कांग्रेस ने तो चुनावों के लिए अपना मनोबल पूरी तरह से खो दिया है. वहीं भाजपा के सामने आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई चुनौती आ खड़ी हुई है. नरेंद्र मोदी कांगे्रस के लिए आदर्श खलनायक बन चुके थे, लेकिन पुराने मुद्दों पर लड़ाई बहुत दिनों तक अपना महत्व नहीं बनाए रख पाएगी, क्योंकि अब गुजरात दंगे और आर्टिकल 370 मुद्दे नहीं रह गए हैं. अब लड़ाई गवर्नेंस को लेकर होगी और अब मुद्दा यह नहीं होगा कि कौन मजबूत प्रधानमंत्री है और कौन कमजोर.
देश का राजनीतिक माहौल इस समय गर्माया हुआ है. दो बड़ी पुरानी पार्टियां अपने पुराने एजेंडे धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के बीच सिमट कर रह गई हैं. अब इस लड़ाई में एक और नई पार्टी आ गई है और उसके आगमन से दोनों बड़ी पार्टियों को यह तय कर पाने में मुश्किल हो रही है कि आख़िर लड़ाई किस मुद्दे को लेकर होगी? इसके बावजूद दोनों पार्टियां जब भी अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों, का मसला उछलता है, राजनीति करने से नहीं चूकतीं. कुछ तो ऐसा है, जो इन पार्टियों के दिमाग को अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर शिथिल कर देता है और वे कुछ निश्चित दायरे में ही रहकर जवाब देती हैं, चाहे तथ्य कुछ भी हों.
हालिया समाचार यह है कि लश्कर-ए-तैयबा को मुजफ्फरनगर में नए आतंकी बनाने की साजिश करते पाया गया है. इस मामले में दिल को खुश कर देने वाली एक बात यह है कि आतंकी संगठन वहां किसी को इस बात के लिए मनाने में नाकाम रहा. स्थानीय मुसलमानों ने उस तरह व्यवहार नहीं किया, जैसा कि कांग्रेस और भाजपा उनके बारे में बताती हैं. राहुल गांधी ने इस मामले में एक अस्पष्ट विवरण प्रस्तुत किया. उनका निशाना भाजपा की तरफ़ था जिस पर कथित तौर पर दंगे को उकसाने का आरोप था. उनके विवरण के अनुसार, दंगों के बाद भाजपा ने मुसलमानों को अकेला छोड़ दिया, जिसकी वजह से वे लश्कर-ए-तैयबा के लिए आसान निशाना बन गए हैं. भाजपा ने इसका तुरंत जवाब देते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा की तरफ़ निशाना साधा, जिसकी वजह से लश्कर-ए-तैयबा को यह मौक़ा मिल गया. इसके लिए स्थानीय मुसलमानों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने लश्कर-ए-तैयबा के ख़तरनाक इरादों को नाकाम कर दिया. खुशी की बात यह कि पाकिस्तान की भारतीय मुसलमानों के बारे में सोच एक बार फिर गलत साबित हुई.
आम आदमी पार्टी कश्मीर के मसले पर घिर गई, क्योंकि उसने पहले से चले आ रहे उस परंपरागत विचार को नहीं अपनाया, जिसे ये दोनों बड़ी पार्टियां अपनाती आ रही हैं. जब कश्मीर का मामला आता है, तब पुरानी पार्टियां अपना सीजोफ्रनिक नज़रिया लेकर सामने आ जाती हैं. कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है, लेकिन भारत के अन्य हिस्सों की तरह यहां के लोगों को लेकर कोई बहस किए जाने की इजाजत नहीं है. प्रशांत भूषण, कोई अज्ञानी व्यक्ति नहीं हैं, जैसा कि उन्हें प्रचारित किया जा रहा है, ने इस बात पर विचार प्रकट किए हैं कि कश्मीर के लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या वे अपने राज्य मेंे सेना की उपस्थिति चाहते हैं या नहीं? यह एक ऐसा मामला है, जिसे लेकर इरोम शर्मिला पिछले कई वर्षों से लगातार अनशन पर हैं. हमें इस बात की ख़बर मिली है कि जिन जगहों पर अफस्पा क़ानून लगा हुआ है, वहां लोग उसे पसंद नहीं करते हैं. आख़िर क्यों कोई ऐसे सवाल नहीं खड़े कर सकता? आख़िर क्यों संघ परिवार के जूनियर गैंग के सदस्य ऐसा सोचते हैं कि आम आदमी पार्टी के दफ्तर पर हमला किया जाना चाहिए? क्या भाजपा की सरकार आने पर ऐसा आगे भी लगातार होता रहेगा?
