कांग्रेस सबसे अच्छी स्थिति में है. भारतीय जनता पार्टी की अंतर्कलह ने उसे नया जीवनदान दे दिया है. महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं घोटालों की लंबी शृंखला ने जहां आम लोगों में गुस्सा पैदा किया और उसकी जीत के प्रति शंका पैदा की, वहीं तथाकथित तीसरे मोर्चे की अनिश्‍चितता, उनके बीच के संभावित झगड़े और भारतीय जनता पार्टी के मतभेद संजीवनी का काम कर गए.

फिर  तीसरे मोर्चे का जिक्र चारों तरफ़ हो रहा है. शुरुआत जदयू के महासचिव के सी त्यागी ने पश्‍चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिलकर की. ममता ने फोन पर नीतीश कुमार एवं नवीन पटनायक से बात की और यहीं से भारतीय जनता पार्टी बचाव की मुद्रा में आ गई. जदयू एनडीए से बाहर जाना चाहता था. उसके नेताओं ने भाजपा को चुभने वाले व्यंग्य-बाणों से घायल कर दिया और पहली बार भाजपा के नेता सहमे दिखे, क्योंकि उन्हें लोकसभा के चुनावों में संभावित सत्ता दूर जाती दिखाई देने लगी.
तीसरा मोर्चा बन सकता है, बशर्ते नीतीश कुमार, ममता बनर्जी एवं नवीन पटनायक यह तय कर लें कि उनमें से कोई भी प्रधानमंत्री नहीं बनेगा. तय तो मुलायम सिंह को भी करना पड़ेगा कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे. सवाल यह है कि अगर ये चारों प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे, तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा? प्रधानमंत्री पद का सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये चारों ही प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं और ये चारों कोशिश यह कर रहे हैं कि इनमें से कोई एक सर्वमान्य नेता के रूप में स्वीकारा जाए. एक फॉर्मूला यह उभारा जा रहा है कि जिस पार्टी के ज़्यादा सांसद हों, उस पार्टी का नेता प्रधानमंत्री बन जाए. पर जैसी स्थिति दिख रही है, उसमें इन चारों के सांसदों की संख्या थोड़े- बहुत अंतर से लगभग एक जैसी ही आने वाली है. कैंपेन के समय इन चारों द्वारा स्वर्गीय विश्‍वनाथ प्रताप सिंह जैसा रुख़ अपनाने की संभावना लगभग नहीं के बराबर है, जिसमें वी पी सिंह ने कहा था कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे.
अगर मुलायम सिंह तीसरे मोर्चे के साथ जाते हैं, तो मायावती कांग्रेस के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ेंगी और केंद्र में घोषित तौर पर उप प्रधानमंत्री पद का वादा ले लेंगी. संभावना तो यह भी है कि आख़िरी समय में वह प्रधानमंत्री पद पर ही अपनी दावेदारी ठोंक दें. अगर कांग्रेस समझदारी भरा फैसला ले और मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर सारे देश में चुनाव लड़े, तो मानसिक तौर पर चुनाव का पहला राउंड यह गठबंधन जीत सकता है. इस स्थिति में देश भर के दलित, जो लगभग 22 से 24 प्रतिशत हैं, वे फिर से कांग्रेस और मायावती के साथ खड़े हो जाएंगे.
