यूं तो तीसरा मोर्चा बनाने की नूरा-कुश्ती हिंदुस्तान की सियासत में पिछले पच्चीस सालों से चल रही है, लेकिन इस कवायद में लगे नेताओं की, मैं भी प्रधानमंत्री-मैं भी प्रधानमंत्री वाली हसरतों ने इसे ठोस शक्ल अख्तियार करने ही नहीं दिया. आने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र तीसरे मोर्चे के गठन में एक बार फिर सियासी बवंडर उठने लगे हैं, लेकिन इसमें शामिल होने वाले मौकापरस्त और शातिर नेता झूठी हेकड़ी की वजह से अपनी ज़मात इकट्ठा ही नहीं कर पा रहे. नतीजतन, इसकी आड़ में चौथा मोर्चा तो आकार लेता नज़र आ रहा है, पर तीसरे मोर्चे की परिकल्पना एक बार फिर हवा-हवाई होती दिख रही है.
मुलायम सिंह यादव और मायावती किसी भी क़ीमत पर एक साथ खड़े नहीं हो सकते. तमिलनाडु में एम करुणानिधि भी जयललिता के साथ चलने के लिए राजी नहीं हैं. उधर, कांग्रेस ने राज्यसभा चुनाव में भले ही करुणानिधि की पार्टी द्रमुक के प्रत्याशी को समर्थन दिया हो, पर इस बात की संभावना नहीं के बराबर ही दिखती है कि करुणानिधि अगले लोकसभा चुनाव में यूपीए को समर्थन भी देंगे. जयललिता भले ही नरेंद्र मोदी की बहुत अच्छी दोस्त हों, पर वह भाजपा के साथ खड़ी नहीं हो सकतीं, क्योंकि जयललिता ने हमेशा तीसरे मोर्चे के पक्ष में ही बयान दिया है.
राजनीति में नामुमकिन कुछ भी नहीं होता. 1975 और 1989 के तजुर्बे भी यही बताते हैं कि सियासत की मजबूरियां धुर विरोधी दलों और विचारधाराओं को भी एक साथ खड़ा कर सकती हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने के ख्वाहिशमंद दलों के नेताओं में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके बीच वैचारिक स्तर पर आपस में कोई सामनजस्य ही नहीं है. ये नेता एक-दूसरे को बर्दाश्त तक नहीं कर सकते. मसलन, उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी, दोनों को ही तीसरे मोर्चे की तलाश है, पर मुलायम सिंह यादव और मायावती किसी भी क़ीमत पर एक साथ खड़े नहीं हो सकते. तमिलनाडु में एम करुणानिधि भी जयललिता के साथ चलने के लिए राजी नहीं हैं. उधर, कांग्रेस ने राज्यसभा चुनाव में भले ही करुणानिधि की पार्टी द्रमुक के प्रत्याशी को समर्थन दिया हो, पर इस बात की संभावना नहीं के बराबर ही दिखती है कि करुणानिधि अगले लोकसभा चुनाव में यूपीए को समर्थन भी देंगे. उधर, जयललिता भले ही नरेंद्र मोदी की बहुत अच्छी दोस्त हों, पर वह भाजपा के साथ खड़ी नहीं हो सकतीं, क्योंकि उन्होंने हमेशा तीसरे मोर्चे के पक्ष में ही बयान दिया है. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलकर जयललिता ने नए विकल्पों पर बात की है. हालांकि वह इस मसले पर फैसला चुनाव के बाद ही करेंगी. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जदयू भी इसी कश्मकश से गुज़र रहे हैं, क्योंकि ये दोनों दल एक साथ किसी एक मोर्चे में नहीं रह सकते. ऐसे में जाहिर है कि आने वाले लोकसभा चुनाव की लड़ाई चौतरफ़ा ही होगी और यूपीए एवं एनडीए, दोनों गठबंधनों के चुनावी समीकरणों में उलट-फेर होने की पूरी गुंजाइश भी बनती है. इन नेताओं की अदावत पर नज़र डालें, तो बड़ी ही सहजता से चौथा मोर्चा अपनी शक्ल लेता हुआ नज़र आता है.
