|| संस्मरण ||
घर एक बड़ा पद है
पता अब तक नहीं बदला हमारा
वही घर है वही क़िस्सा हमारा
अहमद मुश्ताक।
पता अभी तक नहीं बदला हमारा भी।
अभी भी हमारी डाक 233 हरिपुरा विदिशा के पते पर आती है। और किस्से भी उसी घर के सुनाने का मन होता है,गोया घर एक बेजान जगह होती है,जिसमें जीवन को दाना पानी मिलता रहता है। घर एक संवेदन से भरा पद है। एक मनुष्य को हमेशा अपने घर की तलाश हमेशा रहती है। मुमकिन है कि घर को भी उसके रहवासी की तलाश रहती हो।
निदा फ़ाज़ली के शब्दों में…..
किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा।
स्मृति में बसे घरों में सबसे ज्यादा चमक के साथ मौजूद घर फिलहाल विदिशा का ही है।
उस बेचारे की सज-धज या बनक साधारण है।तीस वाई चालीस के अपने आयतन में एक भी सामान बेशकीमती नहीं लिए उस घर की यही खासियत है कि वहां के दरो दीवार मुझसे बातें करते हैं। उसकी वज़ह कविता में महेश कटारे सुगम ने कही है…..
पिता के पसीने की चमक
कई दिनों का सुख चैन इबारत बन कर
अभी भी टंका है इसकी खुरदरी दीवारों पर
जो हमेशा देता है चमकदार ,चिकना सुख
आधुनिकता की कोई सूरत उस घर के पास नहीं है। फिर भी उसी को श्रेय है कि उसने अपनी गोद में हम सभी को पाल पोस कर इस योग्य बना दिया कि हम सभी भाई बहनों ने दूसरे घर भले ही वे घरघूले से हों, भी खरीद लिये।हम लोगों ने वहां केवल आराम ही नहीं किया। काम भी किया। एक घर पर यह आरोप नहीं आना चाहिए कि उसके निवासियों ने सिर्फ आलस का राग अलापा। न इश्क किया , न काम किया की तरह।
एक अच्छा घर केवल रविवार को ही सभी सदस्यों से भरा होता है या शाम को!
इसलिए घर का हक़ है उसको ज़िक्र का मर्तवा मिलेl इसके ज़िक्र के साथ मुझे वे सभी घर याद आ रहे हैं जिन्होंने अभी तक मुझे साया दिया। हमें अक्सर गुजिश्ता याद आता है ।
कैफ़ी आज़मी के हवाले से कहूं तो….
आने वाला कल बस एक सपना है
गुजरा हुआ कल बस अपना है
हम गुजरे कल में रहते हैं
यादों के सब जुगनू जंगल में रहते हैं।
यादों के जंगल से चलकर चंद जुगनू आ ही जाते हैं इसलिए घर की याद इस लेखन में बह निकली।
हालांकि मैं कोई पहचाना या बुलंद नामधारी शख्स नहीं हूं।मगर अपने दिल की बात तो कर ही सकता हूं।दिल उन घरों की याद के लिए बीमार हुआ जाता है।सफ़र का ठीक विकल्प मुझे घर ही लगता है। ईंट गारे मिट्टी की इन तामीरों को याद करके भला क्या फायदा। लेकिन जो याद आ ही रहे हैं तो वो फसाने कहां जाएं।कम से कम एक तहरीर में, या एक कविता में तो आएं।
