वाशिंगटन में एक परेशान करनेवाली सरगोशी चल रही है. बराक ओबामा अपने पहले कार्यकाल के दौरान ही शांति की स्थापना चाहते हैं. उन्होंने वह जादुई और ताक़तवर नुस्खा खोज लिया है, जो दो विषैले पौधों-फिलिस्तीन और कश्मीर-की जड़ों को ख़त्म कर देगा. उन्होंने इज़राइल से कहा है कि वह जुलाई के अंत तक एक स्वतंत्र फिलीस्तीन की निश्चित कार्ययोजना चाहते हैं. जुलाई ही वह महीना है, जब हिलेरी क्लिंटन भारतीय उपमहाद्वीप के दौरे पर आने वाली हैं. ज़ाहिर तौर पर, उनके बस्ते में अफ-पाक के लिए युद्ध-संहिता और भारत-पाक के लिए शांति का नुस्खा होगा.
हिलेरी क्लिंटन के लिए यहीं कुछ अच्छी ख़बर है. कश्मीर समस्या पहले ही सुलझ चुकी है. दरअसल इसे एक जनवरी 1948 को ही सुलझा लिया गया था. उसी दिन जब भारत और पाकिस्तान ने अपनी फौजों को युद्धविराम रेखा के पास रोक दिया था, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने मान्यता दी थी. 1972 में शिमला समझौते के तहत, उन्होंने इसे नया नाम नियंत्रण रेखा का दिया था. कुछ ही अंतरराष्ट्रीय समझौते ऐसे हैं जो इतनी उठापटक के बावजूद अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं. इस समझौते को तो युद्ध के हरेक स्वरूप का ताप सहना पड़ा है-नियमित से लेकर अनियमित और परोक्ष तक. पाकिस्तान ने 1965 में कश्मीर का नक्शा बदलने की कोशिश की थी. जनवरी 1966 में इसने सहमते हुए ताशकंद में युद्धविराम-रेखा की प्रासंगिकता को क़ायम रखने की कोशिश की, जब भारत और पाकिस्तान ने एक-दूसरे की जीती हुई ज़मीन लौटा दी थी.
छह दशकों के संघर्ष के बाद भी एक ओर से दूसरी ओर छह इंच की घास का भी अतिक्रमण नहीं हुआ. अगले छह दशकों का संग्राम या नपुंसकता भी भूगोल को नहीं बदलनेवाली है. हिलेरी क्लिंटन इस समस्या को उतने ही मिनटों में सुलझा सकती हैं, जितने मिनटों में भारत और पाकिस्तान सहमत होकर नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा घोषित कर दें. पंजाब और बंगाल का विभाजन हो चुका है. कश्मीर तीसरा सबसे बड़ा राज्य होगा, जिसका औपचारिक तौर पर बंटवारा होगा. साथ ही, 1947 की राख को विभाजन की हडि्डयों के साथ ही द़फन किया जा सकता है.
भारत इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार है. पाकिस्तान को शायद मनाने की ज़रूरत पड़े. उसे कहना होगा कि बहस और विवाद की जटिलता से कुछ भी मिलने को नहीं और जो कुछ भी मिलेगा, वह साफगोई से ही मिलेगा.
फिर, स्वाधीनता की उन आकांक्षाओं का क्या, जो आम तौर पर कश्मीरियों की भावना से जोड़ दी जाती हैं. यह एक भ्रामक धारणा है. 1947 में ब्रिटिश सैनिकों की वापसी की शर्तें बिल्कुल साफ थीं. ब्रिटिश साम्राज्य के किसी भी हिस्से, अधीनस्थ राज्य या शाही रियासतों को स्वतंत्रता का विकल्प नहीं दिया गया था. स्वाधीनता की संभावना उछालने वाले राज्यों की सूची काफी लंबी है. जोधपुर-जूनागढ़, त्रावणकोर-कोचीन, हैदराबाद, बलूचिस्तान और स्वात तो इनमें से कुछ नाम मात्र हैं. हसन शहीद सुहरावर्दी और शरत चंद्र बोस की सोच से एकीकृत और स्वाधीन बंगाल का विचार शानदार था. पाकिस्तान ने 1947 में जनजातीय छापामारों को हथियार से लैस कर श्रीनगर की तऱफ इसलिए नहीं भेजा था कि कश्मीर स्वतंत्र हो सके. कराची मुस्लिम-बहुल घाटी को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था. इसने स्वाधीनता का राग अलापना तभी शुरू किया, जब भारतीय सेना की दखल की वजह से इसका कश्मीर पर अधिकार करने का सपना टूट गया. यह सभी तथ्य सत्य हैं, भले ही कड़वे हों. कश्मीरियों की छह दशक से जारी ठंडी सांसों से भी यह तथ्य बदलने वाले नहीं हैं.
