नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करेगी या उन्हें उम्मीदवार घोषित किए बिना ही प्रधानमंत्री पद के लिए आगे करेगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि नीतीश कुमार अंत में क्या फैसला लेते हैं. अगर नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो जाते हैं, तो भारतीय जनता पार्टी बिना हिचक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करेगी या उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी. और अगर नीतीश कुमार बने रहते हैं, तो ऐसी स्थिति में भी चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही बनेंगे, लेकिन उस समय जनता दल यूनाइटेड का कोई व्यक्ति नरेंद्र मोदी की हां में हां नहीं मिलाएगा. भारतीय जनता पार्टी इस बात के लिए तैयार है, क्योंकि चुनाव के बाद अगर जनता दल यूनाइटेड अलग होना चाहता है, तो यह ख़तरा उठाने के लिए वह तैयार है. यह अलग बात है कि भारतीय जनता पार्टी में राजनाथ सिंह शुरू में पूरी तरह से नरेंद्र मोदी का साथ देंगे, लेकिन जैसे ही चुनाव नज़दीक आएगा, वैसे ही राजनाथ सिंह पहले आडवाणी जी के नाम पर और फिर ख़ुद को सामने लाकर नरेंद्र मोदी की राह में बाधा बनेंगे. फिर इन सबसे अलग भारतीय जनता पार्टी चुनाव की सारी रणनीति नरेंद्र मोदी को सामने रखकर बनाएगी, चाहे वह कैंपेन हो या फिर उम्मीदवारों का चयन या फिर राज्यों के ऊपर ज़ोर देना हो, यानी सारे फैसले पार्टी के मुताबिक़ नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी के मुताबिक़ ही होंगे.
यह भारतीय राजनीति की विडंबनाएं हैं, जिन्होंने हिंदुस्तान की आम जनता को परेशान और दिग्भ्रमित कर रखा है. लोगों के पास सही जानकारियां न टेलीविज़न पहुंचाता है और न अख़बार. वे अपने क्षेत्र की समस्याओं को सामने रखकर फैसला लेते हैं और यही फैसले उन्हें एक फ्रैक्चर्ड डिसीज़न की तऱफ ले जाते हैं. 2014 के चुनावों तक भारत का सामान्य मतदाता इन अंतर्विरोधों को समझ सके, यह आशा करनी चाहिए, क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जब बहुत सारे भ्रम सामने होते हैं, तो व्यक्ति उसमें से सत्यता को पहचान लेता है. इसीलिए भारतीय मतदाता के लिए आने वाला चुनाव और राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप परीक्षा के रूप में सामने आएंगे.
कांग्रेस राहुल गांधी को सामने रखकर चुनाव लड़ेगी, यह लगभग अब सा़फ है. लेकिन जो न भारतीय जनता पार्टी में हैं और न कांग्रेस में, सबसे ज़्यादा समस्या उनके साथ है, जैसे कि मुलायम सिंह यादव, मायावती, नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी, जयललिता और करुणानिधि. दरअसल, भारतीय राजनीति के ये ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनमें से हर आदमी प्रधानमंत्री बनना चाहता है और वह यह भी चाहता है कि उसका नेतृत्व बाकी सारे साथी मान लें. इनमें लालू यादव और रामविलास पासवान भी शामिल हैं, जिन्हें यह भरोसा है कि किसी के नाम पर सर्वसम्मति न होने की स्थिति में उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए सामने आने में कोई दिक्कत ही नहीं होगी. हालांकि मुलायम सिंह यादव सहित सारे नामों के साथ एक दिक्कत है. वह यह कि इनमें से कोई भी व्यक्ति बाकी साथियों से बातचीत नहीं करना चाहता, क्योंकि अगर इनमें से कोई भी व्यक्ति बाक़ी सारे नामों से बातचीत करे, तो शायद तीसरे मोर्चे की शक्ल में कोई तस्वीर बने, पर सच्चाई यही है कि तीसरे मोर्चे के संभावित घटकों में राज्यों में उभरे अंतर्विरोध अवरोध का काम कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती एवं मुलायम सिंह और बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार एवं रामविलास पासवान. दो प्रदेश ऐसे हैं, जहां पर इन तीनों में कोई एक-दूसरे को आगे बढ़ते हुए देखना नहीं चाहता और दरअसल, इसीलिए तीसरे मोर्चे की संभावनाएं न के बराबर नज़र आ रही हैं.