घर भी आपको प्यार करता है,यह मैने बचपन में ही जान लिया था।जिस घर में मैने जन्म लिया वह गांँव का कच्चा घर था। मिट्टी के तेल से जलती चिमनी उस घर में रातों में दरों दीवार रोशन करतीं थीं। बच्चों को बार बार खाने के लिए दीवारों पर चिपकी सौंधी छुई के अलावा, कुछ नहीं था। नाश्ता में दूध के साथ बासी रोटी मिलती थी। कुर्सी या सोफा के चित्र हम लोग किताबों में ही देख पाते थे। वहां खाट या पलंग या दरी ही सबसे बड़े बिछोना हुआ करते थे ।अनाज के ढेरों से भरे कमरे में अनाज के दानों के ऊपर सोना एक प्रिय शगल था। शौचालय ,बाथरूम या टॉयलेट जैसे साधन वहां कुछ नहीं थे ।जो इसके नाम पर था उसे सपन्ना या मोरी कहा जाता था।नदी किनारे जाकर किसी बबूल के पेड़ से तोड़कर एक दातुन बनाना, उससे दांत साफ करना और वही मुंह हाथ धोना यह एक रोज़ाना का काम था ।स्नान की उछल कूद करने के लिए भी हम सभी बच्चे और पुरुष नदी में ही जाया करते थे।वहीं तैरना सीखा और मछलियों की केलि देखी। स्त्रियां वहां घर में ही नहातीं थी उस घर में बिना कृत्रिम उपायों के हमें नींद आ जाती थी।अब तक के जीवन में हम जितने भी घरों में रहे वे सभी घर मेरी यादों में जीवित हैं।ऐसा लगता है कि उन तक पहुंच कर एक बार उन दीवारों से लिपट कर रोलूं।पिछले साल ही मैंने जब विदिशा का वही हरिपुरा वाला घर छोड़ा तो जैसे मैं कुछ क्षणों के लिए आयुहीन हो गया था।इसे छोड़ कर इसी शहर में दूसरी कालोनी में जा बसने के लिए निकलना राम का वनवास के लिए अयोध्या छोड़ने जैसा था। हालांकि हम अपेक्षा कृत बड़े और आधुनिक और अच्छे खासे ऋण के दम पर खरीदे उस दुमंजिला (डुप्लेक्स ) में जा रहे थे,जो गोदावरी ग्रीन कालोनी में बना हुआ
वह सत्रह फ़रवरी १७ की रात थी।हम चारों घर से निकल रहे थे।माँ और अनुज पुत्री भी साथ आईं। मैं अनुज विवेक के सम्मुख घर विछोह की वजह से रो पड़ा था,वह बड़ों की तरह मुझे समझा रहा था।कि यहीं तो हैं। खुशी खुशी जाइयेगा और नये घर को एंजोय कीजिए। विवेक की यही ख़ासियत है कि वह कम बोलने की आदत के बावजूद अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सफल होता है और दूसरी तरफ ठोस राहत मिलती है।
इस घर में दरअसल जीवन का सबसे ज्यादा समय को हमने जिया।1988 से ये भूखंड हमारा था और पुष्पित होता हुआ ।2010 में तीसरे माले की साधारण सी चोटी को संकोच सहित देखकर गर्वित होता था।2008 में इस घर ने अपने सर्जक को खो दिया था।हमने अब घर का नाम पुष्प रख दिया था,यानि कवि पिता का कवि नाम।
घर का आयतन कम होने और सुविधाएं नहीं होने के कारण हमारी बेगम ने अनेक बार विदिशा रायल सिटी के निजी घर में जाने का इसरार किया,मगर मुझे
इस घर से इतना लगाव था कि यह छूटता ही नहीं था।कभी स्टेशन नज़दीक होने का बहाना,कभी माधव उद्यान , कभी स्कूल और अस्पताल पास होने का कारण।
पापा जी ने जीपीएफ से टुकड़ों में राशि निकाल निकाल कर इसका कमरा दर कमरा बनवाया था।और हम भाईयों ने इसके लिए सामान खरीदकर लाने,तराई करने और उसे निहारते रहने का कौतुक किया। सोचते रहते थे-