बहरहाल, हम बात कर रहे हैं तीसरे मोर्चे के गठन और उनकी संभावनाओं की. इन दिनों कुछ चुनावी सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि देश के लोगों का मिजाज क्षेत्रीय दलों की ओर झुक रहा है. इस लिहाज़ से अगले लोकसभा चुनाव में ये तमाम क्षेत्रीय दल मिल-जुल कर एक बड़ी ताक़त के तौर पर भी उभर सकते हैं. यही वज़ह है कि इस तीसरे मोर्चे में वह हर पार्टी शामिल होना चाहती है, जो अपने आपको भाजपा और कांग्रेस से अलग दिखाना चाहती है. पर तीसरे मोर्चे की विडंबना यह है कि पिछले पच्चीस सालों में हिंदुस्तान की सियासत में यह बस एक मिथक बनकर रह गया है, लेकिन जब-जब तीसरे मोर्चे के गठन की बयार बहती है, तब-तब कुर्सी की जंग में तीसरा मोर्चा बनते-बनते बिखर जाता है. दरअसल, तीसरा मोर्चा इतनी बार बना और बिखरा है कि अब इसे देश की जनता गंभीरता से नहीं लेती. इसलिए पिछले दिनों जब मुलायम सिंह यादव ने तीसरे मोर्चे का अपना पुराना राग अलापा, तो वहीं उनकी बात गंभीरता से नहीं ली गई. इसकी एक वज़ह शायद यह भी रही कि एक तरफ़ मुलायम सिंह भाजपा से अलग दिखने की जद्दोजहद में तीसरे मोर्चे की बात करते हैं, तो दूसरी तरफ़ उनके भाई राम गोपाल यादव लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ में कसीदे काढ़ते नज़र आते हैं. हालांकि यह वही समाजवादी पार्टी है, जिसकी पहल पर यूएनपीए बना था और जिसमें वे सभी पार्टियां शामिल हुई थीं, जो न एनडीए में थीं और न ही यूपीए में, लेकिन बाद में समाजवादी पार्टी ही यूएनपीए से अलग हो गई और उसने यूपीए के पक्ष में अपना समर्थन दे दिया.
मौ़के की नजाकत भांपते हुए जहां एक ओर ममता बनर्जी ने फेडरल फ्रंट के नाम से एक नया सियासी शिगूफा छोड़ा, तो वहीं दूसरी ओर तेलगु देशम प्रमुख चंद्र बाबू नायडू ने भी अपना क़दम बढ़ा दिया. उधर नवीन पटनायक भी देश की जनता के सामने अपने आपको कांग्रेस एवं भाजपा से दूर और अलग दिखाने की कोशिश में तीसरे मोर्चे की आग को हवा देने में लग गए. तीसरे मोर्चे की वकालत कर रहे नेताओं में से नवीन पटनायक को छोड़कर, बाकी सभी की इस सियासी जंग में पहचान गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी की ही रही है, पर मुश्किल फिर वही आएगी कि ममता के फेडरल फ्रंट में मुलायम सिंह यादव शामिल नहीं हो सकते, तो ऐसे में उनके क़रीबी वामदलों का तो ममता के साथ जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता.
यही वज़ह है कि कई मौक़ों पर कांग्रेस के संकटमोचक बने मुलायम सिंह यादव कोई अलग राह तलाश रहे हैं, तो कांग्रेस के हर फैसले में तक़रीबन उसकी हमक़दम रहने वाली एनसीपी को भी तीसरे मोर्चे की ज़रूरत महसूस हो रही है. कृषि मंत्री एवं एनसीपी नेता शरद पवार ने अपनी रणनीति पर बाकायदा अमल करना भी शुरू कर दिया है. पवार ने बीजू जनता दल एवं सीपीआई (एम) से लोकसभा चुनाव के पहले ही गठबंधन की बात की है, तो साथ ही साथ वह एनडीए एवं यूपीए में शामिल अन्य दलों से भी बातचीत कर रहे हैं. चुनाव के बाद के समीकरणों को नज़र में रखते हुए उन्होंने शरद यादव से भी बातचीत की है, लेकिन फिलहाल पेंच वहीं आकर फंस रहा है, यानी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर. शरद पवार की पुरानी हसरत है कि वह प्रधानमंत्री बनें और ऐसे ही सपने उन सभी महारथियों के भी हैं, जो तीसरे मोर्चे का परचम लहराना चाहते हैं. उस पर तुर्रा यह कि ये सभी नेता एवं पार्टियां मिलकर भी सवा सौ-डेढ़ सौ से ज़्यादा सांसद लोकसभा में नहीं ला सकते. इसके अलावा, राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चे के गठन के लिए जिस तरह की एकजुटता, लचीलेपन, समन्वय, अनुभव, ढांचे और वैचारिक एकता की ज़रूरत