हमारे देश के आदरणीय प्रधानमंत्री एक बात बार बार कह रहे हैं और इन दिनों जिस संस्था में जाते हैं उसमे कह रहे हैं,आपदा को अवसर बनाना चाहिए और उनका मानना है की भारत हर आपदा को अवसर में बदलने की क्षमता रखता है| जिस अवसर का वो ज़िक्र कर रहे हैं,उसमे एक उनका कहना है की जितनी भी समस्याएँ हैं उनका हल लोगों को निकलना होगा और आत्मनिर्भर होना पड़ेगा| आत्मनिर्भर होने का मतलब होता है की हम किसी का मुहँ न देखें विशेषकर सरकार का, हम अपनी रोटी का, रोज़ी का, पढ़ाई का, इंफ्रास्ट्रक्चर का खुद इंतज़ाम करें|
चाहें तो समस्याओं की सूचि बनालें,जिस सूची में देश की समस्याएं एक तरफ़ हों,विदेश की समस्याएं एक तरफ हों और हमारे गाँव को,हमारे घर की समस्याएं एक तरफ़ हों| उन सारी समस्याओं की सूची बनाकर हम ये तय करें की हम इनमे से कौन सी समस्या हल कर सकते हैं|
दरअसल हमारा सारा अध्यन,हमारा सारा अबतक का सिखाया हुआ, हमारे सामने एक प्रश्नवाचक चिन्ह बन गया है| प्रश्नवाचक चिन्ह इसलिए बन गया है क्यूंकि पिछले 70 सालों में,विशेषकर पिछले 7 सालों में हम ये सोच रहे थे,ये हमे बताया जा रहा था की हमारे देश में संसाधनों की कमी है,जिनकी पूर्ती हम विदेश से सहायता माँग कर करेंगे और हिन्दुस्तान को हम कुछ नई योजनाओं से लोगों की ज़िन्दगी को बदलने की कोशिश करेंगे जिसमें सरकार का एक बड़ा रोल होगा| सरकार ने हमें कहा था की आप ‘मेक इन इंडिया’ करो,सरकार ने कहा था आप ‘स्किल इंडिया’ करो,सरकार ने कहा था की आप उन्हें समर्थन दो,वो इस देश की हर चीज़ को जो पिछले 70 साल में खराब हुई है उसे चमका देंगे,उसे एक नया स्वरुप देंगे और अब अचानक वो साड़ी चीज़ें ख़त्म हो गईं| अब हमसे कहा गया की आप साधन भी लेकर आएँ, आप तकनीक भी लेकर आएँ और आप आत्मनिर्भर बनें| आत्मनिर्भरता की शरुआत कहाँ से हो ये भी सरकार हमें सलाह नहीं देगी, इसका भी तोड़ हमें ही निकालना होगा| अब वो तोड़ दिल्ली,मुंबई जैसे शहरों में रहने वाले लोग हों या किसी छोटे या बड़े महानगर में रहने वाले लोग हों या गाँव में रहने वाले लोग हों | अब उनकी कुशलता पर,उनकी होशियारी पर निर्भर करता है की वो अपनी शरुआत केसे करें|
बहरहाल, बीमारी का मुक़ाबला करने में भी सरकार अब साथ नहीं देगी, बीमारी का मुक़ाबला भी अब हमको अपने घर को ही अस्पताल में बदलकर करना पड़ेगा और डॉक्टर से हम सलाह मागेंगे तो डॉक्टर हमसे 1 लाख से 9 लाख तक रुपए लेगा,तब वो साधारण गोलियां हमको लिखकर देगा या टेस्ट करने के लिए लिखकर देगा| अब हमें जो भी करना है अपने आप करना है| आपको लग रहा है मैं ये व्यंग में कह रहा हूँ, ये व्यंग नहीं है ये दर्द है,दर्द इसलिए है की हमने अब तक ये माना था और यही शुरू से लेकर हमें नागरिकशास्त्र में पढ़ाया गया था, राजनीति में हमने समझा था और जिसका वायदा जवाहरलाल नेहरु से लेकर अटल बिहारी वाजपयी ने किया था, की आप जब भी परेशानी में होंगें सरकार आपके दरवाज़े पर खड़ी होगी, आपको जब भी मदद की ज़रुरत होगी सरकार आपके दाएँ-बाएँ आपको दिखाई देगी| इसलिए जहाँ कहीं भुख की स्तिथि होती थी या