घर का बनाना कोई आसान काम नहीं
दुनिया बसाना कोई आसान काम नहीं।
निम्न मध्यम वर्ग के लिए वाकई घर मालिक हो जाना चांद को छूने जैसा होता है। फिर तो यह घर जिला स्तर पर बना था।
ख़रामा ख़रामा
12 दिसंबर 95 को इस मकान को घर में बदलने के लिए गायत्री हवन हुआ।तब तक मैं अविवाहित किंतु नौकरीशुदा था।मेरे लिए जीवनसाथी तलाशी अभियान चलाया जा रहा था।कविता बहन की शादी पहले करना थी।तो शादी के आसपास के दिनों में इसी दो कमरे के घर में पचास साठ मेहमान रूके थे।इसी घर में कवि शलभ श्रीराम सिंह यदा कदा आकर बैठते थे।विदिशा के शिक्षक और कवि मित्रों की बैठकें होने लगीं थीं।महेश कटारे सुगम और हरि भटनागर ने यहां एक दो बार रैन बसेरा किया था। एक दो बार कमांडर कमला प्रसाद,राजेन्द्र शर्मा और स्वयं प्रकाश ने यहां आतिथ्य स्वीकार किया था। पुन्नी सिंह, पी एन सिंह,कथाविद महेश कटारे, हरिओम राजोरिया ,कुमार अंबुज भी एक बार आए रहे। नरेंद्र जैन तो कदाचित सबसे ज्यादा बार यहां बैठे। रवीन्द्र प्रजापति ,दफैरून ,तो हमसफ़र ही रहे तो आना जाना प्रज्ञा रावत और पवन करण भी आते रहे।साकीबा के पहले सम्मेलन में तो शरद कोकास,पदमा शर्मा,मृगांक ढेंगुला,सईद अय्यूब, प्रवेश सोनी, मीना शर्मा आदि आए। प्रोफेसर वनिता वाजपेयी,प्रोफेसर लोकेश वाजपेयी ,संगीतकार सुदिन श्रीवास्तव,आशुतोष पाठक,डाक्टर राकेश श्रीवास्तव, उदय ढोली ,अविनाश तिवारी , हरगोविंद मैथिल ,दिनेश मिश्र और नीरज शक्ति निगम ने भी यहां की चाय अनेक बार चखी है।समरुचि के साथी कभी न कभी अपने ऐसे साथी के घर में आए ही होते हैं।मगर कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें घर भी पहचानने लगता है।उनमें से एक हैं
गीतकार जगदीश श्रीवास्तव ।और फिर जब आलोक से दोस्ती हुई तो उनका आना जाना तो जैसे दिन में दो बार और अनौपचारिक था।लेकिन इसके पहले इसी घर में मेरी भी शादी का जलसा हुआ था।जिसमें साठ सत्तर मेहमान रुके थे।मुझे याद है इसके खाली हिस्से पर एक कपास का पेड़ उग गया था।उसके फलों में से रूई को निकालने में अलग तरह का अनुभव होता था।मेहमानों के अलावा इंतजार का रिश्ता डाकिया से भी था।उस घर में डाकिया खूब आता रहा । साहित्य की किताबों का ख़ज़ाना इतने वर्षों में तैयार किया।
इस घर में रात में हम लोग सोते सोते हुए अचानक जाग जाते थे,जब ट्रेन गुजरती थी।उसकी पटरियों पर धड़क की धमक यहां तक आ जाती थी।ट्रैनों के हार्न की आवाज़ दिन भर आती थी। रेलगाड़ी का रिश्ता एक और घर से था।जब बचपन के दादाजी वाले घर के बाद मैं अशोकनगर (जिला गुना )के नानाजी के घर में तीन सालों तक रहा।उस घर के पीछे रेलगाड़ी दिखाई देती थी। कोयले के धुंए और कू कू की आवाज़ लगाने वाली।छुक छुक छुक की आवाज़ वाली।अब तो डीजल या इलेक्ट्रिक इंजन में एक बेसुरा सा कानफाड़ू डरावना सा हार्न बजता है।
