19 विभागों ने 16 साल से नहीं दिया हिसाब, 21 सौ करोड़ की गड़बड़ी
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले घोटालों में घिरी कांग्रेस को भाजपाई विकल्प से अपदस्त करने के लिए जिन शब्दों का सहारा लिया गया, उनमें से प्रमुख था- गुजरात का विकास मॉडल. तब भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान की कमान संभाल रहे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जहां भी जाते थे, गुजरात के विकास मॉडल का जिक्र जरूर करते थे. भाजपा नित एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने लगभग अपनी हर चुनावी सभा में यह दावा किया कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद वे देशभर में गुजरात मॉडल लागू करेंगे.
तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि जिस गुजरात मॉडल के जरिए वे अपने अच्छे दिनों का सपना देख रहे हैं, वहां की सरकार जनता के खून-पसीने की कमाई से आए टैक्स से भरे राजकोष के खर्च का कोई हिसाब नहीं देती. गुजरात सरकार ने 16 वर्षों से खर्च का कोई लेखा-जोखा ही नहीं बताया है, ऐसा गड़बड़झाला सरकार के 19 विभागों में हुआ है. 2001 से 2015-16 के बीच गुजरात सरकार ने करीब 2140 करोड़ रुपए कहां खर्च किए, यह किसी को नहीं पता. गौर करने वाली बात यह है कि 2014 के बाद का समय छोड़ दें, तो इस दौरान वे नरेंद्र मोदी ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, जो वहां के विकास मॉडल का ढोल पीट रहे थे और उसके बाद उनकी विश्वासपात्र मानी जाने वाली आनंदी बेन पटेल मुख्यमंत्री बनीं.
जानते हुए भी नहीं की कार्रवाई
नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी हालिया ऑडिट रिपोर्ट में यह खुलासा किया है. सीएजी की ऑडिट के दौरान यह सामने आया है कि गुजरात सरकार ने 14.41 करोड़ के गबन के 158 मामलों में कोई कार्रवाई ही नहीं की. ऐसा होने के कारण 2001-02 से 2015-16 के बीच गुजरात सरकार के 19 विभागों को जारी हुई 2140 करोड़ रुपए की धनराशि गड़बड़झाले की भेंट चढ़ गई. इनका इस्तेमाल कहां और कैसे हुआ, हुआ भी या नहीं हुआ, इसका कोई लेखा-जोखा सीएजी को नहीं मिल सका है. 13 मार्च 2017 तक की ऑडिट में सीएजी को गुजरात सरकार के पिछले 16-17 वर्षों के हिसाब-किताब नहीं मिले.
जिस मद में राशि निर्गत की गई थी, उससे सम्बन्धित उपयोगिता प्रमाणपत्र भी सीएजी को प्राप्त नहीं हो सके. सीएजी की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 2528 कार्यों के लिए जारी की गई 228.03 करोड़ रुपए की धनराशि और 64 कार्यों के लिए जारी 250.96 करोड़ की धनराशि का उपयोगिता प्रमाणपत्र पिछले छह-आठ साल से अटका हुआ हुआ है. वहीं, चार-छह वर्ष बाद भी 157 कार्यों से जुड़े 166.50 करोड़ रुपए के उपयोगिता प्रमाणपत्र लंबित हैं. ऐसे ही कुछ अन्य कार्यों से सम्बन्धित 942.45 करोड़ के उपयोगिता प्रमाणपत्र पिछले एक-दो साल से नहीं दिए गए हैं. ऐसे ही अर्बन डेवलपमेंट डिपार्टमेंट ने करीब 870.23 करोड़ और अर्बन हाउसिंग डिपार्टमेंट्स ने 383.13 करोड़ रुपए के उपयोगिता प्रमाणपत्र उपलब्ध नहीं कराए हैं. गुजरात सरकार का यह गड़बड़झाला सिर्फ उपयोगिता प्रमाण पत्र जारी नहीं करने तक सीमित नहीं है. विभागों द्वारा पैसा दबाकर बैठने और उसका हिसाब न देने को लेकर भी सीएजी ने सवाल उठाए हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2140 करोड़ की धनराशि में से करीब 41 प्रतिशत हिस्सा नगर विकास विभाग के पास था, लेकिन यह विभाग वर्षों बाद भी इसका हिसाब-किताब दबाए बैठा है.
