जब लोग गांव को छोड़कर शहरों की ओर भाग रहे थे और शहर महानगरों की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहे थे तब पत्रकारिता भी उसी भेड़चाल में आगे बढ़ चली थी अखबारों के संस्करण राज्यों की राजधानी से दिल्ली की ओर कूच करने लगे थे तब किसी ने भी नही सोचा कि गांवों में बसा भारत आखिर शहरों में कैसे सांस ले सकेगा। इस सत्य को नकारकर कि प़त्रकारिता की जड़ें गांव की धूसर जमीन पर ही पनप सकती है आगे निकल गए। और आज इतने आगे निकल चुके हैं कि गांव की यादें ही शेष रह गई हैं। पत्रकारिता ने धोती कुर्ता उतरकर जींस पहनना सीख लिया और लाटसाहब हो गई। अखबारों में अंचल की खबरों का एक कालम होता है या फिर एक खिचड़ी पन्ना जहां कुछ सूचनाएं होती हैं खबरें नहीं और तो और यह अखबार का पन्ना शहरों या राजधानियों के पन्ने से कुजात सा होता है यानि शहर के लोग गांव की खबरें नही पढते लेकिन गांव के लोगों को शहरी संस्कार काढे की तरह पिलाए जाते हैं। गंवई लोगों को बताया जाता है कि वह तो गंवार के गंवार रह गए देखें शहरों ने क्या तरक्की की है गांवों पर हंसा जाता है कटाक्ष किए जाते हैं कि उनके यहां क्या है न जीने का तरीका न खाने का सलीका। खेतों की मिट्टी से घिन और गोबर से बदबू। बड़ी चतुराई से पत्रकारिता ने अपने को गांवों से दूर कर लिया और गांवों को बस्तर के आदिवासियों की तरह उन्हें उन्ही के कबीलों और जंगलों में कैद कर दिया। प्रिंट ही नही बल्कि आसमान में उड़ते इलेक्ट्रानिक मीडिया ने गांवों को मानों नकार सा दिया है इनके लिए गांव की खबर टीआरपी से जोड़कर देखी जाने लगी। बडे़ अखबारों ने जिलों से संस्करण निकालकर पत्रकारिता को जिंदा रखने की कोशिश में जुटे छोटे और मझौले अखबारों की गर्दन मरोड़ दी। वर्तमान में मीडिया का चाहे कोई भी अंग हो वह लोगों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह ईमानदारी के साथ करने का जोखिम उठाना नही चाह रहा। प़त्रकारिता अब राजपथ पर उनकी अनुयायी बन गई है जिनके हाथ में सत्ता है। प़त्रकार राजनीतिक नहीं बल्कि पार्टी आधारित हो गए हैं वह समाज के दायित्वों और अपने कर्तव्यों को फोटो सेशन की तरह ले रहे हैं। दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य कि सोशल मीडिया ने तथ्यहीन और कचरा खबरों का ऐसा जाल बिछा दिया है कि पत्रकारिता संदेह के घेरे में खड़ी हो गई है। पत्रकारिता के इस दौर को क्या नाम दें यह समझ में नही आता और इसके भविष्य को लेकर कुछ कहना भी झूठ सा लगता है। आज से दस साल पहले भी ऐसी ही कुछ दुविधा थी तब गिने-चुने अखबारों ने राजधानी की सडकों को छोडकर गांव की पगडंडियों का रास्ता पकड़ा क्योंकि आज नही तो कल शहरों को छोड़कर एक दिन लोकतंत्र गांवों की ओर आयेगा। तवे पर हाथ से बनी रोटी की तरह ही पत्रकारिता का स्वाद गांवों में ही मिल सकता है। कबेलू, ओसारा, दहलान, गोबर से लिपा आंगन, कुआं, बावड़ी, ढोर डंगर, मेढ़ ,खेत, पोखर और नदी, नाले, चौपाल और गांव के मुहाने पर चाय पान बीड़ी का टपरा और किराने की छोटी सी दुकान, रात को खेतों में पानी देने के लिए बिजली की किलकिल और फसल तैयार होने पर थ्रेशर की तेज आवाज। ऐसी अनगिनत शब्द है जो प़त्रकारिता के शब्दकोश से बाहर कर दिए गए। इन्हीं शब्दों की तलाश में बीते सालों से बिना रूके चल रहा हूं । नक्षत्रों का खेल है कि यह सफर प्रारम्भ करने के वक्त रिमझिम पानी बरस रहा था और आज भी वातावरण वैसा ही है। हम अपनी पगडंडी के रास्ते पर रोटी प्याज का कलेवा करते ही संतुष्ट हैं क्योंकि हमने प़त्रकारिता के उस रास्ते को चुना है जिस पर चलने में बडे़ बड़े दिग्गज भी नाक मुँह सिकोड़ने लगते हैं।
पत्रकारिता: तवे पर हाथ से बनी रोटी
Adv from Sponsors