अशोकनगर मैंने कक्षा 6 से 8 तक पढ़ाई की और गर्मियों में छत पर खूब सोये।नानाजी अंग्रेजी पढ़ना लिखना सिखाते और नानीजी डांट और दुलार दोनों से मुझे जीवन के पाठ सिखातीं।नानाजी तबला बजाते थे। राधेश्याम की तर्ज पर रामायण गाते थे। वह एक खूबसूरत और उसूल पसंद वृद्ध थे।पक्का और दुमंजिला घर था उसकी छत पर से रेलगाड़ी दिखाई देती थी।सिनेमा,और गीत संगीत से पहचान इसी शहर में हुई।गया प्रसाद की रामलीला देखी,पछाड़ीखेड़ा के हनुमान मंदिर के रास्ते में मौजूद तालाब देखा,गांधी पार्क की रौनक और स्टेशन पर टहलने का सुख भोगा।इस घर में पर्याप्त वैभव था गोया कि यह पक्का घर था और बल्वों की रोशनी,फ्लेश की शौचालय यहां थी।हालांकि दरवाजे बंद करने के लिए सांकल कुंडी ही इस घर के दरवाजे में थीं। जब यहां से अपने गांव जाता था तो बाल सखा खूब इज्जत करते थे कि हम शहर से आए हैं।हम भी फिल्मों की स्टोरी सुनाकर अपना प्रभाव जमा लेते थे।गीत गाता चल,जय संतोषी मां,प्रतिज्ञा,आदि अनेक फिल्में हमने यहां देखीं थीं।
जब बीस साल बाद प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन अशोकनगर में हरिओम राजोरिया के बुलावे पर गया था तो मैं उस घर को देखने पहुंचा तो स्तब्ध रह गया।वहां घर था ही नहीं।सब कुछ बदल चुका था। सपने की चीज़ों की तरह इस घर का अब कोई नामो निशां नहीं था।बहुत देर तक मैं उदास रहा। अशोकनगर के ही बालसखा राजेश खैरा के घर पर मैं रात रूका था।वहां भी दरो दीवार बदल चुके थे।सभी मित्रों के घर याद आते रहे।प्रमोद श्रीवास्तव ,महेश कलावत,सलीम,राजकुमार,और लाली का घर याद आकर रह गया था।पता नहीं कवि श्री गिरिजा कुमार माथुर के लंबे चौड़े बाड़े वाले घर का क्या हुआ।बचपन में हम लोग उनके भान्जे आलोक माथुर के साथ उनके घर में पढ़ने या खेलने जाते रहते थे।
कुरवाई (जिला विदिशा )में सबसे ग़रीब घर में रहना पड़ा। एक कमरा किराए का लिया जिसमें चाचाजी के साथ मुझे रखा गया था।इसका किराया दस रुपए माह था। सामने एक कुआं था।रात में कभी मुशायरे के तरन्नुम सुनाई देते तो कभी कुछ फिल्मी गाने।घर में रात भर बल्व जलता रहता था। कुरवाई में दानिश मालवी की शायरी उस्तादी शायरी थी।
घर को दानिश साहब ने इस तरह महत्व दिया है…
सवाल ये है कि इस दौर में किधर देखें
तुम्हारी बज्म को देखें या अपना घर देखें
