साँझ चुपके से आकर बगल में बैठ गई। मेरे कानों पर उसने अपनी ऊंगलियां कुछ यूं फेरी कि दूर से आ रही मंदिर की घंटियाँ का नाद मेरे चारों तरफ गूंजने लगा। मेरी पलकें मूंद गई और सांसों में धूप और अगरबत्ती की महक भरने लगी। सजल होते नैनों ने पंचामृत की कमी पूरी की। मेरे होंठ फूलों की तरह खिल उठे और हाँ यह साँझ विदा लेने से पहले तेरी याद का प्रसाद मेरी झोली में डालकर गई।
सुनो, बात यहीं तक जो रुक जाती तो फिर भी ठीक। अभी रात का सितम बाकी है। रात को नींद देर से आती है इनदिनों। एक ख़्वाब बगल में लेटकर मुझे तकता रहता है। कुछ पूछना चाहूँ तो करवट बदल लेता है! मौन हो जाऊं तो थपकी देकर मुझे सुलाने की कोशिश करने लगता है। तब ज़ेहन की शाखों पर कुछ फूल खिल आते हैं। कमरे में खुशबू फ़ैल जाती है। नींद आ जाती है, पर ये सुखद संयोग हमेशा तो नहीं हो सकता न? सच तो यही है कि तुम्हारे बिना रात एक विलेन है और उस खलनायक की ताकत तब और भी बढ़ जाती है जब मुझसे वो तुम्हारी यादों का प्रसाद लेकर चख लेता है। ऐसे में मेरा सारा हीरोइज़्म की-बोर्ड पर ही दम तोड़ देता है और पर्दा गिर जाता है!
एक प्रेमी की डायरी से चुन कर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे…..
“हीरेंद्र झा”