है, उसकी घोर कमी नज़र आती है. ममता बनर्जी ने भी अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि उनका फेडरल फ्रंट एक प्रेशर ग्रुप के तौर पर काम करेगा, या गैर कांग्रेस और गैर भाजपा मोर्चा के तौर पर. सवाल यह है कि क्या फेडरल फ्रंट देश की सत्ता पर इसी बहाने काबिज़ होने की भी जुगत करेगा. दरअसल, मुद्दों के अकाल के बीच तीसरे मोर्चे के गठन का सियासी बवंडर खड़ा करना भी आज राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा मुद्दा है. मोर्चे का गठन हो न हो, पर फौरी तौर पर इसके बड़े फ़ायदे जरूर मिल जाते हैं, क्योंकि कम से कम इसी बहाने राष्ट्रीय राजनीति के हाशिए पर पड़े नेता चर्चा में आ जाते हैं. हालांकि देश को इस वक़्त तीसरे मोर्चे की सख्त ज़रूरत है, लेकिन यह तभी संभव है, जब कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही मिलाकर लोकसभा में दो सौ बहत्तर से भी कम सीटें लाएं. उदाहरण के तौर पर हम एग्जिट पोल पर भी नज़र डालें, तो उसके हिसाब से कांग्रेस एक सौ पच्चीस और भाजपा दो सौ के आसपास सीटें ला सकती है. अगर हम इसे सही मान लें, तो यह आंकड़ा कुल मिलाकर तीन सौ पच्चीस होगा. अब क्या ऐसे में तीसरा मोर्चा सत्ता में आ सकता है या वह सरकार बना सकता है? तब इस तीसरे मोर्चे को सरकार बनाने में मदद लेने के लिए भाजपा या कांग्रेस का ही मुंह देखना पड़ेगा. बात फिर वही हो जाएगी. या तो देश में कांग्रेस नीत सरकार बनेगी या फिर भाजपा नीत. ऐसे में तीसरे मोर्चे का कोई वजूद ही नहीं रह जाएगा. मतलब यह कि तीसरा मोर्चा एक बार फिर मुंह की खाएगा.
चलिए पल भर के लिए मान लेते हैं कि तीसरा मोर्चा बन गया और उस स्थिति में कांग्रेस एवं भाजपा, दोनों ही मिलकर दो सौ बहत्तर सीटें नहीं ला पाईं, तो ऐसी स्थिति में मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी. तब सबसे बड़ा प्रश्न यह होगा कि तीसरे मोर्चे में शामिल नेताओं में से प्रधानमंत्री कौन बनेगा, क्योंकि इस पार्टी में लगभग सभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे! अगर यहां प्रधानमंत्री बनने का मानक यह तय किया जाएगा कि जो पार्टी सबसे बड़ी होगी, यानी सबसे ज़्यादा सीटें ले आएगी, उसका नेता प्रधानमंत्री बनेगा, तब तो एक अनुमान के तौर पर, फिलहाल हम यह मानकर चलें कि सबसे बड़ा राज्य होने के नाते उत्तर प्रदेश से मुलायम सिंह तीसरे मोर्चे में सबसे अधिक सीटें लेकर आएंगे, तो क्या ऐसे में उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा. पर यहां एक और स्थिति खास होगी. वह यह कि लगभग सभी पार्टियों की ताक़त बराबर होगी. तब कौन, किसकी सुनेगा? क्या सभी किसी भी मसले पर एक राय हो सकेंगे? अब अगर नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बना दिया जाए, तो क्या यह बात मुलायम सिंह सह पाएंगे? फ़र्ज़ कीजिए कि नीतीश बन भी गए, तो फिर वह सरकार मुलायम सिंह के रहमोकरम पर ही रहेगी. ऐसे में उस सरकार के कितने दिनों तक टिकने की संभावना रहेगी, इसका आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं. मतलब यह है कि यदि इन विचारधाराओं के आधार पर भी फिलहाल आकलन करें, तो कोई गैर भाजपा या गैर कांग्रेसी ताक़त आकार लेती नज़र नहीं आ रही है. पर हां, इटली की तर्ज़ पर हिंदुस्तान में भी एक नया राजनीतिक प्रयोग देखने को ज़रूर मिल सकता है, जिसमें एनडीए और यूपीए की शक्ल में दो मोर्चों की बजाय चार मोर्चे नज़र आएं. हालांकि इटली के लिए यह राजनीतिक प्रयोग बेहद घातक सिद्ध हुआ है. यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की हालत आज बहुत नाज़ुक है, लेकिन अपने देश के संदर्भ में हम बेहतर की ही उम्मीद करें, तो अच्छा है.