गौरतलब है कि गुजरात फाइनेंसियल रूल्स- 1971 और जनरल फाइनेंशियल रूल्स- 2005 के मुताबिक, किसी भी स्पेशल स्कीम के तहत बजट जारी करने पर वित्तीय वर्ष खत्म होने के अधिकतम 12 महीने के भीतर उसका हिसाब-किताब सहित उपयोगिता प्रमाणपत्र जमा कराना अनिवार्य होता है. जब तक कोई विभाग या संस्थान निर्गत की गई बजट राशि का उपयोगिता प्रमाणपत्र नहीं देते, तब तक उन्हें दूसरा बजट जारी नहीं किया जाता है. यह नियम इसलिए है, ताकि पता चल सके कि निर्गत की गई धनराशि का सही इस्तेमाल हुआ है या नहीं. लेकिन सीएजी की इस रिपोर्ट में हुए खुलासों से पता चलता है कि गुजरात में ऐसे नियम सिर्फ कागजों पर हैं, जमीनी हकीकत से इनका कोई लेना-देना नहीं है.
होती रही हैं अनियमितताएं
बीते कुछ सालों में कई बार गुजरात सरकार की अनियमितताओं को लेकर सीएजी ने सवाल खड़े किए, लेकिन हुआ कुछ नहीं. 2013 में विधानसभा में पेश की गई सीएजी की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि गुजरात सरकार 9 हजार करोड़ रुपए का ब्यौरा देने में नाकाम रही है. उस रिपोर्ट में गुजरात सरकार पर राजकोष को नुकसान पहुंचाने के भी आरोप लगाए गए थे. रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के ऊर्जा करार की शर्तें नहीं मानने की वजह से सरकार को करीब 160 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ. उसके अलावा, फोर्ड कम्पनी को सस्ती जमीन देने के कारण सरकार को 205 करोड़ रुपए का घाटा हुआ. वहीं, सीएजी की 2014-15 की रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात में स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम को लेकर सालाना डेढ़ लाख लोगों के 200 केंद्र खोले जाने थे, लेकिन खुले सिर्फ 39 और इनके जरिए मार्च 2015 तक 14 हजार लोगों को ही स्किल डेवलपमेंट की ट्रेनिंग दी जा सकी. इसमें बड़े स्तर पर वित्तीय अनियमितता का मामला सामने आया था.
इसी साल मार्च में आई सीएजी की रिपोर्ट में गुजरात सरकार पर नर्मदा, कल्पसर परियोजना, जलसंपत्ति व जलापूर्ति योजनाओं आदि के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाने का आरोप लगा था. उस रिपोर्ट में सीएजी ने कहा था कि सरकार ने बिना किसी योजना के इन कार्यों पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च कर दिए. इस रिपोर्ट में, अडाणी पावर लिमिटेड पर वन व पर्यावरण कानून के उल्लंघन का भी आरोप लगा था, साथ ही कहा गया था कि पावर लाइन डालने की मंजूरी मिलने से पहले ही अडाणी पावर ने अपना काम शुरू कर दिया था.
स्वच्छता के मिशन में भी हो गई लीपापोती
स्वच्छ भारत मिशन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है. इस योजना की शुरुआत के बाद से अब तक प्रधानमंत्री मोदी अपने स्तर पर हमेशा इसे सफल साबित करने की कोशिशें करते रहे हैं. लेकिन उनके गृह राज्य में ही स्वच्छता की इस योजना में बड़े स्तर पर लीपापोती सामने आई है. दरअसल, गुजरात सरकार ने आनन-फानन राज्य को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित कर दिया था. इसे लेकर प्रधानमंत्री ने भी गुजरात सरकार की पीठ थपथपाई थी, जबकि जमीनी हकीकत ओडीएफ के दावों से बहुत दूर थी.
इसके लिए अभी बहुत से काम होने बाकी थे. सरकार ने तो अपने प्रयासों से हकीकत को आंकड़ों से ढक दिया, लेकिन स्वच्छता के इस मिशन में हुई गड़बड़ियां सीएजी की नजरों से नहीं बच सकीं. 19 सितंबर को सार्वजनिक हुई सीएजी की रिपोर्ट में गुजरात में स्वच्छ भारत मिशन के कार्यों और कार्यशैली पर सवाल उठाया गया है. गुजरात विधानसभा में पेश की हुई सीएजी की इस रिपोर्ट में सीधे तौर पर कहा गया है कि ओडीएफ होने का राज्य का दावा गलत था और इसके लिए आंकड़ों में हेरफेर किया गया था. सीएजी की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि शौचालय निर्माण और उपयोग की बात तो दूर, खुद को ओडीएफ घोषित कर चुके इस राज्य के आठ जिलों के 30 प्रतिशत घरों में कोई शौचालय नहीं है. राज्य सरकार ने 2 अक्टूबर, 2017 को ही गुजरात के सभी जिलों को ओडीएफ घोषित कर दिया था.
