Santosh-Sir

जब जनता में निराशा ज्यादा बढ़ जाती है, तो वह निराशा एक बड़े तूफान की भूमिका भी बना जाती है. अब यह सरकार और राजनीतिक तंत्र के सोचने की बात है कि वह जनता को किस हद तक अनदेखा करेंगे और किस हद तक उसे चिढ़ाएंगे, जिसके परिणामस्वरूप जनता कहीं कानून हाथ में न लेने लगे.

जब सरकार का इकबाल खत्म हो जाता है और प्रशासन की साख खत्म हो जाती है, तब ऐसी घटनाओं की भरमार हो जाती है, जिन्हें नहीं होना चाहिए. दिल्ली में एक चलती बस में एक नालाबिग और चार बालिग लड़कों ने एक लड़की का अमानवीय बलात्कार किया, जिसके खिलाफ पूरी दिल्ली खड़ी हो गई. उस गुस्से को देखकर ऐसा लगता था कि शायद अब बलात्कार नहीं होंगे. और अगर होंगे, तो लोगों का गुस्सा या तो बलात्कारियों को सीधे दंडित करेगा या सरकार दंडित करेगी, लेकिन सरकार का सारा रवैया लोगों के इस गुस्से को लेकर अमानवीय भी रहा और असंवेदनशील भी, जिसकी वजह से जहां सामान्य जन में सरकार के प्रति घृणा की भावना पैदा हुई, वहीं इसने अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को अपराध करने के प्रति उकसाया भी. अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को लगा कि सरकार लोगों के रोष के खिलाफ खड़ी है, यानी उनके साथ खड़ी है. दूसरी बात उनके मन में यह भी आई कि अगर हम ऐसी ही अमानवीय घटनाओं को अंजाम देते रहे, तो सरकार हमारा कर क्या लेगी? हम सरकारी मशीनरी को प्रभावित कर आसानी से छूट जाएंगे. इस संदेश ने देश में बलात्कार की बाढ़-सी ला दी. देश के हर हिस्से में क्या नाबालिग, क्या बच्चे, क्या जवान और क्या अधेड़ महिलाएं कोई भी उम्र, बलात्कारियों से बच नहीं पा रही है. परिणाम यह दिखाई दे रहा है कि लोगों में हताशा भी पैदा हो रही है और निराशा भी. अब बलात्कार की घटनाओं को लेकर कहीं पर भी गुस्से का इजहार नहीं हो रहा है.
वर्षों से बुंदेलखंड में एक कथन प्रचलित है कि अगर किसी की हत्या करनी है तो उससे पहले 11 बीघे गन्ना उपजाओ और फिर गन्ना बेचकर जितना पैसा आए, उसे पुलिस और अदालत पर खर्च कर दो तो हत्या करके आसानी से बच सकते हो. यह पैसा पुलिस और अदालत के कर्मचारियों में बांटने के लिए रिजर्व रखा जाता है. इसी तरह अब बलात्कार के लिए पहले शिकार तलाशा जाता है और उसका सामूहिक बलात्कार होता है और फिर लॉ इन्फोर्स करने वाली एजेंसियों में पैसा पहुंचा दिया जाता है. इसका पहला परिणाम यह होता है कि थाने में पीड़ित महिला की रिपोर्ट ही नहीं लिखी जाती. मैंने कई ऐसी रिपोर्टिंग की है, जिनमें बलात्कार पीड़ित महिला थाने में शिकायत लेकर गई तो उसकी शिकायत तो दर्ज नहीं ही हुई, बल्कि उसे थाने में तीन-चार दिन जबरन रोका गया और पुलिस द्वारा ही पीड़िता का बलात्कार किया गया. ऐसी खबरें कभी-कभी अखबारों में भी आईं, लेकिन उन्हें अधिकारियों ने या तो अनदेखा किया या फिर प्रकरण को दबा दिया.
