मांग की लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जजों ने इससे इंकार कर दिया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी नूर सबा के विपक्ष में ही आया. नूर सबा अपनी गुहार लेकर कई बार राष्ट्रीय महिला आयोग भी जा चुकी हैं लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. इसके अलावा वे पांच बार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में अपनी शिकायत दर्ज करा चुकी हैं.
हाल ही में जदयू सांसद अली अनवर ने राज्य सभा में नूर सबा के मामले को उठाया था जिसके जवाब में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने न्याय दिलाने की बात कही थी. इसके अलावा कई दूतावासों के जरिये उन्होंने अपनी तकलीफ विदेशों तक पहुंचाने की भी कोशिश की. अब नूर सबा अपनी परेशानी लेकर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास भी पहुंची हैं. उन्होंंने प्रधानमंत्री के पर्सनल सेक्रेटरी से मिलकर पीएम से मिलने का समय मांगा है. इसके अलावा वे समाजवादी पार्टी अध्यसक्ष मुलायम सिंह यादव घर के सामने भी धरना देने वाली हैं.
सवाल यह उठता है कि आखिरी हमने कैसे न्यायिक और सामाजिक तंत्र का विकास किया है जिसमें एक विधवा महिला को अपने हक की लड़ाई लड़ने में 36 साल लग जाते हैं. उसके बावजूद भी न्याय मिलने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है. अब नूर सबा प्रधानमंत्री से मिलने जा रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी मदद करनी चाहिए क्योंकि उनके साथ जो कुछ हुआ वह न्याय पर भरोसा उठने जैसा है. राज्य में सबसे बड़े अल्पसंख्यक चेहरे आजम खान को भी कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. इसका कारण यह है कि जिस रामपुर के वे रहने वाले हैं वहीं से नूर सबा का भी ताल्लुक है.
पूरे राज्य में तो आजम खान मुसलमानों की आवाज उठाते दिखते हैं लेकिन अपने ही जिले की एक ऐसी महिला को न्याय दिलवाने से कतरा रहे हैं, जिसने अपने जीवन के 36 साल न्याय पाने के लिए लगा दिये. नूर सबा खुद भी कहती हैं कि इस लड़ाई को लड़ने में मैंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है. 1980 में मुझे फंड के लगभग साढ़े बारह लाख रुपये मिलने थे वे अगर मिल गए होते आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उन्हें बैंक में फिक्स करने पर अभी करोड़ों रुपये में तब्दील हो चुके होते. लेकिन अब मुझे सिर्फ रुपये नहीं चाहिए उन लोगों के लिए सजा भी चाहिए जिन्होंेने मेरे साथ अन्याय किया है.