संसदीय लोकतंत्र को प्रदूषित करना और उसका इस्लेमाल करना, जहां कांग्रेस की कुशलता है, वहीं संसद में बैठे राजनीतिक दलों को अपने रंग में रंग लेना कांग्रेस की सर्वोच्च उपलब्धि है, इसलिए निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि संसदीय लोकतंत्र का अपने हित में इस्तेमाल करना और संसदीय लोकतंत्र को जनता के संदर्भ में अप्रासंगिक कर देना इस देश में एक नये महाभारत की भूमिका तैयार कर रहा है.
संसदीय प्रणाली का जैसा स्वरूप हमारे देश में है, उसका इस्तेमाल होशियार लोग अपने हित में जिस तरह करते हैं, वो अध्यनन के काबिल है. शास्त्रीय ढंग से देखें, तो संसदीय प्रणाली का इस्तेमाल जनता के दुख-दर्द के निवारण के लिए होना चाहिए और देश में व्याप्त किसी भी प्रकार की समस्या का निदान संसद से निकलना चाहिए, लेकिन हमारी संसद इस स्थिति से मीलों दूर है.
संसदीय जनतंत्र में विपक्ष का महत्वपूर्ण स्थान है. हालांकि सच्चे जनतंत्र में पक्ष और विपक्ष नहीं होना चाहिए. जनता के नुमाइंदे संसद में होने चाहिए और देश की संस्थाएं होनी चाहिए. दूसरे शब्दों में सच्चे जनतंत्र में संसद में बैठे सभी लोग पक्ष में भी हैं और विपक्ष में भी. वहां फैसला मुद्दों के आधार पर होना चाहिए, पर हमारे देश में तो विपक्ष है और विपक्ष भी संसदीय जनतंत्र का भरपूर मजाक उड़ा रहा है.
तुलनात्मक ढंग से देखें, तो संसदीय जनतंत्र का इस्तेमाल अपने पक्ष में करने की योग्यता कांग्रेस में ज्यादा है. कांग्रेस ने हमेशा संसदीय जनतंत्र का इस्तेमाल पार्टी के हित में किया है और जनता की समस्याओं को बिल्कुल परे रख दिया है. बीते दस वर्ष इस बात के गवाह हैं कि चाहे जितनी महंगाई बढ़ी हो, भ्रष्टाचार बढ़ा हो, जितनी बेरोजगारी बढ़ी हो, जनता का गुस्सा सड़क पर फूटने नहीं दिया. अगर महंगाई के सवाल को देखें, तो प्रधानमंत्री निहायत बेशर्मी से कहते हैं कि उनके पास कोई जादुई छड़ी नहीं है और पैसा पेड़ पर नहीं उगता. महंगाई आजादी के बाद के सारे मानक तोड़ गई और अब दर्द इतना बढ़ा है कि खुद ही दवा हो गया है. कोई भी महंगाई को लेकर सरकार पर आरोप नहीं लगा रहा है. संसद में तो सिर्फ महंगाई का जिक्र संदर्भ के तौर पर होता है.
बेरोजगारी पर बेहयाई से झूठ बोला जा रहा है. कांग्रेस या सरकार कहीं पर भी बेरोजगारी का समाधान ढूंढती नजर नहीं आती. सरकार खुद ही नौकरियां खत्म कर रही है, लेकिन आभास यह दे रही है कि वह नौकरियां बढ़ा रही है. और भ्रष्टाचार के तो कहने की क्या! महीने के हिसाब से नहीं, हफ्ते के हिसाब से घोटाले सामने आए हैं. और घोटाले भी करोड़ों के नहीं, लाखों करोड़ के घोटाले सामने आ रहे हैं. संसद में इसके ऊपर कोई चर्चा नहीं हो रही है और न ही भ्रष्टाचार की चरम सीमा पर पहुंचे घोटालों को लेकर कोई बहिष्कार हो रहा है. जिस प्रधानमंत्री के कार्यकाल में सबसे ज्यादा घोटाले सामने आए हों, वह प्रधानमंत्री ईमानदार माना जा रहा है. जिस प्रधानमंत्री के ऊपर सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट तक ने उंगली उठाई हो, उस प्रधानमंत्री को लेकर संसद खामोश है. इसका सारा श्रेय कांग्रेस को ही जाता है.
कांग्रेस को इस बात का भी श्रेय जाता है कि उसकी अगुवाई में चलने वाली सरकार के योजना आयोग ने निहायत बद्तमीजी के साथ शहरों में 34 और गांवों में 27 रुपये की आमदनी को जीवन जीने योग्य माना है. और उनके दो प्रवक्ता 12 रुपये और पांच रुपये में दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में भरपेट भोजन मिलने का दावा कर रहे हैं, लेकिन हमारी संसद में इसे लेकर कोई हलचल नहीं होती. कांग्रेस ने जनता को मिले एक मात्र हथियार सूचना के अधिकार को अपने हिसाब से मोड़ लिया. सरकार अपराधियों को संसद का रास्ता दिखाने पर आमादा है. किसानों के हितों को बिल्डरों के हाथों बेचा दिया, लेकिन संसद में कोई हलचल नहीं है.