तीसरे मोर्चे की दो तस्वीरें बन सकती हैं. पहली तस्वीर में मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक एवं ममता बनर्जी आपस में मिलकर कोई समझौता कर लें, तो यह कांग्रेस और भाजपा के मुक़ाबले एक सशक्त विरोध बन सकता है. दूसरी तस्वीर में मुलायम सिंह हट जाते हैं और मायावती, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू एवं जयललिता मिलकर एक सशक्त विरोध बन सकते हैं. लालू यादव ने कमोबेश अपनी तस्वीर सा़फ कर दी है. वह अगला चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ना चाहते हैं. हालांकि बिहार के कांग्रेसी नेता किसी भी क़ीमत पर लालू प्रसाद यादव के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ना चाहते, जिनमें शकील अहमद प्रमुख हैं. शकील अहमद इस समय राहुल गांधी के मुस्लिम मामलों के राष्ट्रीय स्तर के सलाहकार हैं और बिहार के मसले में इस समय उनकी बात ही सुनी जाती है.
तीसरे मोर्चे की संभावना इसीलिए चर्चा में है, क्योंकि राहुल गांधी कांग्रेस के भीतर ही अपना नेतृत्व स्थापित नहीं कर पा रहे हैं और अपने लिए विश्वास भी पैदा नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में, कांग्रेस को बाकी दलों में से कितनों का सहयोग मिलेगा, यह बहुत बड़ा संदेह का प्रश्न है. राहुल गांधी की समझ के ऊपर ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव या फिर मायावती सहित करुणानिधि को भी भरोसा नहीं है. इसीलिए राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का चुनाव लड़ना और अपने लिए एक सशक्त गठबंधन का निर्माण करना संभव ही नहीं दिखाई देता. हालांकि, चुनाव के बाद की तस्वीर अलग है, क्योंकि अगर कांग्रेस 200 के आसपास सीटें लेकर आती है, तो फिर चाहे राहुल गांधी प्रधानमंत्री हों या सोनिया गांधी का कोई चपरासी, बाकी दलों का समर्थन जुटाना उसके लिए मुश्किल नहीं होगा.
दूसरी तऱफ भारतीय जनता पार्टी ऊहापोह में है. दरअसल, उसे मुसलमानों के 20 प्रतिशत वोटों में से भी एक हिस्सा चाहिए. उसे हिंदू वोटों के कट्टर हिस्से के अलावा, सामान्य हिंदुओं के वोट भी चाहिए. उसे नौजवानों के वोट भी चाहिए और इनकी मदद से ही उसकी सरकार भी बननी चाहिए. नरेंद्र मोदी के हक में, जिसे हम प्रशासन कहते हैं या अंग्रेजी में गवर्नेंस, यह नारा मध्यमवर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय उत्तर भारतीय युवकों में लोकप्रिय हो रहा है. उन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी का वैचारिक पक्ष कितना भी गलत हो, लेकिन वह एक अच्छे प्रशासक हैं और हिंदुस्तान को एक कुशल प्रशासक की ज़रूरत है. यह तर्क भले ही लोकतंत्र के ख़िला़फ जाता हो, लेकिन यह तर्क मध्यमवर्गीय और उच्च मध्यमवर्गीय नौजवानों के बीच घूम रहा है. दरअसल, नौजवान यह चाहते हैं कि मोदी जैसा व्यक्ति सत्ता में आए और हमारी लुंज-पुंज प्रशासनिक मशीनरी को ठीक करे. इसलिए उन्हें नरेंद्र मोदी सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति लगते हैं.
दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी अपना कद पूरी भारतीय जनता पार्टी में सारे नेताओं के ऊपर देखना चाहते हैं. अगर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पर नामांकित करने का सुझाव भारतीय जनता पार्टी में आया, तो यह तय है कि उनकी उम्र और शैली को देखते हुए न कभी भविष्य में राजनाथ सिंह, न सुषमा स्वराज और न ही अरुण जेटली प्रधानमंत्री पद पर जाने का सपना देख पाएंगे. और ऐसी स्थिति में आडवाणी जी के मन की इच्छा मन में ही रह जाएगी, क्योंकि जब दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विजय गोयल ने आडवाणी जी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सबके सामने रखा, तो न केवल यशवंत सिन्हा, बल्कि जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा ने भी उनके नाम का समर्थन किया. इसके बाद एक आश्चर्यजनक सत्य सामने आया और वह यह है कि स्वयं लालकृष्ण आडवाणी ने इसका खंडन नहीं किया. उनके पास नरेंद्र मोदी के दूत गए और उन्होंने कहा कि आडवाणी जी, आप इसका खंडन कर दीजिए. लेकिन आडवाणी जी ने उनसे सा़फ शब्दों में कहा, मैं खंडन क्यों करूं? यह घटना बताती है कि भारतीय जनता पार्टी एक भ्रम की स्थिति में है.