अन्न कम बचता था, हम सरकार से अपेक्षा करते थे की सरकार वहां पर चाहे वो प्राकर्तिक आपदा हो या मानव निर्मित गलती की आपदा हो उसमे सरकार साथ देगी,लेकिन अब ऐसा नहीं होगा सन 90 से पहले सरकार ये कहती थी की हम तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए जो साधन मुहैया कराने हैं उसकी ज़िम्मेदारी हम लेते हैं| लेकिन सन 90 के बाद बाज़ार आधारित अर्थव्यस्था ने ये कह दिया की हम किसी के लिए कुछ नहीं करेंगे, जो इसमें अपना हिस्सा ले सकता है लेले| भारत की अर्थव्यस्था,भारत की सामाजिक व्यस्था, भारत का टूटा हुआ साहस, बिना सरकारी सहायता के,जिस सरकार को देश के लोग अपनी मदद के लिए चुनते हैं, देश को खुशहाल बनाने के लिए चुनते हैं,वहां से उसके लिए मदद आएगी पर अब ऐसा लगता है की ये सारी बातें अबकपोल कल्पना के रूप में बदल गईं है, अब सिर्फ़ सोचने के लिए हैं, सरकार कोई मदद नहीं करेगी|
सरकार मदद कहाँ से करती है,सरकार देश में पैदा उत्पादन के ऊपर लगे टेक्स से या जो भी व्यक्तियागत कमाई होती है,देश की कमाई होती है उस पर लगे टेक्स से जनता के लिए साधन मुहैया कराती है| सरकार विदेशों से या विदेशी बैंकों से उधार लेती है और उस उधार से वो नई-नई योजनायें बहन्ती है जिससे देश में उत्पादन बड़े और सरकार उस क़र्ज़ को वापिस कर सके| इस मोटे बुनियादी सिद्धांत के साथ एक तीसरी चीज़ और थी की सरकार भी कुछ काम करती थी क्यूंकि जब बैंक व्यक्तिगत हाथों में थे,राष्ट्रियक्र्त नहीं थे,तब बैंकों का सारा पैसा बड़े उद्योगपतियों के लिए इस्तेमाल होता था,गरीबों के लिए कम होता था और जब बैंक राष्ट्रियक्रत हुए उसके बाद बैंकों ने जिन्हें हम सामान्य आदमी कहते हैं उन्हें लोन देना शुरू किया उनकी मदद में आगे आए जिसकी वजह से देश इतना आगे बड़ा| लेकिन अब फिर बैंक निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं,बैंक कम किए जा रहे हैं| इसका अगर परिणाम ये निकलना है की देश के आम आदमी को बैंक सहायता नहीं देंगे तो वो कौन सा उद्योग है जो बिना सहयता के,बिना पूँजी के चल सकता है| ये सरकार से जुड़े अर्थशास्त्री बता सकते हैं,मेरे जैसे साधारण आदमी तो समझ ही नहीं सकते| दूसरी तरफ़ सरकार एक काम और करती थी की उसकी अपनी काफ़ी संस्थाएं थीं, जो संस्थाएं काम करती थीं जिन्हें हम पब्लिक सेक्टर यूनिट कहते हैं| वो जो कमाती थी उस कमाई का भी हिस्सा देश के विकास में लगता था| लेकिन अब मौजूदा सरकार ने ये तय किया है उन संस्थाओं की कोई ज़रुरत नहीं है,इसलिए उसने इन पब्लिक यूनिट सेक्टर्स को जिन्हें भारत की शान कहा जाता था,उन सबको बेचने का निर्णय लिया और उनमे से एक बड़ी संख्या में अब तक 23 कंपनियां बेच दी, जो बचीं हैं वो भी नीलामी पर लगी हैं की उनके लिए अगर इस देश का कोई उद्योगपति या उस उद्योगपति के पीछे खड़ा कोई विदेशी ताक़तवर पैसेवाला सामने आता है तो बची हुई संस्थाएं भी बेच दी जाएँगी| एयर सेक्टर बिक गया है, हमारा नेशनल करियर एयर इंडिया बिकने वाला है जिसके लिए ख़रीदार की तलाश चल रही है| सारी तेल कंपनिया बिक गईं है, जो बची हैं उन्हें बेचने की योजना चल रही है की कितने में बेचा जाए| स्टील की SAIL ( steel authority of india) जान बूझ कर घाटे में डाल दी गई है ताकि वो भी प्राइवेट हाथों में चली जाये| संचार जो किसी भी देश की जीवन प्रणाली होती है, उस संचार व्यस्था को चलाने वाली कंपनिया भी sick गईं हैं और बेचीं जा रही हैं और इन सबका फ़ायदा निजी हाथों को हो रहा है|
