सीबीआई को लेकर सरकार एक बार फिर चर्चा में है. दरअसल, उसकी विश्वसनीयता पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं. पेश है, सरकार के कार्यकलापों पर एक बेबाक टिप्पणी.
सरकार ख़ुद को एक बार फिर अधिक से अधिक समस्याओं से घेरती जा रही है. जैसे, सीबीआई रिपोर्ट. यह तथ्य सभी को मालूम है कि कैसे सरकार सीबीआई पर दबाव डालती है और कैसे वह उसका इस्तेमाल ख़ुद को लाभ पहुंचाने के लिए करती है. सीबीआई पर दबाव डालना और वह भी एक रिपोर्ट में बदलाव के लिए, एक नई समस्या बन गई है सरकार के लिए. क़ानून मंत्री सीबीआई निदेशक से एक रिपोर्ट में बदलाव के लिए कहते हैं, वह भी तब, जबकि उस मामले को ख़ुद सर्वोच्च न्यायालय सीधे देख रहा है. ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ है.
मुझे लगता है कि वह सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई द्वारा शपथ-पत्र दिए जाने का इंतज़ार कर रहे हैं. सीबीआई सुप्रीम कोर्ट में क्या शपथ-पत्र फाइल करती है, यह प्रासंगिक नहीं है. सीबीआई अगर सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोलती है, तो उसके लिए उसे सुप्रीम कोर्ट से फटकार पड़ेगी. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि वे कौन से कारण थे और ऐसा क्या है, जो क़ानून मंत्री सीबीआई से हासिल करना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने सीबीआई पर दबाव बनाया. जो भी हुआ है, वह बहुत ग़लत हुआ है, इसलिए कम से कम मनमोहन सिंह को ख़ुद सामने आकर इस मामले में न केवल दखल देना चाहिए, बल्कि क़ानून मंत्री के खिलाफ ऐक्शन भी लेना चाहिए.
मुझे लगता है कि वह सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई द्वारा शपथ-पत्र दिए जाने का इंतज़ार कर रहे हैं. सीबीआई सुप्रीम कोर्ट में क्या शपथ-पत्र फाइल करती है, यह प्रासंगिक नहीं है. सीबीआई अगर सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोलती है, तो उसके लिए उसे सुप्रीम कोर्ट से फटकार पड़ेगी. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि वे कौन से कारण थे और ऐसा क्या है, जो क़ानून मंत्री सीबीआई से हासिल करना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने सीबीआई पर दबाव बनाया.
यही कोलगेट मामले में हुआ. बड़ी संख्या में कोयले के ब्लॉक बिना उचित क़ीमत लिए आवंटित कर दिए गए. मुंबई का कोई साधारण-सा व्यवसायी भी आपको बता देगा, अपने कैलकुलेटर या कंप्यूटर पर गणना करके कि किसे कितना फायदा पहुंचाया गया और इस मामले में कितने का नुक़सान हुआ. यही नहीं, कोयला ब्लॉक के लिए कॉरपोरेट हाउसों ने राष्ट्रीयकृत बैंकों से करोड़ों हज़ार रुपये का क़र्ज़ भी लिया है. यह एक तरह से दोहरा नुक़सान हुआ. कोयले का मामला बहुत ही गंभीर है. ऐसा इसलिए भी, क्योंकि कुछ वक्त के लिए कोयला मंत्रालय स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देख रहे थे.
प्रधानमंत्री ने तो यह भी कहा था कि अगर इस मामले में उनकी अप्रत्यक्ष भागीदारी भी साबित हो जाती है, तो वह इस्ती़फा दे देंगे. मैं प्रधानमंत्री को इस्ती़फा देने के लिए सुझाव देने वालों में से एक नहीं हूं, लेकिन जनता इसे जल्दी नहीं भूलने वाली है. इसी प्रकार 2-जी लाइसेंस मामले में चाको रिपोर्ट को देखिए. संसदीय समितियों की एक गरिमा होती है, जो हमेशा बरक़रार रहनी चाहिए, लेकिन चाको ने जो किया है, उससे संसद की गरिमा बढ़ी नहीं, उल्टे उसकी अवमानना ही हुई है. इस कमेटी ने न तो प्रधानमंत्री को जांच के लिए बुलाया और न ही पी चिदंबरम को. आखिर एक मंत्री या प्रधानमंत्री को उक्त कमेटी के समक्ष उपस्थित होने में क्या समस्याएं आ रही थीं? पहले भी एक मंत्री 1966 में लोक लेखा समिति के समक्ष पेश हो चुके हैं. संसदीय समितियां राजनीतिक दलों, सदस्यों एवं संसद का प्रतिनिधित्व करती हैं. ये पार्टी लाइन से ऊपर उठकर काम करती हैं, लेकिन दु:ख की बात यह है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. अब ऐसी कोशिशें की जा रही हैं, जिनसे ऐसी समितियां और संसद केवल नाम की रह जाएं. यह बहुत ही दु:खद स्थिति है, इसलिए जितनी जल्दी चुनाव हों, वही बेहतर रहेगा.