लेकिन सीएजी रिपोर्ट में जो हैरान करने वाली तस्वीर सामने आई है, उसके अनुसार, 2014-17 की अवधि के लिए आठ चयनित जिलों के तहत 120 ग्राम पंचायतों द्वारा प्रदान की गई जानकारी से पता चला कि वहां के 29 प्रतिशत परिवारों के पास अभी भी शौचालय नहीं है, न ही व्यक्तिगत रूप से और न ही सार्वजनिक. सीएजी रिपोर्ट यह खुलासा तो करती ही है कि किस तरह से आंकड़ों में हेर-फेर करके राज्य को ओडीएफ घोषित कर दिया गया, रिपोर्ट इस हकीकत से भी पर्दा हटाती है कि जो शौचालय बने उनमें से अधिकतर उपयोग के लायक नहीं हैं. सीएजी ने अपनी जांच में पाया है कि 120 गांवों में से 41 में स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए शौचालयों का उपयोग नहीं किया जा सका, क्योंकि वहां पानी का कोई कनेक्शन नहीं था.
स्टैचु ऑफ यूनिटी के खर्च पर सीएजी का सवाल
करीब तीन हजार करोड़ रुपए की लागत से बन रही सरदार पटेल की प्रतिमा पर होने वाले खर्च को लेकर भी सीएजी ने सवाल उठाया है. स्टैचु ऑफ यूनिटी के नाम से बनने वाली सरदार पटेल की 182 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा के निर्माण का ठेका अक्टूबर 2014 में लार्सन एंड टूब्रो को दिया गया था. इसमें गौर करने वाली बात यह है कि इसके लिए सरकारी तेल कम्पनियों से सीएसआर फंड के तहत धन लिया गया है, जिसपर सीएजी ने सवाल खड़े किए हैं. 7 अगस्त 2018 को संसद में पेश सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2016-17 में पांच केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों ने सीएसआर के तहत 146.83 करोड़ रुपए की धन राशि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी परियोजना के निर्माण के लिए दी है.
इनमें से तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) ने 50 करोड़, हिंदुस्तान पेट्रोलियम निगम लिमिटेड ने 25 करोड़, भारत पेट्रोलियम निगम लिमिटेड ने 25 करोड़, इंडियन ऑयल निगम लिमिटेड ने 21.83 करोड़ और ऑयल इंडिया लिमिटेड ने 25 करोड़ रुपए की राशि उपलब्ध कराई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इन कम्पनियों ने सीएसआर की ऐतिहासिक परिसंपत्तियों, कला एवं संस्कृति के संरक्षण के प्रावधान के तहत यह राशि दी है. सीएसआर नियमों के तहत कोई भी सार्वजनिक कम्पनी किसी राष्ट्रीय धरोहर के संरक्षण और रखरखाव के लिए सीएसआर फंड का इस्तेमाल कर सकती है, लेकिन सरदार पटेल की निर्माणाधीन प्रतिमा राष्ट्रीय धरोहर के दायरे में नहीं आती है. इन कम्पनियों के योगदान को कम्पनी अधिनियम- 2013 की सातवीं अनुसूची के अनुसार सीएसआर नहीं माना जा सकता है. इसलिए सीएजी ने कहा है कि तेल कम्पनियों द्वारा इस प्रतिमा के लिए किसी भी तरह का योगदान नियमों के खिलाफ है.
सरदार पटेल की प्रतिमा के निर्माण के मामले में एक तथ्य यह भी है कि इसके लिए देशभर से लौह एकत्र किए गए थे, जिसके लिए बाकायदा अभियान चला था. लेकिन उसके बाद उन लौह उपकरणों का क्या हुआ, इसे लेकर कोई खबर सामने नहीं आई. गौर करने वाली बात यह भी है कि स्टैचु ऑफ यूनिटी की वेबसाइट पर भी इसे लेकर दावा किया गया है कि इस परियोजना के लिए देशभर के किसानों से 1 लाख 69 हजार लोहे के उपकरण एकत्र किए गए हैं.