हम बार-बार ये जानना चाहते हैं की बिना साधनों के वैश्विक अर्थव्यस्था में देश आत्मनिर्भर केसे हो सकता है|उसका कोई रोड मेप भारत सरकार के पास हो तो देश की जनता को बताना चाहिए, क्यूंकि वो नहीं बताएँगे तो वो देश की जनता को एक ऐसी भ्रम की स्थिति में लाकर खड़ा कर देंगे जहाँ सिवाय अशांति के, भ्रम के,अफवाहों के, जो फिर ग्रह युद्ध की शक्ल में हो सकता है, जाने अनजाने पहुँच सकता है,पहुँच जायेंगे| अगर भारत सरकार लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के तरीक़ों की भी सलाह नहीं देगी तो हम फिर ये मान लें की हम आदर्श स्तिथि में पहुचने जा रहे हैं जहाँ पर सरकार की ज़रुरत ख़त्म होती है और जनता अपनी ज़रूरतों का निर्माण खुद करती है या थोड़े दिनों में ये माँग उठने लगेगी की जो लोकतंत्र है जहाँ पर लोग सवाल पूछते हैं,जहाँ लोग अपना हिस्सा चाहते हैं,अधिकार चाहते हैं, इसे समाप्त करके एक ऐसे राजनितिक व्यस्था में बदलना चाहिए जहाँ लोग जीने लायक भोजन की अपेक्षा करें और उससे ज्यादा की अपेक्षा न करें| ये एक नया वैश्विक,आर्थिक सामंजस्य बनाने की कोशिश कौन लोग कर रहे हैं, इसका क्या परिणाम निकलेगा, क्या इसके बारे में लोग बिने सोचे हुए इसे अपना लेंगे ? क्या मन जा रहा है मैं इसे नहीं जानता ?
ये छोटा सा संदेह मैंने इसलिए पैदा किया क्यूंकि हमारे देश की पूरी राजनितिक, प्रशसनिक और अर्थव्यस्था जुलाई और अगस्त में कैसी होगी इसे सोचते हुए डर लगता है| लोगों के पास घर में केश ख़त्म हो चूका है, ख़ासकर माध्यम वर्ग के और वो एक बड़े तनाव में जी रहे हैं की वो केसे इस संकट की घडी में सरवाइव कर सकें| इस संकट की घड़ी में वो केसे उत्पादन कर सकें, ज्यादातर मध्यमवर्ग इस देश का नौकरीपेशा है, उसे अब तन्खाएँ नहीं मिल रही हैं,कम मिल रही हैं और लोगों के पास नौकरी जाने का डर पैदा हो गया है| एक विशेष सर्किल है,मालिक कहता है मेरे पास पैसे नहीं हैं देने को और वो कहता है की बिना पैसे के हम जियें केसे,इसमें से क्या निकलेगा ये सोच कर डर लगता है,ये सवाल इसलिए आवश्यक है क्यूंकि अब कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में सरकार साथ नहीं है| एक अजीब स्तिथि पैदा हो गई है इलाज भी हम कराएँ,अपनी लाशों को भी हम जलाएं और बहुत सारी जगहों पर तो हमें पता भी न चले की जो लाशें है वो कोरोना की वजह से हैं या सामान्य बीमारी की वजह से हैं, इसलिए बहुत सारे लोग लाशें उठा नहीं रहे हैं कि उसमे जो पैसा खर्च होगा वो पैसा भी वो कहाँ से देंगे|