भ्रम का दूसरा पहलू एक कहावत के रूप में आता है कि संशय में दोनों गए, माया मिली न राम. यदि भाजपा सारे अगर-मगर छोड़कर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके देश में एक आक्रामक प्रचार अभियान चलाती है, तो वह इस देश में कम से कम इस बात की स़फाई करेगी कि 120 करोड़ लोगों का मुल्क क्या सांप्रदायिक आधार पर बंट सकता है या नहीं. अगर सांप्रदायिक आधार पर यह देश बंट गया और नरेंद्र मोदी को 300 के लगभग सीटें मिल गईं, तो यह मान लेना चाहिए कि देश में आगे आने वाले 15-20 सालों के लिए एक नया ़फैसला सर्व स्वीकार्य माना जाएगा और तब देश पूरी तरह से हिंदूवादी नियम-क़ानूनों के ऊपर चलेगा. और अगर भारतीय जनता पार्टी इस काम को ढके-छिपे तौर पर करना चाहेगी, तो शायद उसे इससे काफी नुक़सान होगा, लेकिन लोगों के मन में यह बात आ जाएगी कि भारतीय जनता पार्टी के बाकी नेता, जिनमें लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली एवं सुषमा स्वराज शामिल हैं, ये सब मिलकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे. इसीलिए कोई नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री मानकर भारतीय जनता पार्टी को वोट क्यों देगा?
भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की इन रणनीतियों के मुक़ाबले तीसरे मोर्चे की रणनीति अभी बहुत धुंधली दिखाई देती है, उसका उभरना भी बहुत मुश्किल दिखाई देता है, लेकिन अगर ग़ैर कांग्रेसी और ग़ैर भाजपाई दलों को यह एहसास हो जाए कि उनके मिलने से उनकी संख्या कांग्रेस गठबंधन और भाजपा गठबंधन के मुक़ाबले हो सकती है, तो शायद तीसरा मोर्चा ज़्यादा अस्तित्व में आ जाए. दोनों ही स्थितियों में, चाहे उस मोर्चे में मुलायम सिंह रहें या मायावती, वामपंथी दल उसका हिस्सा बनने में हिचकेंगे नहीं. हालांकि वामपंथी दलों की हालत काफी कमज़ोर है. जिस तरह से वे पश्चिम बंगाल में हारे हैं, उससे लोकसभा चुनाव में उन्हें कितनी बढ़त मिलेगी, यह देखने की बात है, क्योंकि वहां भी कांग्रेस और ममता बनर्जी का आपस में वोटों का बंटवारा वामपंथियों के लिए मददगार साबित हो सकता है. केरल में वामपंथी तेजी से अपना असर दिखाएंगे, पर जो सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है वामपंथियों के साथ, वह यह है कि केरल और बंगाल के अलावा, वे अभी तक किसी भी राज्य में अपनी बढ़त 65 सालों में नहीं बना पाए. उनके पास संगठन तो है, लेकिन वह एक तरीके से असरदार नहीं है. और जब तक उनके पास बंगाल में दो तिहाई सीटें नहीं आती हैं, केरल में दो तिहाई सीटें नहीं आती हैं, तब तक उनका राष्ट्रीय राजनीति में बहुत निर्णायक बोलबाला नहीं होगा.
यह भारतीय राजनीति की विडंबनाएं हैं, जिन्होंने हिंदुस्तान की आम जनता को परेशान और दिग्भ्रमित कर रखा है. लोगों के पास सही जानकारियां न टेलीविज़न पहुंचाता है और न अख़बार. वे अपने क्षेत्र की समस्याओं को सामने रखकर ़फैसला लेते हैं और यही फैसले उन्हें एक फ्रैक्चर्ड डिसीज़न की तऱफ ले जाते हैं. 2014 के चुनावों तक भारत का सामान्य मतदाता इन अंतर्विरोधों को समझ सके, यह आशा करनी चाहिए, क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जब बहुत सारे भ्रम सामने होते हैं, तो व्यक्ति उसमें से सत्यता को पहचान लेता है. इसीलिए भारतीय मतदाता के लिए आने वाला चुनाव और राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप परीक्षा के रूप में सामने आएंगे.