चरमराहट ध्यान से सुनिए और आगाह रहिए…
वर्ष 2017 के बारे में कुछ भी लिखें, देश के लिए शहीद होने वाले सैनिकों और देश की निकृष्ट नीतियों को धिक्कार कर आत्मोत्सर्ग चुनने वाले शहीद किसानों के प्रति श्रद्धांजलि के साथ ही बात शुरू होती है. बीते साल भारतवर्ष की 54 नामचीन हस्तियां गईं, जिनमें फिल्म अभिनेता ओमपुरी, शायर जसवंत राय शर्मा, अंतरिक्ष विज्ञानी यशपाल, समाजवादी नेता रवि राय, फिल्म अभिनेता शशि कपूर, मार्शल ऑफ दि एयरफोर्स अर्जन सिंह जैसी हस्तियों के नाम शामिल हैं.
ये सब श्रद्धा के पात्र हैं. 2017 में दो लायलपुरियों का जाना दुखद और दुर्लभ दोनों है. एक लायलपुरी लखनऊ का लाल था तो दूसरा दिल्ली का. फैसलाबाद पाकिस्तान के लायलपुर में पैदा हुए जसवंत राय शर्मा शेरो-शायरी और नग़मों की दुनिया के नायाब नक्श बने तो अर्जन सिंह जांबाजी के आसमान पर सवार भारतीय वायुसेना का खूबसूरत दबंग चेहरा. देश के बंटवारे के बाद जसवंत के पिता लखनऊ आ गए थे और अर्जन का परिवार दिल्ली. नक्श लायलपुरी और अर्जन सिंह की विकास-यात्रा की अपनी-अपनी गाथा है… एक की संघर्ष और जद्दोजहद से भरी तो दूसरे की शौर्य और बहादुरी से भरी…
वर्ष 2017 के घटनाक्रम को शब्दों की सीमा में बांधा नहीं जा सकता. अंग्रेजी में कहते हैं, ‘व्हिच कैन नॉट बी एक्सप्रेस्ड इन वर्ड्स, दैट मस्ट भी फेल्ट टु अंडरस्टैंड’… जिसे शब्द में बयान नहीं किया जा सकता, इसे महसूस कर समझा जा सकता है. देश के किसानों की पीड़ा शाब्दिक अभिव्यक्तियों से परे है, इसे केवल अनुभूत किया जा सकता है. सत्तर साल की आजादी में हमने अपने पालनहारों को रोते-सिसकते और मरते देखा है. जिस कृषक समुदाय ने हमें जिंदा रहने के लिए रोटियां खिलाईं, हमने बड़ी बेशर्मी से उन्हीं की जिंदगी पर सियासत की रोटियां सेंकीं. किसानों की लगातार हो रही आत्महत्याओं का गुस्सा महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान में आंदोलन के रूप में उभरा, लेकिन राजनीति के मीठे जहर ने इसे मौत के घाट उतार दिया. यह किसी अंतरंग के मरने जैसा ही दुख देता है. बिना किसी निर्णय के बीच रास्ते में ही किसान आंदोलन का दम तोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण है. आधा दर्जन राज्यों में जीत को उपलब्धियों में गिनने वाले सियासतदां ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान में किसान आंदोलन की आकस्मिक मौत के जिम्मेदार हैं.