कुरवाई का किला और मेला मशहूर था। उन दिनों मेला में हाकी और कबड्डी का चर्चा रहता था।बेतवा किनारे बसा यह कस्बा हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए भी जाना जाता है।कमरे के ऊपर फर्सियां बिछीं थीं। बरसात के दिनों में उन्हें थोड़ा सा खिसकाना पड़ता था ताकि पानी की बूंदें नहीं आएं । सुबह की चहल-पहल कुंए पर बहुत सुंदर हो जाती थी। शौचालय के लिए दौड़ लगाते,बीड़ी पीते हुए जाते लोग। एक शतरंज के शौकीन खिलाड़ी थे, जो इतनी देर में ही चाचाजी के साथ एक बाजी लगा लेते। मुझे भी शतरंज खेलने की तलब लगने लगी थी। एक दोस्त ओम प्रकाश आर्य अक्सर आ जाते। फिर हम लोग तर्क़ वितर्क करते। मैंने ओम से ही धर्म के नाम पर आडंबरों को पहचानना सीखा। मंदिर में दर्शन करते समय विचार आर्य समाज के आने लगते।ओम प्रकाश का घर भी याद है, उनके घर में चारों वेद एक अलमारी में रखे रहते थे।इस कमरे में बाद में मां भी आ गई और भाई बहन भी। चाचाजी की नौकरी बस्तर में लग गई थी। और हांँ पापाजी की भी दूसरी नौकरी के चलते बस्तर पहुंच गए थे।सबसे छोटी बहन अन्नपूर्णा का जन्म भी इसी एक कमरे के घर में रहते हुए अस्पताल में हुआ था।यह १९८० था। यहाँ की एक शख्सियत केशर बिया ने मुझे अभिनय के लिए वार्षिकोत्सव में पुरस्कार दिया था,
वह भोपाल में आलसेंटस स्कूल की संचालिका हैं और गरिमा पूर्ण व्यक्तित्व हैं। कुरवाई की जैन धर्मशाला कैम्पस में स्थित इस कमरे के घर में दादाजी दादीजी की यादें भी मेरे साथ हैं।यह घर हमने १९८२ में छोड़ दिया था।हम लोग फिर मंडी बामोरा से एक पैसेंजर ट्रेन में बैठ कर शाहनगर जिला पन्ना में पहुंच गए थे।वहां पापाजी एक बेहतर नौकरी को जोइन करने के लिए अपना बड़ा परिवार लेकर जा रहे थे। कहते हैं कि एक ही जन्म का जीवन है इसी में पृथ्वी की जितनी अधिकतम जगहों पर कदम रखा जाए उतना अच्छा। मुझे खुशी है कि मैंने बचपन से ही पैर में चकरी पाई थी। इसका नुकसान भी हुआ मुझे अपनी औपचारिक पढ़ाई के लिए स्थिरता नहीं मिली। जहां जहां पिताजी के तबादले हुए मुझे भी उसी शहर या कस्बे में जाकर एडमिशन लेना पड़ता था। भाई बहनों में जेठा होने के कारण दीगर जिम्मेदारियों ने भी हाथ मिलाए रखा। शाहनगर में हमें जो घर किराए से मिला वैसा घर तो सच में अनूठा होता है। इसे पापाजी ने पसंद किया था। ठीक सामने सड़क थी। पीछे जंगल और आस पड़ोस के नाम पर सन्नाटा। एक भी घर पास में नहीं।उस घर में एक वाउंड्री वाल थी। ऊपर कबेलू और नीचे शायद लीपे जाने योग्य फर्श। बहुत बड़ा रसोई कक्ष और उतना ही बड़ा नहाने का कक्ष। आगे और बीच में सीधे सीधे लंबे लंबे हाल।इस घर में एक बार बड़ा सांप और एक बार गोहरा दक्ष लोगों ने मारा।यह गोहरा अक्सर ऊपर कबेलू में दिखाई देता था। और हम लोग क ई दिनों तक एक डर के साए में सोते रहे।इस घर में एक बार बस से उतरकर एक झोला लेकर एक व्यक्ति आया और पानी मांगने लगा। मैंने बैठने के लिए कहा तो वो महाशय बैठ गए। परिचय पूछा तो बहुत बचकर उन्होंने संक्षिप्त में कहा कि मैं कुछ किताबें लाया हूं यहां बेचने के लिए। हमने उन्हें विदा कर दिया। मैं स्कूल पहुंचा। मध्यांतर के बाद सभी बच्चों को इकट्ठा किया गया। प्राचार्य ने सभा में कहा कि आज हमारे बीच देश के प्रसिद्ध कवि श्रीकृष्ण सरल आए हैं। मैं चौंक गया था,यह तो वही थे जो सुबह घर आए थे। सहपाठियों को बताया तो वे यकीन ही नहीं कर रहे थे।