प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को कहना चाहिए कि अगर मैं प्रधानमंत्री बनूंगा तो मैं पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारूंगा ताकि सेना पर दबाव कम हो. फिलहाल ऐसा करने में मौजूदा सरकार असफल रही है और कश्मीर व सीमा पर मौजूद सेना दबाव में है. यह इस सरकार की असफलता है कि वह पाकिस्तान सरकार से बातचीत का दौर नहीं शुरू कर रही है. यह कहकर कि वह सेना का इस्तेमाल पाकिस्तान को सबक़ सिखाने के लिए करेंगे, नरेंद्र मोदी ख़ुद को एक राजनीतिज्ञ के तौर पर नहीं रख रहे हैं. नेताओं को ऐसे विषयों पर उदार दृष्टिकोण रखना चाहिए जो कि वे नहीं रख पा रहे हैं.
सचिन तेंदुलकर ने मुंबई में अपना 200वां खेला और इसी मैच के बाद उन्होंने क्रिकेट जीवन से सन्यास ले लिया. 1989 में जब उन्होंने अपने क्रिकेट जीवन की शुरुआत की, तब वे तक़रीबन 16 वर्ष के थे. 24 वर्ष के लंबे सफर के बाद उन्होंने क्रिकेट जगत को अलविदा कहा. नि:संदेह सचिन का क्रिकेट कैरियर विश्‍व के किसी भी क्रिकेट खिलाड़ी की तुलना में सबसे शानदार रहा. डॉन ब्रेडमैन से भी सचिन की तुलना की जाती है, लेकिन इसे पूरी तरह सही नहीं कहा जा सकता. उन दिनों जब डॉन ब्रेडमैन खेलते थे, तब केवल टेस्ट क्रिकेट ही खेला जाता था. डॉन ब्रेडमैन ने कुल 52 मैचों में 80 पारियां खेलीं, जिनमें दस पारियों में वे नाबाद रहे. इस तरह 80 पारियों में उन्होंने 6996 रन बनाए. आख़िरी मैच में वे शून्य पर आउट हो गए, जिसके चलते 100 रन के औसत से वे मात्र चार रन दूर रह गए. अब टेस्ट मैचों में कभी 100 रन का औसत बन भी पाएगा, यह कह पाना मुश्किल है.
लेकिन दूसरे कई मायनों में सचिन तेंदुलकर डॉन ब्रेडमैन की तरह ही थे. वह भारतीय क्रिकेट टीम के लिए अंतिम सहारे के तौर पर थे. जब भी टीम मुश्किल में होती, वह मैदान में जाते और टीम ख़ुद को सुरक्षित महसूस करने लगती और उसे अपना खोया हुआ आत्मविश्‍वास वापस मिल जाता. सचिन डॉन ब्रेडमैन से मिलने ऑस्ट्रेलिया भी गए. ब्रेडमैन को भी सचिन से मिलकर काफ़ी खुशी हुई और कुछ समय पहले प्रेस से बातचीत में सचिन ने बताया कि जब वे डॉन ब्रेडमैन से मिले तो उन्हें ऐसा लगा जैसे अर्जुन को द्रोणाचार्य मिल गए हों. वास्तव में यह उस मुलाक़ात का सबसे सटीक वर्णन था और इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि डॉन ब्रेडमैन एक शाश्‍वत गुरु के तौर पर स्थापित हैं.
सचिन तेंदुलकर के कैरियर में भी काफ़ी उतार-चढ़ाव आया. ज़ाहिर सी बात है कि जिसका क्रिकेट खेलने का कैरियर ही 25-26 साल का होगा, उसमें उतार-चढ़ाव तो आएंगे ही. आप हर पारी में बड़ा स्कोर नहीं कर सकते. हर मैच में अच्छा नहीं खेल सकते. हर देश में बेहतर नहीं खेल सकते. यह भी ज़रूरी नहीं कि आप सभी सीरीज में अच्छा ही खेलें. बावजूद इन सबके सचिन के खेल जीवन में एक ग़ौर करने वाली निरंतरता थी. एक और बात जो ग़ौर करने लायक है कि जब वे कप्तान नहीं रहते तो ज्यादा बेहतर खेलते थे, बनिस्बत इसके कि जब कप्तान की ज़िम्मेदारी निभाते थे. हो सकता है कि बतौर कप्तान खेलते हुए वे इसका दबाव महसूस करते रहे हों, जिसका असर उनके खेल पर पड़ता था. यह सब कुछ याद करते हुए हमें यह मानना पड़ेगा कि देश में अब तक जितने क्रिकेटर हुए, सचिन का क़द उन सबसे बड़ा है.