वर्ष 2017 को याद करते हुए नोटबंदी के उत्तर-काल का भयावह दृश्य भूलता नहीं. सोमालिया या ऐसे ही किसी अफ्रीकी देश की बदहाली, बेरोजगारी, भुखमरी और बदहवासी का दृश्य दिखाने वाली रियलिस्टिक फिल्म की तरह देश का गुजरना हुआ. अपना ही नोट लेने के लिए लगी लंबी-लंबी कतारें और मारामारी, बंद होते तमाम छोटे-मध्यम कल-कारखाने, ठप्प पड़े निर्माण-कार्य, लेबर-चौकों पर रोजगार का इंतजार करते दिहाड़ी मजदूरों की भारी भीड़, दफ्तरों-कारखानों के आगे-पीछे चक्कर काटते शिक्षित अर्ध-शिक्षित बेरोजगारों के उदास चेहरे, धंधा बंद होता देखने को मजबूर छोटे व्यापारियों के हताश चेहरे, गांवों में 70 और सौ रुपए की सरकारी सहायता का चेक प्राप्त करने वाले हतप्रभ किसान और लागत मूल्य भी नहीं पाने पर अपनी फसलें बर्बाद करते किसानों की विवशता क्या किसी देश के विध्वंस का फिल्मांकन करने वाली भयावह ‘रियलिस्टिक’ फिल्म से कम है? ऐसी विद्रूप आर्थिक-सामाजिक हालत में जजिया-कर जैसा जीएसटी क्या क्रूर मुगलियत और अंग्रेजियत के ‘लगान’ की याद नहीं दिलाता? देशवासी क्या केवल कर देगा? इतने ढेर सारे कर और इसके बदले सुविधाएं कुछ नहीं? आय-कर, सेवा-कर, वस्तु-कर, स्वच्छता-कर, सम्पत्ति-कर, प्रत्यक्ष-कर, परोक्ष-कर, जल-कर, निगम-कर, रोड-कर, मनोरंजन-कर, स्टाम्प-कर, शिक्षा-कर, उपहार-कर, कृषि-कल्याण-कर, ढांचा-कर, प्रवेश-कर… यह कर, वह कर? वेतनभोगियों के वेतन-स्रोत से आयकर काटने के बाद भी इसे करों और प्रतिकरों की भूलभुलैया में उलझा कर रखा जाता है और दुहा जाता है. आखिर कितने कर वसूले जाएंगे हमसे आपसे? क्या आपको देश से ‘कर’कराहट की पीड़ाभरी आवाज सुनाई नहीं देती? यह देश के टूटने की चरमराहट की ध्वनि है, ध्यान से सुनिए और आगाह रहिए…
2017 सिखा गया, राजनीति में कुछ भी संभव
–सरोज सिंह
बिहार में 2017 का साल हमें इस पाठ के लिए हमेशा याद रहेगा कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है. सूबे की सत्ता पर काबिज महागठबंधन इस तरह और इतनी जल्दी ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा, इसकी कल्पना बड़े से बड़े राजनीतिक पंडित भी नहीं कर पाए. एक झटके में नीतीश कुमार ने महागठबंधन का दामन छोड़ एनडीए का दामन थाम लिया. महज 24 घंटे के अंदर लालू प्रसाद के हाथ से सत्ता छिटक गई और भाजपा-जदयू ने बिहार में अपनी पुरानी दोस्ती फिर से कायम कर ली. 2017 लालू प्रसाद के लिए न केवल सत्ता गंवाने का साल रहा, बल्कि बदलते घटनाक्रम में उनका पूरा परिवार ही कानून के घेरे में आ गया. पिछले साल शुरू हुआ यह सिलसिला नए साल में भी जारी है. इस साल नीतीश कुमार ने विकास समीक्षा यात्रा का श्रीगणेश कर यह संकेत दे दिया कि वे अगला चुनाव विकास के नाम पर ही लड़ेंगे.
जनता की पीड़ा पर सेना के मरहम का साल
-शफीक आलम
आखिरकार वर्ष 2017 बीत ही गया. 2016 का अंत और 2017 की शुरुआत बैंकों के आगे लम्बी-लम्बी कतारों से हुई थी. लोग अपने ही पैसों के लिए तरस गए. नोटबंदी ने मंदी का माहौल पैदा कर दिया. कंपनियों में ताले लगने लगे. शहरों से मजदूर अपने गांवों को लौटने लगे. कइयों को बेमतलब अपनी जान गंवानी पड़ी. जनता की पीड़ा पर सेना की पीड़ा का मरहम लगाया गया. लोग खामोश हो गए. अब नोटबंदी के परिणाम सबके सामने हैं. बहरहाल, खुदा-खुदा करके हालात सामान्य हुए. लम्बी लम्बी कतारों में खड़े लोगों ने अभी अपनी सांसें दुरुस्त की ही थी कि जीएसटी का घोड़ा दौड़ा दिया गया. इस घोड़े ने छोटे दुकानदारों और कारोबारियों को रौंदना शुरू कर दिया. देखते ही देखते एक बार फिर लोग सड़कों पर आ गए. सरकार को घोड़े की लगाम खींचनी पड़ी. 2017 में एक और नई बात देखने को मिली. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2014 से लेकर अब तक सबका साथ सबका विकास की बातें कर रहे थे. केवल बिहार में चुनाव के दौरान गाय और पाकिस्तान को चुनावी मैदान में लाकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश की गई थी, लेकिन इस बार गुजरात में इसी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का नज़ारा देखने को मिला, क्योंकि ऐसा लग रहा था कि गुजरात भाजपा के हाथों से निकलने वाला है. लिहाज़ा मुझे लगता है कि वर्ष 2018 में भी भाजपा और मोदी सरकार की साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें बरक़रार रहेंगी.