यह अच्छा रहा कि सरल जी के बोलने की बारी आने पर उन्होंने मुझे पहचान कर बुलाया और एक किताब अपनी तरफ से भेंट की। उन दिनों जबलपुर से निकलने वाला नवभारत का रविवारीय पन्ने का साहित्यिक कोना याद है।पापाजी चूंकि पंचायत निरीक्षक थे तो पंचायतों में पुस्तकालय स्थापित करने के लिए अनेक साहित्यिक किताबें आईं।मैंने एक किट चुपके से बचाकर घर में ही पुस्तकालय बना ली।तब से ही मुझमें किताबें इकट्ठा करने का चाव जाग गया था। मुझे यहां एक शिक्षक मिले जिनका नाम था उदयवीर शर्मा,अंग्रेजी पढ़ाते थे,विवेकानंद के अनुयायी थे।मुझे बहुत स्नेह करते थे।दोस्त जैसा व्यवहार करते थे।वह स्वयं को बुलंद शहर का बताते थे।
इनसे मैंने अंग्रेजी भाषा की काफी बारीकियां सीखीं।
अंग्रेजी लिखने बोलने में आत्मविश्वास आया
शाहनगर कस्बे में हम लोग दो साल रहे। यहां से ही मैंने कटनी के लिए बी एस सी की पढ़ाई के लिए अप एंड डाऊन किया। इस कस्बे में लौटकर एक बार भी नहीं जा सका। यहांँ का एक भी दोस्त मुझे फिर कभी नहीं मिला। फेसबुक पर भी नहीं। यह घर अभी भी कभी कभी सपने में दस्तक देता है।लेकिन
कोई उम्मीद वर नहीं आती,
कोई सूरत नज़र नहीं आती
घर घर घूमा लीलाधर मंडलोई का कविता संग्रह है। फिलहाल इसे मुहावरे की तरह इस्तेमाल कर मैं कह सकता हूं कि सभी लोग घर घर घूमते हैं लेकिन मैं एक सामान्य नागरिक होते हुए भी घर घर घूमा।
शाहनगर के घर ने हमें भेजा अजयगढ़.जिला पन्ना के सरकारी क्वार्टर में। यह एक सुंदर मिनी बंगला था। पापाजी ब्लाक में अधिकारी थे तो सेवकों की सुविधा भी मिली थी। गोल घेरे में बनी कालोनी में एक सुंदर कुंआ था।पीछे वन विभाग की नर्सरी थी।पहाड़ों के दृश्य दिखाई देते थे। सामने मैदान में रोजाना शाम को बालीबाल का खेल होता था। यहां मैंने खूब वालीवाल सीखी खेली। राउंड हैंड सर्विस करना और डिफेंस में बाल उठाना सीखते समय मुझे बहुत मजा आया। मेरे स्वभाव में भी यह आ गया कि मैंने शाट मारने की आक्रामक शैली का गैम नहीं सीखा बल्कि डिफेंस का गेम सीखा। गांधी वाद को इस तरह भी मैंने इस खेल से जोड़ लिया था। यहां से मैं अनेक बार चित्रकूट गया,वहां से खरीद कर लाई विनय पत्रिका और कवितावली को इसी घर में पढ़ा।