अब तो अपराध करने वाले इतने निश्चित हो गए हैं कि वे पुलिस और प्रशासन तथा राजनेताओं को अपराध क्षेत्र में अपना सहभागी मानने लगे हैं. और क्यों न मानें! जब सत्ता चलाने वाले मंत्रियों के कमरे में टहलते हुए जाया जा सकता है और जैसी मर्जी हो, वैसी फाइल उठाकर कोई भी बाहर चला जाता है और फिर सर्वशक्तिमान सरकार के अपराध पकड़ने वाले तंत्र ऐसी घटनाओं का पता ही नहीं लगा पाते, तब कैसे इन छोटे अपराधियों के मन में डर बैठाया जा सकता है.
इसी को इकबाल खत्म होना कहते हैं. हमारे वर्तमान राष्ट्रपति जब वित्तमंत्री थे, तो उनके कमरे में जासूसी यंत्र पाए गए थे. तीन दिन के बाद सरकार ने कहा कि वह यंत्र नहीं थे, च्विंगम था. सरकार अपनी बेइज्जती छिपाना चाहती थी और शायद अपनी नाकामी भी. इस घटना के पीछे कौन है, इसका पता नहीं चला. हालांकि वित्त मंत्रालय और गृह मंत्रालय के महत्वपूर्ण कमरों के बाहर और भीतर सेंसर लगे हुए हैं. इन कमरों में कौन जाता है, यह वहां छिपे हुए कैमरे रिकॉर्ड कर लेते हैं, लेकिन न तो कैमरों में रिकॉर्ड छवि को देश के सामने रखा गया और न ही यह बताया गया कि जब-जब ऐसी घटनाएं हुईं, तब सेंसर काम कर रहा था या नहीं.
प्रधानमंत्री से जुड़े कोयले के दस्तावेज वाली फाइलें इसी अंदाज में गायब हुईं, जिनका पता न कैमरे लगा पा रहे हैं, न सेंसर लगा पा रहा है. ऐसी अभेद्य सुरक्षा बनाई गई है, जिसमें जब चाहे, तब सेंध मारी जा सकती है. और सरकार मुस्कराते हुए कहती है कि ऐसा कुछ होता ही नहीं, ये कपोल-कल्पानाएं हैं. सरकार की इन हरकतों ने खुद सरकार की और प्रशासन की साख खत्म कर दी है.
दरअसल, सरकार का सारा ध्यान उन्हें चेतावनी देने वाले या उन्हें सार्थक सलाह देने वाले की जुबान कैसे बंद हो, इस पर रहता है. रिजर्व बैंक के ट्रेजरी पर जांच एजेंसियों का छापा पड़ता है और वहां बड़ी मात्रा में नकली नोट पाए जाते हैं. जब यह रिपोर्ट प्रामाणिकता के साथ छापी जाती है कि नकली नोटों की सप्लाई रिजर्व बैंकों के जरिये भी हो रही है तथा इसके पीछे कौन-सी देशी-विदेशी कंपनियां काम कर रही हैं, तो सरकार इस पूरे किस्से को दबाने की कोशिश करती है और यहां पर भी जो लोग ऐसी खबरों का खुलासा करते हैं, सरकार उन्हें प्रता़डित करने में लग जाती है.
जहां सरकार अपना इकबाल खुद खत्म कर रही है, वहीं वह आर्थिक अपराध करने वालों को न केवल प्रोत्साहित कर रही है, बल्कि छोटे अपराधियों के लिए अभयदान जैसा माहौल बना रही है. न सरकार सख्त है, न प्रशासन सख्त है. कोई भी केस वर्कआउट नहीं हो रहा. सरकार शायद यह सोचकर बैठी है कि किसके पास वक्त है, जो रोज प्रदर्शन में जाए. सरकार का सोचना सही है, क्योंकि जनता इन सारी स्थितियों से निराश हो चुकी है, लेकिन जब जनता में निराशा ज्यादा बढ़ जाती है तो वह निराशा एक बड़े तूफान की भूमिका भी बना जाती है. अब ये सरकार और राजनीतिक तंत्र के सोचने की बात है कि वे जनता को किस हद तक अनदेखा करेंगे और किस हद तक उसे चिढ़ाएंगे, जिसके परिणामस्वरूप जनता कहीं कानून हाथ में न लेने लगे.

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