पाकिस्तान 1947 और 48 में एक शांतिपूर्ण समझौते को अपना सकता था. जम्मू और कश्मीर के बारे में अंतिम ़फैसला थोड़े दिन तक टाला जा सकता था. नेहरू ने लॉर्ड माउंटबेटन को लिखी एक चिट्ठी में कहा भी था कि वार्ता 1947 के बसंत के बाद शुरू हो सकती है. यह भी संभव है कि पाकिस्तान शायद बातचीत के ज़रिए थोड़ी अधिक ज़मीन पा सकता था, बनिस्बत जितनी इसने हिंसा के ज़रिए पाई. इतिहास हालांकि मूर्खताओं के लिए पुरस्कार नहीं देता. ़िफलहाल तो एक तर्कसंगत बात यही होगी कि इस महंगे अध्याय को वहीं बंद कर दिया जाए, जहां इतिहास ने अपने पदचिह्न छोड़े हैं.
यह सामान्य ज्ञान की बात है कि वाशिंगटन बेसब्री से भारत-पाक वार्ता का अगला दौर चाहता है. वह भी दोनों देशों की सेनाओं के प्रमुखों के बीच, न कि दोनों सरकारों के प्रमुखों के बीच. काबुल और दिल्ली के बीच के इलाक़ों में शांति और स्थिरता के लिए तालिबान जैसे आतंकी और धार्मिक उन्मादियों की तऱफ से ख़तरा बढ़ा हुआ है. यहां स्थिरता ज़ाहिर तौर पर भारत और पाकिस्तानी फौजों के बीच सहयोग से ही क़ायम की जा सकती है. यह तब तक संभव नहीं है, जब तक सैनिक बिना किसी लक्ष्य के किए जा रहे इस युद्ध से थक नहीं जाते. भारत पाक-अधिकृत कश्मीर के अंदर से ज़मीन नहीं चाहता. पाकिस्तान भारत के क़ब्ज़े से एक गज़ ज़मीन भी नहीं ले सकता. तो, फिर आख़िर एक स्वनाशी अहंकार के अलावा विवाद क्या है?
युद्ध की समाप्ति-अगर ऐसा हो भी जाए तो- निश्चित तौर पर सहयोग का पर्यायवाची नहीं है. भारत और पाकिस्तान को यह समझने में समय लगेगा कि दोनों ही एक-दूसरे के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं. समृद्धि को सही मायनों में चमक व्यापार देता है, जो इस्लामिक पहचान से अधिक दूसरे कारकों पर निर्भर करता है. भारत की औद्योगिक ताक़त और पूंजी के भय को धीरे-धीरे ही कम करना होगा. आतंकी, जो भारत की हरेक चीज़ से नफरत करते हैं, शांतिपूर्वक ग़ायब नहीं हो जाएंगे. हालांकि इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता कि दो परमाणु ताक़तें एक ओर तो आंतरिक आक्रामकता से लैस हों और दूसरी तऱफ अपमानजनक बेरुखी अपनाएं.
स्पष्ट तथ्य हमारे सामने हो सकते हैं, लेकिन हमारे पास उसे देखने की दृष्टि होनी चाहिए. हिलेरी क्लिंटन बेहतर कर सकती हैं, अगर वह इस दृष्टि को विकसित कर आएं. साथ ही, विशेष ताक़त वाले चश्मे भी उनके हैंडबैग में हों तो और अच्छा. वह इस्लामाबाद में बैठे उनके मित्रों के लिए बेहतर उपहार साबित होंगे.
Adv from Sponsors