बी एस सी द्वितीय वर्ष पढ़ने के लिए रोजाना अजयगढ़ बस से पन्ना के छत्रसाल कालेज में आना जाना करते ही थे।यह १९८४ था, यहीं पर मैंने भोपाल गैस त्रासदी की खबरें सुनीं थीं। इंदिरा गांधी की हत्या की बुरी ख़बर भी यहीं सुनी थी। इस कस्बे में कुदरत की सुंदरता खूब थी। घर के पीछे सागौन के वृक्ष थे।यहां ही बुंदेलखंड के प्रसिद्ध साहित्यकार अंबिका प्रसाद दिव्य रहते थे। पापाजी को उनसे पुत्र वत स्नेह मिलता था। मुझे भी साहित्य रूचने लगा था। मैं गणित का विद्यार्थी होते हुए भी साहित्य की अनेक पुस्तकें उन दिनों पढ़ चुका था। शिवानी, नरेंद्र कोहली, देवकीनंदन खत्री की किताबें पढ़ने का ज़माना था।उन दिनों घरों में एक दो खाटें होतीं थीं जो दिन में खड़ी कर दी जातीं थीं।कूलर के नाम पर हमने जो लिया था, वो एक अलमारी सी थी और बिजली से नहीं चलती थी। ईंधन के लिए लकड़ियां ही ख़रीदीं जातीं थीं। वहां एक कलाकंद की मिठाई मिलती थी,। अजयगढ़ में पहाड़ी पर स्थित अजयपाल का किला दर्शनीय स्थल है।पास में ही शहर नरेनी, बांदा और कालिंजर भी था। दिव्य जी के उपन्यास , पीताद्रि की राजकुमारी,जूठी पातर, खजुराहो की अतिरूपा, कालिंजर का दुर्ग इसी बुंदेली पृष्ठ भूमि के इर्द गिर्द घूमते है।मैंने ये रचनाएं वहीं पढ़ लीं थीं।
मुझे याद है अजयगढ़ में एक कवि गोष्ठी पापाजी ने की थी| मैंने सबसे पहले इसी गोष्ठी में कविता पाठ किया था,अध्यक्षता अंबिका प्रसाद दिव्य ने की और आयोजन संयोजन संचालन पापाजी ने किया था।पापाजी ने इस. कविता का पाठ किया था।
अजय गढ़ गिरि कानन का गांव।
परिचर्चा सम्राट के रुप में परिचित जगदीश किंजल्क इसी घर में आते रहते थे।पापाजी और उनकी साहित्य की बातें होतीं मैं सुनता रहता था।वह उन दिनों छतरपुर आकाशवाणी में प्रसारण अधिकारी थे।आज कल तो वह अखिल भारतीय दिव्य पुरस्कार के संयोजक हैं भोपाल में रहते हैं।
घर से घर की तलाश और सफ़र चलता ही रहता है।अगला घर हमारी यात्रा में मिला निवाड़ी जिला टीकमगढ़ में।ब्लाक कालोनी में सरकारी क्वार्टर। यहां हम लोग आधुनिकता के ज्यादा करीब आ गए थे। अपने जन्म स्थान के जिले के नजदीक आते जा रहे थे। झांसी मात्र २५ किमी दूर था। नजदीक ही एतिहासिक कस्बा ओरछा था,घर के नाम पर तीन कमरे, और एक अंगना। मैंने अपने पढ़ने के लिए पीछे का कमरा चुना था।आधे हिस्से में ईंधन की लकड़ियां रखीं रहतीं थीं।बाकी बचे स्थान में अपनी पढ़ाई की टेबल और एक पलंग का बंदोबस्त किया गया। इस घर के बाजू में छोटी छोटी क्यारियां थीं,जिनमें हमने सब्जियां लगाकर बागवानी भी की। दो घरों के आंगन के बीच में एक दीवार थी,तो पड़ोसी के घर की बातें सुनी जा सकतीं थीं।हमारे परिवार की पहली शादी मुझसे छोटी बहन कल्पना की यहीं से हुई थी,पूरी कालोनी के लोगों ने सहयोग किया था।इतने छोटे घर ने बड़े घर का दिल अपने भीतर संजोकर रखा था।तब मैं बी. एस सी. फायनल में था और गणित, भौतिक विज्ञान. रसायन, में अच्छे नंबर लाने के लिए जैसे दिन रात की मेहनत करता रहता था।इंटीगरल केलकूलस,डिफरेंसियल केलकूलस, रियल ऐनालिसिस और स्टेटिस्टिक्स, आदि को बार बार पढ़ कर समझने की कोशिश करता रहता था।इस मेहनत ने मुझे वांछित फल दिया था और मैंने गणित में प्रथम श्रेणी के अंक पाए थे। पापाजी सपने दिखाते रहते थे।