तेरे जुमलों की तरह 2017, तेरे वादों के जैसा न हो 2018
–शशि शेखर
कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए, कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए. कुछ यूं ही बीता 2017 और इसका भी अंदेशा डराता है कि कुछ यूं ही न बीत जाए 2018. इसलिए क्योंकि वादे जब जुमले बन जाए, तो वादों से भी भरोसा उठना लाजिमी है. 2014 में बहुमत की सरकार बनाने से पहले लाख आशंकाओं के बीच भी ये भरोसा पैदा हुआ था कि कुछ तो अलग होगा. लेकिन इतना अलग हो जाएगा, ये नहीं सोचा था. कहां तो देश के युवाओं ने नौकरी की लाइन में लगने की बात सोची थी, लेकिन सरकार ने बैंकों की लाइन में लगा दिया. बैंकों में खाता खुले तो जरूर, लेकिन इतना भी पैसा खाते में न रहा कि उस पर लगने वाला जुर्माना न लग सके. देश के लोगों को न्यूनतम वेतन तक न दे सकने वाली व्यवस्था में न्यूनतम बैलेंस न होने के नाम पर हजारों करोड़ रुपए सरकारी बैंकों द्वारा वसूले जाने लगे. कहां तो रूकना था किसानों पर अत्याचार, इसे भी कम नहीं कर पाई सरकार, उल्टे आत्महत्या में तेजी आने लगी. अस्पताल में बच्चें मर रहे थे और विदेशों में भारत का डंका बज रहा था. जीएसटी ने रही सही कसर पूरी कर दी. लेकिन भला हो हिन्दू-मुस्लमान, गाय-गोबर और पाकिस्तान का, जिसने भाजपा को लगातार जीत दिलाई.
आर्थिक नीतियों का प्रयोगकाल था 2017
–चंदन राय
2017 आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल का वर्ष रहा. नवंबर 2016 में देश की अर्थव्यवस्था से 86 फीसदी नकदी रद्द किए जाने का असर 2017 में भी दिखा. नोटबंदी और जीएसटी अर्थव्यवस्था के लिए कितना नुकसानदेह या फायदेमंद रहा, इसका आकलन तो कुछ वर्षों में होगा, लेकिन तात्कालिक रूप से इसने व्यापारियों की कमर तोड़ दी. जीएसटी की विभिन्न दरों के कारण वर्ष भर छोटे और बड़े दुकानदार उहापोह की स्थिति में रहे. सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण संगठित और असंगठित क्षेत्र से लाखों लोग बेरोजगार हुए. सरकार वर्ष भर नोटबंदी और जीएसटी को विभिन्न राज्यों में जीत के आधार पर सही ठहराती रही, तो विपक्ष उन नीतियों पर सरकार को घेरने में असफल रहा. 2017 में अल्पसंख्यकों पर हमले तेज हुए और उनमें भय का माहौल रहा.
कृषि, निर्माण और छोटे उद्यम जैसे रोजगार निर्माण क्षेत्रों की स्थिति भी खराब रही. साल 2017 किसान आंदोलन का भी वर्ष रहा. सरकार कर्जमाफी और किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वादों पर फिलहाल खरी नहीं उतरी है. कुल मिलाकर, साल 2017 आर्थिक नीतियों का प्रयोगकाल था, जिसका असर आगामी 2018 पर भी दिखना तय है.
अतीत भविष्य का संकेत होता है
-वसीम अहमद
2017में नोटबंदी और जीएसटी ने जनता की कमर तोड़ दी. गौरक्षा लव जेहाद जैसे मुद्दों ने भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को नुकसान पहुंचाया. एक केंद्रीय मंत्री ने कहा कि वे कानून बदलने के लिए ही आए हैं और उनकी पार्टी को कानून में सेकुलरज्मि पंसद नहीं है. ये इस ओर इशारा करते हैं कि देश धीरे-धीरे लोकतंत्र से हिन्दुत्व की तरफ बढ़ रहा है. कांग्रेस के नरम हिन्दुत्व वाली नीति ने इस साल भगवा रंग को मजबूत होने का मौका दिया, जिसका असर क्रिसमस के बहाने ईसाइयों पर और गौरक्षा व लव जेहाद के नाम पर मुसलमानों पर निशाना साधने के रूप में सामने आया. लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी अपना लोकतांत्रिक किरदार अदा करने में नाकाम रहा.