शुरुआती दिनों में मैच बहुत कम खेले जाते थे. सी के नायडू का उदाहरण लें तो उन्होंने बहुत कम मैच खेले. बावजूद इसके उनके नाम कई सारे विश्‍व रिकॉर्ड हैं. इन रिकॉर्ड की तुलना मौजूदा दौर से नहीं की जा सकती, क्योंकि अब पहले की तुलना में बहुत ज्यादा क्रिकेट खेला जाता है. न ही हम खेलने की शैली की तुलना कर सकते हैं, क्योंकि अब क्रिकेट में तकनीक का महत्व बहुत बढ़ गया है. मैच के दौरान तीसरे अम्पायर की मौजदगी है, साथ ही हॉक आई से मिलने वाला बड़ा व्यू भी. वास्तव में अब क्रिकेट वह क्रिकेट नहीं रह गया जो इंग्लैंड में शुरू हुआ था और वहां से भारत आया था. अब तो क्रिकेट तकनीकी अजूबा हो गया है. आपको प्रैक्टिस कराने के लिए भी मशीनें हैं, ऐसी मशीनें जो बैट्समैन की तरफ अलग-अलग प्रकार से गेंद फेंकती हैं, ताकि बैट्समैन बेहतर प्रैक्टिस कर सके. यह सभी बदलाव पिछले 10-20 वर्षों में हुए.
हालांकि तेंदुलकर तब से खेल रहे हैं, जब यह नए गैजेक्ट्स और नई तकनीक क्रिकेट में दाख़िल नहीं हुई थी. लेकिन उन्होंने हर तकनीक पर महारत हासिल कर ली और इसका फ़ायदा भी उठाया. यही उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी थी जिसके चलते उनके खेल में हमेशा ताज़गी बनी रही. सचिन हमेशा ख़ुद को वक्त के साथ लेकर चले. आईसीसी द्वारा लागू किए गए नए नियमों को अपनाया और भी बहुत कुछ. कई बार ऐसा हुआ कि वह अंपायर के निर्णय से नाख़ुश दिखते. कई बार चीज़ें उनके अनुरूप नहीं होतीं थीं, लेकिन सचिन ने हमेशा खेल भावना का ख्याल रखा और इसे खेल की तरह ही लिया. सचिन ने न कभी किसी मसले को लेकर कोई विवाद खड़ा किया, न ही कभी अंपायर या प्रबंधन से उलझे. उनकी छवि हमेशा गैर-विवादास्पद बनी रही और इसे बनाए रहने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. आम तौर पर जो खिलाड़ी इस स्तर तक पहुंच जाते हैं उनके अंदर अहंकार जन्म लेने लगता है और वह अहंकार उनके पूरे आचरण को बिगाड़ देता है, लेकिन सचिन के साथ ऐसा कभी नहीं हुआ और उन्होंने कभी अपना धैर्य कभी नहीं खोया. वास्तव में इन सभी का श्रेय सचिन को ही जाता है. सचिन को शुभकानाएं.