अब बात करते हैं तीसरे मोर्चे के संदर्भ में वामदलों की भूमिका और उनके नज़रिए की. हिंदुस्तान में थर्ड फ्रंट की अगुवाई हमेशा वामपंथी दलों ने ही की है, क्योंकि उन्हें भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति की मुखालफत करते हुए एक धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की अवधारणा कायम रखनी थी. इसलिए भी वामपंथी दलों ने अपने आर्थिक और अन्य कार्यक्रमों की रूपरेखा अन्य दलों से बिल्कुल अलग रखी. देश के सियासी हालात में तेज़ी से आते बदलाव और ममता बनर्जी की कोशिशों ने वामदलों के अंदर अकुलाहट भर दी है. वैसे भी, वामपंथियों को पश्चिम बंगाल में अपना वजूद कायम रखने की लड़ाई अभी भी लड़नी है. इसलिए ममता के साथ किसी मोर्चे में शामिल होने की बात वे सपने में भी नहीं सोच सकते. अपना अस्तित्व बनाए रखने की खातिर, उनके लिए बेहद ज़रूरी है गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी विकल्प बनाने की, ताकि उनकी जद्दोज़हद जारी रहे. यही वज़ह रही कि जहां एक ओर माकपा नेता सीताराम येचुरी ने शरद यादव से इस मसले पर मुलाक़ात की और तमिलनाडु के राज्यसभा चुनाव में द्रमुक को समर्थन देने का ़फैसला किया, तो वहीं दूसरी ओर भाकपा महासचिव ए बी वर्धन से भी मिलकर इस मुद्दे पर विचार-विमर्श किया. जो ख़बरें आ रही हैं उनके मुताबिक़, वामपंथी नेताओं ने अपनी रणनीति के तहत लामबंदी की शुरुआत भी कर दी है. संभावना इस बात की भी जताई जा रही है कि वामपंथी और लोकतांत्रिक दल कोई औपचारिक मोर्चा न बनाएं, बल्कि वे चुनावी तालमेल का ही कोई रास्ता अख्तियार कर लें. वज़ह यह है कि इस वक़्त वामपंथी दल भटकाव की हालत में हैं. वरना जब तीसरे मोर्चे की आवश्यकता सबसे ज़्यादा महसूस हो रही हो, उस समय देश के सबसे बड़े वामपंथी नेता प्रकाश करात अगर यह कहें कि चुनाव के पहले तीसरे मोर्चे के गठन की कोई संभावना ही नहीं बनती है, तो इसका मतलब यही है कि फिलहाल वामदलों की धुरी में केंद्र नहीं है. जिस समय मुलायम सिंह, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक सभी ममता बनर्जी की बात कर रहे हों, ऐसे में यदि उसी समय प्रकाश करात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन नीतियों की तारीफ करने लगें, तो यह बात सहज ही समझ में आ जाती है कि वामपंथी चाहते हैं कि कांग्रेस की मदद से पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी को उखाड़ फेंकें, ताकि वहां वे अपना वजूद फिर से कायम कर सकें. इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि वे कांग्रेस का समर्थन भी कर सकते हैं. इन तमाम हालात, राजनीतिक दलों के निजी हितों और उनके आधार पर बनते-बिगड़ते समीकरणों पर यदि गौर करें, तो बस एक ही बात समझ में आती है कि तीसरे मोर्चा बनाने की आपाधापी करने वाले तमाम राजनीतिक दलों का मकसद यह कतई नहीं कि वे तीसरा मोर्चा बनाकर देश को एक नई सरकार दें, जो वाकई धर्मनिरपेक्ष हो. जिसका उद्देश्य देश को सा़ङ्ग-सुथरा एवं भ्रष्टाचार विरोधी शासन देना हो, जो ऐसी नीतियां बनाए, जिससे आम हिंदुस्तानी रोज़मर्रा की दुश्वारियों से निजात पा सके और उसकी ज़िंदगी सहज और आसान हो सके. इसके विपरीत उनका मकसद स़िर्फ इतना भर है कि वे सभी दल मिल-जुल कर एक ऐसा तीसरा मोर्चा बनाएं, जो किसी तरह केंद्र में बनने वाली किसी भी सरकार पर दबाव बनाए रख सकें, जिससे उनकी जायज़-नाजायज़ सियासी ख्वाहिशें पूरी होती रहें.
देश को इस वक़्त तीसरे मोर्चे की सख्त ज़रूरत है, लेकिन यह तभी संभव है, जब कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही मिलाकर लोकसभा में दो सौ बहत्तर से भी कम सीटें आएं. उदाहरण के तौर पर हम एग्जिट पोल पर भी नज़र डालें, तो उसके हिसाब से कांग्रेस एक सौ पच्चीस और भाजपा दो सौ के आसपास सीटें ला सकती है. अगर हम इसे सही मान लें, तो यह आंकड़ा कुल मिलाकर तीन सौ पच्चीस होगा. अब सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे में तीसरा मोर्चा सत्ता में आ सकता है या वह सरकार बना सकता है? तब इस तीसरे मोर्चे को सरकार बनाने में मदद लेने के लिए भाजपा या कांग्रेस का ही मुंह देखना पड़ेगा.
तीसरा मोर्चा : कैसे बनेंगे प्रधानमंत्री
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