चलिए इस बात की आशा करते हैं कि ऐसा नहीं होगा, लेकिन शायद इस तरह की घटनाएं इसलिए हो रही हैं, क्योंकि भारतीय राजनीति में सोचने का जो तरीका है, वह अब पुराना पड़ चुका है. पुरानी पार्टियां अभी भी बंटवारे के दंश के समय के साथ जी रही हैं. दोनों के भारतीयों को भारतीयों के तरीके से देखने में समस्या है. भारतीय लोग इन पार्टियों की निगाह में हिंदू या मुसलमान हैं. बाकी जो बचते हैं, चाहे वे अल्पसंख्यक ही क्यों न हों, उनका कोई विशेष महत्व नहीं है. साथ ही ऐसा पुरानी पार्टियों का मानना है कि भारतीय लोगों पर यह एक खास तरीके का बोझ है कि उन्हें भी अपनी एक ऐसी पहचान बनाए रखनी है, जिससे उन्हें वोट बैंक समझा जाए. यही वह तरीका है, जिसे मंडल कमीशन के बाद उपजी पार्टियां भी देश को समझने का तरीका मानती हैं. इन पार्टियों के इतिहास की शुरुआत 1947 में न होकर इमरजेंसी समाप्त होने के बाद 1979 से शुरू होती है. ये भारत के लिए संकीर्ण क्षेत्रीय विचार रखती हैं. इनके लिए अधिक से अधिक आरक्षण की मांग ही सबसे बेहतर विकल्प है.
क्या आज़ादी के 67 सालों बाद अब ऐसा समय नहीं आ गया है, जबकि हमें एक भारतीय की तरह सोचना चाहिए, न कि किसी जाति या धर्म के आधार पर? ऐसा महसूस होता है कि आम आदमी पार्टी का लोगों के लिए यही संदेश है. दिल्ली देश का हृदय है और यहां उसकी जीत हुई है. इस बात का कोई कारण नहीं है कि इस पार्टी को उसी तरह देखा जाए, जैसे हम पुरानी पार्टियों को देखते हैं और मंडल पार्टियों की तरह (जिनकी सोच कई टुकड़ों में बंटी हुई है). आम आदमी पार्टी ने नया विचार खोजा और दिल्ली के प्रत्येक निवासी को एक समान नागरिक के रूप में देखा, सभी की मांगों पर तुरंत ध्यान दिया. यह विचार पूरे देश में भी फैल सकता है और यही वह कारण है, जिसकी वजह से आप पार्टी के समर्थन में पूरे देश में अप्रत्याशित तेजी देखी जा रही है.
कांग्रेस ने तो चुनावों के लिए अपना मनोबल पूरी तरह से खो दिया है. वहीं भाजपा के सामने आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई चुनौती आ खड़ी हुई है. नरेंद्र मोदी कांगे्रस के लिए आदर्श खलनायक बन चुके थे, लेकिन पुराने मुद्दों पर लड़ाई बहुत दिनों तक अपना महत्व नहीं बनाए रख पाएगी, क्योंकि अब गुजरात दंगे और आर्टिकल 370 मुद्दे नहीं रह गए हैं. अब लड़ाई गवर्नेंस को लेकर होगी और अब मुद्दा यह नहीं होगा कि कौन मजबूत प्रधानमंत्री है और कौन कमजोर. जनता को अच्छी गवर्नेंस चाहिए और यही उसकी समस्या है, जिसका समाधान करना होगा. इसके लिए ऊपर से नहीं, बल्कि ग्रास रूट स्तर पर ऊर्जा का संचार करना होगा. क्या भाजपा ऐसा कर पाएगी?
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