क्रिकेट की दुनिया से निकलकर देश के राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करें तो चुनावों के मद्देनज़र नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस छिड़ गई है. दोनों ही तथाकथित तौर पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि मीडिया और कुछ अन्य लोगों ने यह मान लिया है कि देश में केवल राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं. दोनों ही बहस-मुबाहिसे के दौर से गुज़र रहे हैं. लेकिन यह बहस मुद्दों को लेकर नहीं है. एक-दूसरे पर व्यक्तिगत छींटाकशी है. एक दूसरे की टांग खींची जा रही है और बहसों का स्तर बेहद नीचे गिर गया है. अगर निर्विवाद रूप से देश के सामने प्रधानमंत्री पद के दो दावेदार हैं तो उन्हें मुद्दों पर बहस करनी चाहिए. उन्हें इस बारे में बात करनी चाहिए कि अगर देश की जनता उन्हें बहुमत देती है तो वे क्या करेंगे. पाकिस्तान-चीन के मसले पर उनकी नीति क्या होगी? माओवादियों को लेकर उनका रवैया क्या होगा? ग़रीबी, बेरोज़गारी और महंगाई पर उनका क्या स्टैंड होगा? लेकिन नरेंद्र मोदी इनमें से किसी मुद्दे पर बात नहीं कर रहे हैं. वे केवल एक ही बात कर रहे हैं कि वे सेना के माध्यम से पाकिस्तान को सबक सिखाएंगे. क्या एक राजनेता को ऐसी बातें करनी चाहिए? अगर सेना और पुलिस ही सभी समस्याओं का हल खोज सकती हैं फिर चुनावों की क्या ज़रूरत है. फिर तो हमें प्रधानमंत्री की भी ज़रूरत नहीं है. वास्तव में ऐसा कहकर वे अपनी ही मौजूदगी को नकार रहे हैं. हमें अपने पड़ोसी देशों से कुछ सीखना चाहिए. अगर हम सेना पर ज़रूरत से ज्यादा निर्भर हो जाएंगे तो सेना एक दिन लोकतंत्र पर कब्ज़ा कर लेगी. इसलिए सेना के इस्तेमाल की बात करना ही ख़तरनाक साबित हो सकता है.
वास्तव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को कहना चाहिए कि अगर मैं प्रधानमंत्री बनूंगा तो मैं पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारूंगा ताकि सेना पर दबाव कम हो. फिलहाल ऐसा करने में मौजूदा सरकार असफल रही है और कश्मीर व सीमा पर मौजूद सेना दबाव में है. यह इस सरकार की असफलता है कि वह पाकिस्तान सरकार से बातचीत का दौर नहीं शुरू कर रही है. यह कहकर कि वह सेना का इस्तेमाल पाकिस्तान को सबक़ सिखाने के लिए करेंगे, नरेंद्र मोदी ख़ुद को एक राजनीतिज्ञ के तौर पर नहीं रख रहे हैं. नेताओं को ऐसे विषयों पर उदार दृष्टिकोण रखना चाहिए जो कि वे नहीं रख पा रहे हैं.
प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार राहुल गांधी जैसा व्यवहार कर रहे हैं, उससे ज़ाहिर होता है एक राजनीतिज्ञ के तौर पर वे अभी अपरिपक्व हैं. उनके परदादा एक महान राजनीतिज्ञ थे. उनकी दादी एक निपुण प्रधानमंत्री थीं. उनके पिता केवल पांच वर्ष ही नेतृत्वकारी भूमिका में रह पाए, जिसके बाद उनकी हत्या कर दी गई. राहुल गांधी को अब सक्रिय राजनीति में तक़रीबन 8 से 10 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन दुर्भाग्य से आज तक उन्होंने ऐसा कोई एक भी स्टेटमेंट नहीं दिया जिसके आधार लोगों में यह आत्मविश्‍वास कायम हो सके कि वे देश को नेतृत्व दे सकेंगे. मैं आशा करता हूं कि दोनों नेताओं के भाषण लिखने वाले लोगों की समझ बेहतर हो, उनकी पार्टियों के वरिष्ठ नेता उन्हें बेहतर सलाह दें, ताकि उनके तर्क-वितर्कों का स्तर उठ सके. अभी भी उनके पास छह महीने का वक्त है और इतना वक्त ज़रूरी मुद्दों पर बहस करने के लिए काफ़ी है. वे सार्थक बहस करें ताकि देश की जनता उनका सही आकलन कर सके.

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