बीते साल के अनुभव से यह बात कही जा सकती है कि सत्ताधारी पक्ष हिन्दुत्व को फैलाने के लिए 2018 में जबरदस्त मेहनत और जालसाजी करेगा और विपक्षी कांग्रेस नरम हिन्दुत्व के द्वारा इसका मुकाबला करने में नाकाम रहेगी. कांग्रेसी नेता शशि थरूर खुद इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि भाजपा के सख्त हिन्दुत्व का मुकाबला नरम हिन्दुत्व से नहीं किया जा सकता है. बहरहाल, 2017 का यह अनुभव इशारा करता है कि 2018 सख्त हिन्दुत्व वाली विचारधारा के लिए उपयुक्त और अल्पसंख्यकों के लिए एक मुश्किल साल होगा.
बीते साल की विरासत
-शाहिद नईम
बीता समय आने वाले समय को अपनी कुछ न कुछ विरासत जरूर सौंपता है. इसलिए नए साल का स्वागत करते हुए हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि बीते साल ने देश को क्या सौंपा है. 2017 को 2016 में हुई नोटबंदी का प्रभाव विरासत में मिला था, जो देश और राष्ट्र पर पूरे साल हावी रहा. उसकी वजह से 2017 कारोबारियों खास तौर से छोटे कारोबारियों के लिए मुश्किल भरा साल रहा. इससे मजदूरों की आजीविका पर भी संकट खड़ा हो गया. पहले से ही सरकार की उपेक्षा झेल रहे किसान और बदहाल हुए और देश की अर्थव्यवस्था नीचे उतरी. ऐसे हालातों से ध्यान हटाने के लिए सरकार हिन्दुत्व का कार्ड खेलती रही और मुसलमानों में खौफ व दहशत के साए गहरे होते गए. कभी लव जिहाद के नाम पर, कभी बीफ के नाम पर तो कभी गाय के नाम पर यहां तक कि तीन तलाक के नाम पर भी मुसलमानों को तंग किया जाता रहा. मुस्लिम गौ पालक तक गौ रक्षकों की भीड़ हिंसा के शिकार हुए. जिसने इसके खिलाफ आवाज उठाई, उसकी देशभक्ति पर सवाल खड़े किए गए. मीडिया पूरी तरह सरकार की कसीदा खानी में लगा रहा.
21वीं सदी का सियासी साल
–निरंजन मिश्रा
उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनावी शोर के साथ शुरू हुआ 2017 गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणामों के सियासी विश्लेषण के साथ खत्म हुआ. चुनावी शोर थमने के बाद चर्चा में आया ‘बाहुबली’ और लोगों को इस सवाल का जवाब मिला कि ‘कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा.’ एक और फिल्म इस पूरे साल चर्चा में रही, लेकिन विरोधों के बवंडर में उलझी ‘पद्मावती’ परदे पर नहीं उतर सकी और इसने भी सियासी स्वरूप अख्तियार कर लिया. ऐसे कई अन्य मुद्दे भी इस साल सामने आए, जिनका गंतव्य अंतत: सियासत ही साबित हुई. बात चाहे डोकलाम विवाद की हो, गुरमीत राम रहिम को हुई सजा की, टूजी मामले के आरोपियों को बरी किए जाने की, अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू होने की या फिर एक बार में तीन तलाक को गैरकानूनी करार दिए जाने की, इन सभी मुद्दों पर खूब सियासत हुई. मिस वर्ल्ड मानूषी छिल्लर और विराट-अनुष्का की शादी भी इस साल सुखिर्यां बनीं. इसरो ने एक साथ 104 सैटेलाइट छोड़ कर इस साल एक ऐतिहासिक मुकाम हासिल किया. लेकिन कुल मिलाकर, 2017 को 21 वीं सदी के एक सियासी साल के रूप में ही याद किया जाएगा.