साहब टेंशन में हैं. साहब का टेंशन में होना कोई मामूली बात नहीं है. साहब कोई मामूली हस्ती नहीं हैं. अफसरों के अफसर हैं. देश सेवा की बलवती इच्छा के कारण इस पिछड़े इलाके में आए हैं, कुछ पेटियां देकर और खोखा भर कमाने का प्रण लेकर. उनके तार सीधे राजधानी से जुड़े हैं. रोब-दाब ऐसा कि डरकर मुर्दे भी खड़े हो जाएं. लोग उनके आदेश के लिए हाथ बांधे खड़े रहते हैं. उनके बैठे बिना कोई भी बैठने की जुर्रत नहीं कर पाता.
फिर उनके पालतू श्वान प्यारे टॉमी के कान खड़े क्यों नहीं हैं? कल तक तो अच्छे-भले खड़े हुआ करते थे. आज कान खड़े क्यों नहीं कर रहा है? साहब चिंतित हैं. उनकी फैमिली चिंतित है. प्रकृति में भले ही बसंत आ गया हो, किंतु उनके लिए तो पतझड़ छा गया है. साहब के सभी अधीनस्थ भी टेंशन में हैं. साहब टेंशन में हों तो उनके मातहत टेंशन फ्री कैसे रह सकते हैं? साहब के दुख ने सबके कान खड़े कर दिए.
उनमें होड़ लगी है कि कौन टॉमी के कान पुनः खड़े करवाने में सफल होकर साहब की नजरों में चढ़ता है. सभी अपनी योग्यता सिद्ध करने में जुटे हैं. टॉमी ने उन्हें एक अवसर प्रदान किया है. सभी एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं. सभी साहब की गुड बुक में आना चाहते हैं.
साहब जिस ऑफिस में जाते हैं, उस ऑफिस के कान खड़े हो जाते हैं. सभी दोपाए उनके सम्मान में सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते है. मानो राष्ट्रध्वज को सम्मान दे रहे हों. कोई भी विश्राम की मुद्रा में नहीं रह पाता. साहब की खुशी ही उनकी खुशी होती है. साहब को जो मुद्रा पसंद हो, वे उसी मुद्रा को धारण कर लेते हैं और यह तुच्छ श्वान साहब की खुशी के लिए अपने कान भी खड़े नहीं कर सकता. धिक्कार है.
कोई दोपाया होता तो साहब उसकी खाट खड़ी कर चुके होते. लेकिन वे इस चौपाए के आगे विवश हैं. उसकी हिमाकत के आगे नतमस्तक हैं. क्या करें वे इसे छोड़ भी तो नहीं सकते. जब टॉमी उनके तलवे चाटता है, तो उन्हें बहुत सुकून मिलता है. लगता है, वे राजा हैं और रियाया उनके पैरों पर अपना माथा टेक रही है. रियाया के माथे का स्पर्श पाकर उनके चरणों को अवर्णनीय सुख मिलता है. यह सुख किसी मामूली आदमी को नहीं मिलता. तलवे चटवाए बिना उन्हें चैन नहीं मिलता. उन्हें इसकी लत हो गई है.
कान से साहब का सम्बन्ध विधार्थी जीवन से ही है. उन्हें याद है, जब वे स्कूल में पढ़ते थे, तब गुरुजी उनके कान मरोड़ा करते थे. खैर! अब तो वह स्वस्थ परंपरा लुप्त-सी हो गई है. इसी कान मरोड़ने की बदौलत उनका गणित बहुत स्ट्रॉन्ग है. जब भी वे दौरे पर निकलते हैं, तो किसी स्कूल में जरूर जाते हैं. बच्चों से सत्रह, उन्नीस, सत्ताईस और उनतीस का पहाड़ा जरूर पूछते हैं. यदि बच्चों को पहाड़ा नहीं आता है, तो वे गुरुजी का कान पकड़कर मरोड़ देते हैं. इस तरह वे गुरुजी को उनकी औकात बता देते हैं.
जता देते हैं कि अब कान मरोड़ने का नंबर मेरा है. वो गुरु धन्य हैं, जिन्होंने उन्हें गुरु के भी कान मरोड़ने लायक बनाया है. ऐसे समय बेचारे गुरुवर बिना चू-चपड़ के तकलीफ सहते रहते हैं. जिस क्षण साहब कान छोड़ते हैं, उसी क्षण वे अपनी नौकरी की सलामती के लिए अपना तुच्छ शीश उनके अमूल्य चरणों में रख देते हैं.
इतने दमदार साहब की नाक में दम एक श्वान ने कर रखा है. यह बात अच्छी नहीं है. इन पंक्तियों के लिखने तक टॉमी ने अपने कान खड़े नहीं किए हैं. साहब गहरी चिंता में डूबे हैं. उनके मातहत अच्छे-अच्छे डॉक्टरों को ट्राय कर रहे हैं. पूजन-अर्चन चल रहा है. देखते हैं, कब, कैसे और किसके प्रयास से श्वान के कान खड़े होते हैं. उस कुत्ते (सॉरी! टॉमी) को भी चाहिए कि अपनी कुत्तागिरी छोड़े. अपने कान खड़े करके साहब को खुश करे. साहब खुश तो देश खुश. अरे! तूने खुशी के कान क्यों मरोड़ रखे हैं?
बहरहाल, प्रकृति में चारों तरफ भले ही बसंत छाया हो, किंतु साहब का बसंत तो तभी आएगा, जब उनके कुत्ते (सॉरी! टॉमी) के कान खड़े होंगे. उनका खोखा भर कमाने का सपना पूरा होगा.