ग्रेट ब्रिटेन के आख़िरी प्रधानमंत्री मार्केस ऑफ सेलिसबरी ने हाउस ऑफ लार्ड्स की बैठक के दौरान एक बार महारानी विक्टोरिया से कहा था कि आख़िर सभी लोग बदलाव की बात क्यों करते हैं? वास्तविकता में स्थितियां इतनी बुरी हैं नहीं, जितनी लोगों को महसूस होती हैं. कुछ ऐसा ही मानना कांग्रेस पार्टी का भी है, जब लोग उससे बदलाव के बारे में चर्चा करते हैं. किसी बदलाव के बारे में विचार ही क्यों किया जाए, जब आप अपनी हार के साथ इतना सहज महसूस कर रहे हों. आप खुद को यह विश्वास दिला सकते हैं कि अच्छे दिन एक बार फिर वापस आएंगे. इसके लिए इतिहास का उदाहरण भी लिया जा सकता है.
कांग्रेस का अपने इतिहास के साथ ही ऐसा संबंध है, जिसे भुला दिया जाना चाहिए. उसे लगता है कि वह 129 साल पुरानी पार्टी है, जिसकी नींव 1885 में रखी गई थी, लेकिन सत्य यह भी है कि 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा ही पार्टी तोड़ दी गई थी. 1977 में उन्होंने इसे भी समाप्त कर दिया और 1978 में अपनी नई इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी की स्थापना की. यह पार्टी अपने इतिहास के दौरान पिछले दिनों सबसे बुरे दौर में फंस गई. इस प्रकार 129 साल या 45 साल या 36 साल पुरानी पार्टी फिसल गई. लेकिन, हास्यास्पद रूप से इसमें परिवार विशेष की कोई गलती नहीं है, क्योंकि पिछले 25 सालों में आख़िरकार परिवार से कोई भी आदमी प्रधानमंत्री नहीं बना. क्या भविष्य में परिवार से किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनते देखा जा सकेगा? क्या मनमोहन सिंह इतिहास में आख़िरी कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज हो जाएंगे? वैसे पुरानी पार्टियां पहले भी राजनीतिक पटल से समाप्त हो चुकी हैं. लिबरल पार्टी ऑफ ब्रिटेन ने 1905 में जबरदस्त जीत हासिल की थी. इसके बाद दो बार और भी की, लेकिन 1924 के चुनाव में वह टूट गई और हार गई. फिर दोबारा वह कभी चुनी नहीं जा सकी. यह ज़रूरी नहीं है कि जो बहुत लंबे समय से हो, वह अमर हो जाएगा.
चुनाव के नतीजों के बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि ये क्रांतिकारी नतीजे हैं, बल्कि इन्हें पुनर्जागरण की तरह देखा जाना चाहिए. कुछ चालाक लोग कहते हैं कि हम 1952 के दौर में वापस लौट चुके हैं. उस समय भी एकमात्र बड़ी पार्टी थी, बाकी सब नाममात्र के थे. पंडित जवाहर लाल नेहरू की विपक्षी नेताओं द्वारा अक्सर आलोचना की जाती थी कि वह उनकी बढ़ोतरी के लिए कुछ खास नहीं कर रहे हैं. वे इसके लिए क्षमा भी मांगते थे कि वह चुनाव में इन पार्टियों को हरा देते थे. बड़े ही इत्मीनान से उन्होंने एक के बाद एक तीन चुनाव जीते. और, उसके बाद से ही परेशानी शुरू हो गई. 1967 में विपक्षी पार्टियों ने अपने पंख फैलाए और इंदिरा गांधी ने 1971 में उनके पर कतर दिए. 1977 में एक बार फिर क्षेत्रीय पार्टियों ने फिनिक्स चिड़िया की तरह उड़ान भरी और तीन साल बाद यानी 1980 में उनकी मौत हो गई. इसके बाद कांग्रेस ने एक और सफलता अर्जित की, लेकिन 1989 के बाद से कांग्रेस अपना पुराना गौरव दोहरा पाने में नाकामयाब रही. इसका नतीजा 25 सालों बाद दिखाई पड़ा है.
अब इस समय के विजेता को देखिए. भाजपा ने सबसे बड़ी पार्टी बनकर बाकी दलों को अपने सामने बौना कर दिया है. स्थिति यह हो गई है कि एक लोकसभा में एक आधिकारिक विपक्ष भी नहीं है. मोदी सभी पार्टियों और 125 करोड़ जनता को साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं. इससे पहले नेहरू ने भी क़दम मिला के चलो स्लोगन को भुनाया था. हो सकता है, मोदी भी इस स्लोगन का प्रयोग करें. आज़ादी के दस सालों तक देश के पास एक मजबूत विपक्ष था, भले ही उसकी संख्या बहुत ज़्यादा न हो. इसके बावजूद कांग्रेस का व्यवहार संतुलित ही रहता था, स़िर्फ एक घटना को छोड़कर, जिसमें उसने केरल की वामपंथी सरकार बर्खास्त कर दी थी. उस घटना को हम लोग याद करते हैं. हो सकता है कि एक बार फिर हम लोग उसी जगह पर पहुंच गए हों. मंडल के समय बनीं पार्टियां बहुत कमजोर अवस्था में तो पहुंच ही गई हैं, अगर एकदम समाप्त नहीं हुई हैं तो.
गठबंधन की कमजोर सरकार का दौर केंद्र में समाप्त हो चुका है. कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारें खुद को संभालने में लगी हुई हैं. देश ने सभी मतभेद तो नहीं, लेकिन कई मतभेद किनारे लगाने का निर्णय कर लिया था और वह चाहता था कि केंद्र में मजबूत सरकार बने. गार्जियन अख़बार ने चुनाव के नतीजों को फाइनल डिपार्चर ऑफ ब्रिटिश की संज्ञा दी थी. यह काफी तल्ख टिप्पणी है, लेकिन ब्रिटिश राज और कांग्रेसी शासन के बीच एक सततता तो थी ही. मैकॉले समय में बनाए गए इंडियन पैनल कोड को ही लागू किया गया. ब्रिटेन में तो इस पैनेल कोड में सुधार कर लिए गए, लेकिन अपने देश में ऐसा होना संभव नहीं हो सका. भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद का संग्रहालय बना रहा. शायद इसी वजह से युवा इन तरीकों में बदलाव करने को बेताब हैं. आख़िरकार एक ऐसी पार्टी के पास सत्ता आई है, जिस पर इतिहास का कोई दबाव नहीं है. यह एक ऐसी पार्टी है, जो आज़ादी के बाद अस्तित्व में आई और उसका नेता भी ऐसी उम्र का है, जो पार्टी की उम्र से मेल खाता है. यह एक पुनर्जागरण है, जो एक क्रांति का वादा करता है. अब हमारे पास एक ऐसी नौकरशाही होनी चाहिए, जो नियमों से चिपके रहने से ज़्यादा नतीजों में विश्वास करती हो. अब नए भारत के साथ न्याय होना चाहिए, जहां महिलाओं, थर्ड जेंडर, समलैंगिकों को विक्टोरियन समय के नियमों के सामने पीड़ित नहीं होना पड़ेगा. आइए, एक नए भारत की खोज करते हैं.
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