संसद में विपक्ष के नाम पर भारतीय जनता पार्टी से शुरू होकर एक सांसद की सदस्यता रखने वाली पार्टी तक तकरीबन 20 पार्टियां हैं, पर सब संसद में खामोश हैं. ज्यादातर पार्टियां राज्यों में कहीं-कहीं सरकार का नेतृत्व कर रही हैं या सरकार में शामिल हैं. जो यहां कांग्रेस कर रही है, ये पार्टियां राज्यों में कर रही हैं. इसलिए संसद में वे जान-बूझकर आवाज नहीं उठा रही हैं. एक लाइन का विश्लेषण है कि ये सारी पार्टियां संसदीय व्यवस्था का इस्तेमाल केवल जनता को घोखा देने और उसे बरगलाने के लिए करती हैं. भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ इनमें सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर समझौता हो चुका है. इस समझौते ने देश की जनता को निराशा के जंगल में भटकने पर मजबूर कर दिया है. निराशा का यह जंगल कई रास्ते दिखा रहा है. देश के लगभग सारे सीमांत प्रदेश निराशा के इस महापर्व में नक्सलवादियों को उभरने और फैलने का मनचाहा मैदान उपलब्ध करा रहे हैं. देश का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा नक्सलवादियों के प्रभाव क्षेत्र में है. इस हिस्से में न सड़क है, न रोजगार है, न रोटी है और न ही इज्जत है. जिन सड़कों का पैसा सरकार से जुड़े लोगों ने हड़प लिया, आज उन जगहों पर जाने में अर्धसैनिक बल घबराते हैं.
भूले-भटके जब कहीं ये अर्धसैनिक बल इन इलाकों में जाते हैं और जब उन पर नक्सलवादियों के हमले होते हैं, तो उन हमलों की खबर भी कई दिनों बाद लोगों तक पहुंच पाती है. देश की एक तिहाई से ज्यादा जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं की वजह से नक्सलवादियों का मौन समर्थन कर रही है.
इसका सीधा मतलब है कि संसदीय जनतंत्र का इस्तेमाल सारी राजनीतिक पार्टियां जनता के खिलाफ इस सीमा तक कर रही हैं कि उन्होंने विकल्प के तौर पर जान-बूझकर नक्सलवाद को सामने खड़ा कर दिया है. और इनकी इस बेवकूफी का फायदा नक्सलवादी सैद्धांतिक रूप से उठा रहे हैं और कह रहे हैं कि संसदीय जनतंत्र कभी भी गरीब के साथ नहीं खड़ा हो सकता.
इन सब में गांधी गायब हो चुके हैं, क्योंकि गांधी का नाम लेने वाले खुद गांधी में विश्वास नहीं करते. इसलिए उन्होंने गांधी के विचारों का स्थान सार्वजनिक स्थानों पर लगी हुई मूर्तियों में मान लिया है.
अब यहीं बीच में भटकते हुए अन्ना हजारे आ जाते हैं. अन्ना हजारे ने घोषणा की है, वे दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ेंगे. दूसरी आजादी की लड़ाई का मतलब संसद से सारे राजनीतिक दलों को निकाल फेंकेगे. अन्ना हजारे जहां एक तरफ संसदीय लोकतंत्र को राजनीतिक दलों के प्रदूषण से मुक्त करना चाहते हैं, वहीं वे साफ शब्दों में यह भी कह रहे हैं कि अगर जनता को विश्वास में लेकर विकास का काम तत्काल शुरू नहीं हुआ, तो यह देश नक्सलवादियों के सिद्धांत को गंभीरता से अपना लेगा.
जिस तरह हमारे संसदीय लोकतंत्र ने हिंदुस्तान के हर वर्ग के लोगों को तकलीफ दी है, निराशा दी है, उसके परिणामस्वरूप उभरने वाला गुस्सा हिंसक प्रतिक्रियाओं को जन्म दे सकता था, लेकिन अन्ना हजारे की वजह से अभी भी लोगों की आस्था अहिंसा में है. और शायद इसीलिए राजनीतिक दलों के लोग और भ्रष्ट सरकारी अफसर हिंसा के शिकार नहीं हो रहे हैं. वे चल-फिर रहे हैं, रेस्टोरेंट में खाना खा रहे हैं और सिनेमा भी देख रहे हैं.
मजे की बात यह है कि राजनीतिक दल अन्ना को असफल साबित करना चाहते हैं, लेकिन नक्सलवादी अन्ना के आंदोलन में एक बड़ी संभावना देख रहे हैं. उन्हें पूरा विश्वास है कि राजनीतिक दल अन्ना को असफल करेंगे ही करेंगे, जिससे बड़े पैमाने पर निराशा फैलेगी और उस समय जनता उनके समर्थन में खड़ी हो जाएगी.
संसदीय लोकतंत्र को प्रदूषित करना और उसका इस्लेमाल करना, जहां कांग्रेस की कुशलता है, वहीं संसद में बैठे राजनीतिक दलों को अपने रंग में रंग लेना कांग्रेस की सर्वोच्च उपलब्धि है, इसलिए निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि संसदीय लोकतंत्र का अपने हित में इस्तेमाल करना और संसदीय लोकतंत्र को जनता के संदर्भ में अप्रासंगिक कर देना इस देश में एक नये महाभारत की भूमिका तैयार कर रहा है, जिसमें एक तरफ कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सहित संसद में मौजूद सभी पार्टियां होंगी और दूसरी तरफ अन्ना हजारे के नेतृत्व में हिंदुस्तान की जनता और जनता के हितों के लिए लड़ने वाले नक्सलवादियों सहित तमाम संगठन होंगे. महाभारत के संकेत साफ नजर आ रहे हैं.