देश की इस अर्थव्यस्था में जब वित्तमंत्री ये कहें की अभी हमें और भी कुछ बेचना है जो भी हमारे पास है वो बेचकर हम पैसा लायेंगे,वो पैसा किसके लिए लायेंगे, इस देश की जनता के लिए तो पैसा आ नहीं रहा है| जनता को कहीं कुछ मिला नहीं, जनता को तो आंकड़े मिलते हैं, जनता को तो जुमले मिलते हैं|
ये सवाल में सिर्फ़ इसलिए उठा रहा हूँ की इन सवालों के आगे, सवालों के जंगल हैं जहाँ उत्तर कहीं नज़र नहीं आते और अगर उत्तर तलाशने में सरकार विफल रहती है तो फिर सरकार का कितना सार्घर्भिता,सरकार का कितना रेलिवेंस बचता है, ये सवाल खड़ा होने लगेगा| आदर्श स्तिथि तो यही होती की आज सरकार पूरी तरह से जनता के सामने इस दावे के साथ कड़ी होती की आपको चिंता की ज़रुरत नहीं है, हमारे पास एक सक्षम प्रधानमंत्री है,एक सक्षम टीम है, सक्षम दिमाग़ है जो हमे इस मुसीबत से बहार निकाल कर ले आएगा| लेकिन ये भाषा हमे नहीं मिल रही है,हमें तो ये भाषा सुनने को मिल रही है की अब आप जो करें अपने आप करें| पिछले 6-7 साल हम दुनिया से हम दूसरी भाषा में बात करते रहे और दुनिया से हम अपने देश में धन इसलिए लाने के लिए घुमते रहे की हम नए सिरे से अर्थव्यस्था को को सँवार सकें| लेकिन कोई हमारे यहाँ आया नहीं, इसके बावजूद हम कहते रहे की हमारे पास बहुत FDI आई| हम लगातार ये कहते रहे की हमारे देश के लोग उन सारी योजनाओं को अपना चुके हैं जिनका वादा सरकार ने किया था, लेकिन आज कहा जा रहा है की उन योजनाओं का कोई मतलब ही नहीं है| न अध्यन से कहीं कुछ मिल रहा है, न रिसर्च से मिल रहा है, न कोई अखबार या टेलीविज़न बता रहे हैं की हम आखिर अर्थव्यस्था में खड़े कहाँ हैं| हम आत्मनिर्भरता की तरफ बड़ें तो कैसे बड़े और इस देश के 70 प्रतिशत के पास जिसके पास पहनने के कपड़े नहीं हैं,अब खाने के लिए अनाज भी नहीं है| सरकारी संस्थाएं उसके साथ ऐसा व्यवहार करती हैं जैसे वो ग़ुलाम हो,बंधुआ हो,उस मानसिक स्तिथि में हम आत्मनिर्भरता की तरफ़ कैसे बड़ें ? ये सवाल तो दिमाग में उठता है और अगर सवाल उठता है तो सवाल किस्से पूछें? सवाल सरकार से पूछने का समय चला गया अब, क्यूंकि सरकार से सवाल पूछेंगे तो सरकार से जुडी राजनितिक पार्टि से संवेदना रखने वाले इतनी जगहे उस सवाल पूछने वाले के खिलाफ मुक़दमे लिखाएंगे की वो परेशान होकर सवाल पूछने से तौबा कर लेगा | इसलिए सवाल देश से पूछना चाहिए और उन लोगों से पूछना चाहिए जो आत्मनिर्भर नहीं हैं और जिन्हें आत्मनिर्भर होना है| अच्छा है लोग सोशल मीडिया पर आपस में ये बात करें कि आत्मनिर्भरता का मतलब उन्होंने क्या समझा है, वो दूसरों को केसे समझायेंगे और आत्मनिर्भरता का रास्ता केसे होगा और उसकी की शुरुआत कैसे करेंगे|
ये अति आवश्यक है क्यूंकि दुनिया में सिर्फ़ हमारे यहाँ ही आत्मनिर्भरता का नारा दिया गया है, दुनिया के बाक़ी देशों ने छोटा हो या बड़ा हो चाहे अफ़्रीकी देश हों अभी तक आत्मनिर्भरता का नारा नहीं आया है और ये हर्ष का विषय है की बहुत सारी बातों में हमने बढ़त ली है आत्मनिर्भर देश के लोग बने हैं,इसमें भी हमारे देश के लोगों ने बढ़त ली है,इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है|
संतोष भारतीय
प्रधान संपादक चौथी दुनिया