भारतीय जनता पार्टी के अंदर प्रधानमंत्री पद को लेकर जितनी मारामारी है, उससे पार्टी के कार्यकर्ता बहुत निराश हैं. पहले उन्हें लगता था कि नरेंद्र मोदी का नाम आया और सारा देश उनके साथ खड़ा हो जाएगा. देश में भी कांग्रेस द्वारा पैदा की गई समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए नरेंद्र मोदी को एक आदर्श विकल्प माना जाने लगा था, पर जैसे-जैसे नरेंद्र मोदी का चेहरा ज़्यादा सामने आ रहा है, वैसे-वैसे वह समर्थन खोते दिखाई दे रहे हैं. दरअसल, नरेंद्र मोदी का चेहरा और उनकी बॉडी लैंग्वेज इन दिनों एक अहंकारी की छवि प्रस्तुत करती है. विनम्रता जैसी चीज़ नरेंद्र मोदी की चाल-ढाल में कहीं है ही नहीं. इसी वजह से जहां भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता उनसे दूर भाग रहे हैं, वहीं आम जनता भी नरेंद्र मोदी को सावधानी से परखने लगी है. श्री लालकृष्ण आडवाणी की नाराज़गी ने जसवंत सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा एवं यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं को एक बार फिर इकट्ठा कर दिया है. अगर इन चारों में कोई भी दो या तीन नेता भाजपा से त्यागपत्र देकर संभावित तीसरे मोर्चे के साथ चले गए, तो खेल और अनिश्‍चितता भरा हो जाएगा.
कांग्रेस सबसे अच्छी स्थिति में है. भारतीय जनता पार्टी की अंतर्कलह ने उसे नया जीवनदान दे दिया है. महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं घोटालों की लंबी शृंखला ने जहां आम लोगों में गुस्सा पैदा किया और उसकी जीत के प्रति शंका पैदा की, वहीं तथाकथित तीसरे मोर्चे की अनिश्‍चितता, उनके बीच के संभावित झगड़े और भारतीय जनता पार्टी के मतभेद संजीवनी का काम कर गए. कांग्रेस के नेताओं के बयान नहीं आ रहे हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि इस समय कम बोलना चाहिए और विपक्ष के बीच चल रहे युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करनी चाहिए. पर यह भी अजीब बात है कि चुनाव सिर पर हैं और कांग्रेस को न तो मुसलमानों की चिंता है और न ही दलितों की. जयपुर में कांग्रेस के साथ रहे मुसलमानों के एक बड़े सम्मेलन में जिस तरह कांग्रेस को गालियां दी गईं, वह आंखें खोलने वाला है, लेकिन फिर भी कांग्रेस को मुसलमानों की चिंता नहीं है. ऊपर से कांग्रेस के मंत्री यह कह रहे हैं कि उन्होंने सच्चर कमेटी की सारी सिफ़ारिशें लागू कर दी हैं, स़िर्फ तीन सिफ़ारिशें बची हैं. न तो मुसलमानों को बयानों को जांचने की फुर्सत है और न ही अपने लिए कांग्रेस को उसकी ज़िम्मेदारी का एहसास दिलाने की आवश्यकता है.
सवाल स़िर्फ यह है कि जितने गठबंधन बन रहे हैं, उनमें कितने ऐसे हैं, जिनमें अपने वोट ट्रांस्फर कराने की ताक़त है? शायद मायावती के अलावा उनमें कोई भी ऐसा नहीं है, जो अपने वोटों का सफलतापूर्वक 80 या 90 प्रतिशत ट्रांस्फर करा सके. नीतीश कुमार बिहार में स्वयं थोड़ी परेशानी में हैं. उनका उम्मीदवार लोकसभा उपचुनाव में हार चुका है. हालांकि नीतीश ने जितनी ताक़त इस उपचुनाव में लगाई थी, उतनी ताक़त उन्होंने किसी उपचुनाव में नहीं लगाई. क्या इसे बिहार में किसी भावी संकेत के रूप में देखा जा सकता है? क्या लालू यादव का रामविलास पासवान के साथ बिहार में पुनर्गमन संभव है? यह सवाल इसलिए भी मन में उठ रहे हैं, क्योंकि अब इस देश के सामने कोई भी पार्टी विचाराधारा के रूप में नहीं आ रही है, बल्कि जाति एवं संप्रदाय के प्रतिनिधि के तौर पर आ रही है. इस स्थिति से अगर कोई देश को निकाल सकता है, तो वह स़िर्फ जनता ही है. इसलिए विश्‍वास करना चाहिए कि चुनाव में जो होगा, बुरा नहीं होगा. अच्छा हो, उसके लिए प्रार्थना भी करनी चाहिए.
 

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