यहां के बाद मैंने एम एस सी गणित की पढाई के दौरान विदिशा के एक किराये के कमरे में अकेले रहने के अनुभव के साथ दो साल गुजारे।विदिशा के जैन कालेज में मैं पढ़ता था।कालेज की पत्रिका सर्जना में मेरी एक कविता प्रकाशित हुई थी,इस पत्रिका के संपादक विजय बहादुर सिंह थे।लेकिन तब मेरा उनसे कोई परिचय या संपर्क नहीं था।हमारा विषय गणित था तो अवसर भी नहीं मिला कि हिन्दी विभाग के प्राध्यापकों से मिलते।
इसके बाद प्रायवेट स्कूली नौकरी के लिए निवाड़ी से मैं भोपाल के लिए निकल पड़ा।यह एक अंधी यात्रा थी।कहां रहना ,कहां जाना कुछ तय नहीं था।भोपाल पहुंचकर
सामान एक रिश्तेदार के घर में रखा। न्यू मार्केट में तफरीह के समय निवाड़ी के एक परिचित मित्र अखिलेश गुप्ता मिल गए जो सचिवालय में नौकरी करते थे।उनसे उनके किराए के कमरे में साझेदार बनाने का पूछा तो वह तैयार हो गए।तीन चार माह रायल मार्केट के पास शहीदनगर में उनके साथ रहे।फिर बी एड में एडमिशन हुआ,तो पीजीबीटी होस्टल में रहे।यहां मुझे सबसे पहले आकाशवाणी में कविता पाठ के लिए पत्र मिला।क्या उमंग थी उस दिन।फिर तो आकाशवाणी से ऐसा रिश्ता बना कि उसने साहित्यिक दुनिया में प्रवेश का एक स्थायी सा रिश्ता बना दिया।बीएड के बाद हम लोग पहले भोपाल के नूरमहल क्षेत्र में,फिर बैरागढ़ में किराए के कमरों में रहे।निजी स्कूल की नौकरी के चलते जीवन अनिश्चितता की नाव में झूल रहा था।एक दो साल के संघर्ष के बाद सरकारी नौकरी का पत्र मिला।तो दिशा बदल ही गई।एक तरफ आजीविका के स्थायित्व की खुशी तो दूसरी तरफ महानगरीय वैभव छोड़कर गांव में जाकर रहने की मजबूरी।
विदिशा जिले की लटेरी तहसील के गांव रूसल्ली साहू के हाईस्कूल में गणित का शिक्षक बना।यहां जिस घर ने पनाह दी वह कच्चा घर था।इसमें शौचालय की सुविधा थी।बिजली भी थी।स्टोव पर भोजन बनाने का इंतजाम था।ऊपर कबेलू की छत थी।पलंग मकान मालिक ने दे दिया था।इस घर में तीन साल स्थानांतरण होने तक रहा।इसकी भी याद आती है,जबकि यहां अभाव ही अभाव थे।
फिर तीन साल बाद वही विदिशा का हरिपुरा वाला घर जिसके बारे में मैंने सबसे पहले जिक्र किया।इतने घरों ने जीवन का इतना समय अपने साये में रखकर मेरे नाम किया घर तो पनाहगार होते हैं,उन्हें अपने ऐसे होने में ही अपने रहवासी को शरण देना होता है।वे अधूरे भी होते हैं लेकिन अपने आप में पूरे भी।
शहरयार कहते हैं…..
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है।
बहरहाल मेरे लिए घर एक बड़ा पद है।हम जीवन भर एक घर से दूसरे घर तक के सफर में ही चलते रहते हैं।
“ब्रज श्रीवास्तव”