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जिस आज़ादी का जश्‍न हम स्वतंत्रता दिवस के दिन मना रहे हैं, वह बस शब्दों तक सीमित होकर रह गई है. उसके मायने कहीं खो गए हैं. अगर हम इसकी वज़ह तलाशें, तो राजनीतिक दल ही इसके लिए सबसे बड़े ज़िम्मेदार हैं. राजनीतिक दलों ने संविधान का माख़ौल उड़ाते हुए अपने हिसाब से संविधान की व्याख्याओं को स्थापित किया और जनतंत्र के बजाय पार्टीतंत्र को तरज़ीह दी. आज हम स्वतंत्र नहीं हैं, बल्कि पार्टीतंत्र की गिरफ़्त में हैं. इस दौर से बाहर निकलकर ही स्वतंत्रता की वास्तविकता का अनुभव किया जा सकता है. इसीलिए अब दूसरी आज़ादी का संघर्ष जरूरी हो गया है.

महात्मा गांधी कहते थे कि देश को बदलना है, तो पहले गांवों को बदलना होगा, लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने गांवों में विकास को दरकिनार कर अपने हितों को स्थापित किया.  संगठित होकर लोग इन पार्टियों के ख़िलाफ़ न खड़े हो जाएं, इसलिए उन्होंने ग्रामीण जनता को जात-पात के नाम पर भ्रमित कर सिस्टम से बाहर बनाए रखा.

आज़ादी की लड़ाई 1857 में ही शुरू हो गई थी. 1857 से लेकर 1947 तक लाखों लोगों ने अपनी जान की कुर्बानी दी. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे कई देशभक्त हंसते-हंसते देश के लिए कुर्बान हो गए. देशवासियों ने एक लंबी लड़ाई के बाद अंग्रेजों पर विजय पाई और अंग्रेज इस देश से चले गए. एक लंबे अर्से के बाद देश 15 अगस्त, 1947 को ग़ुलामी की बेड़ियों से निकला और स्वतंत्रता के जश्‍न में डूब गया. कितना उत्साह था लोगों में. सबके चेहरों पर ख़ुशी की चमक थी. हर घर में रोशनी जगमगा रही थी, लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, वह रोशनी फीकी पड़ती गई और उस रोशनी के साथ-साथ स्वतंत्रता का उत्साह भी आज लोगों के चेहरे से ग़ायब-सा हो गया है. आज हम स्वतंत्रता दिवस तो मना रहे हैं, लेकिन स्वतंत्रता के मायने ख़त्म हो गए हैं. सही मायनों में हम आज़ादी अभी तक केवल इस बात की मना रहे हैं कि हम अंग्रेजों से आज़ाद हो गए. वास्तविक स्वतंत्रता अभी भी हमसे दूर है, इसीलिए देशवासी 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस तो मना रहे हैं, लेकिन अनमने ढंग से.
ऐसा क्यों हुआ, हमें पहले यह समझने की ज़रूरत है. अंग्रेजों से मुक्ति के बाद देश का संविधान बना, लेकिन मुश्किल तब शुरू हुई, जब राजनीतिक दलों ने संविधान की खिल्ली उड़ाते हुए अपने हिसाब से संविधान की सभी व्याख्याओं को स्थापित कर लिया. संविधान में कहा गया है कि लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता जिसे योग्य समझे, उसे अपना उम्मीदवार चुनकर संसद में भेजे, लेकिन जब 1952 में देश का पहला चुनाव हुआ, तो पार्टी के आधार पर चुनाव हुआ, जबकि संविधान में राजनीतिक दलों का कहीं उल्लेख ही नहीं है. तभी संविधान की व्याख्या के अनुसार, न चलने पर देश की सभी राजनीतिक पार्टियों को बर्ख़ास्त होना चाहिए था, क्योंकि जब लोकतंत्र आ गया, तो पक्ष और पार्टी की भूमिका का क्या मतलब? महात्मा गांधी जी ने भी कांग्रेस पार्टी से कहा था कि अब लोकतंत्र आ गया है, इसलिए पक्ष और पार्टियों को ख़त्म करना चाहिए, लेकिन हुआ इसके उल्टा और 1952 का चुनाव तो पार्टियों के तहत ही लड़ा गया और चुनाव लड़कर पक्ष और पार्टियों ने अपने लोग संसद में भेजे, जनता के लोग नहीं गए.
हम कहते हैं लोकसभा. लोकसभा का मतलब है लोगों के भेजे हुए प्रतिनिधियों की सभा, लेकिन कहां है लोकसभा? वह तो मात्र पार्टियों की सभा बनकर रह गई है. गड़बड़ी यहीं से शुरू हुई. जनतंत्र पर इन पार्टियों ने अतिक्रमण किया और लोकतंत्र के अर्थ को ही ख़त्म कर दिया.
महात्मा गांधी कहते थे कि देश को बदलना है, तो पहले गांवों को बदलना होगा, लेकिन इन पार्टियों ने गांवों में विकास को दरकिनार कर अपने हितों को स्थापित किया. लोग संगठित होकर इन पार्टियों के ख़िलाफ़ न खड़े हो  जाएं, इसलिए उन्होंने ग्रामीण जनता को जात-पात के नाम पर भ्रमित कर सिस्टम से बाहर बनाए रखा.
लोकतंत्र का अर्थ है वह तंत्र, जो लोगों द्वारा बुना गया हो. अब चूंकि इसमें जनता की भूमिका ही नहीं है, इसलिए यह लोकतंत्र नहीं है, पार्टी तंत्र है. इसीलिए मैं कह रहा हूं कि हम स्वतंत्र नहीं हैं, पार्टी तंत्र की गिरफ्त में हैं.
जनतंत्र का वास्तविक मतलब है जन-सहभागिता से चलाया जा रहा तंत्र. असली मालिक तो जनता है. जिन्हें चुनकर भेजा गया है, वे तो जनता के सेवक हैं. जो अधिकारी चुने जाते हैं, वे भी लोकसेवा के लिए चुने जाते हैं. इसलिए वे भी लोकसेवक हैं, लेकिन यहां तो उल्टा हो रहा है. मालिक सेवक बन गया है और सेवक मालिक. अगर व्यवस्था विपरीत चल रही है, फिर स्वतंत्रता कैसी? स्वतंत्रता के नाम पर क्या बस यही समझा जाए कि अंग्रेज चले गए? स्थितियां तो जस की तस बनी हुई हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि लाखों लोगों की कुर्बानी और आज़ादी की राह में वर्षों का संघर्ष क्यों व्यर्थ हो गया? आइए, शपथ लें कि अपने शहीदों का बलिदान हम व्यर्थ नहीं जाने देंगे.
अगर प्रजातंत्र लाना है, तो जनता को अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी. हर एक मतदाता को जागरूक होकर यह तय करना होगा कि वो किसी भी पार्टी के उम्मीदवार को वोट न देने की प्रतिज्ञा लें. जनता अपना उम्मीदवार ख़ुद खड़ा करेगी, उसमें पार्टी की कोई भूमिका नहीं होगी. जनता चरित्रवान लोगों का चुनाव करेगी और उन्हें अपना प्रतिनिधि बनाएगी. ऐसे में पार्टी तंत्र, जो कि दरअसल भ्रष्ट-तंत्र है, अपने आप नेस्तनाबूत हो जाएगा.
इन सबके बीच यह सवाल खड़ा होना लाज़िमी है कि क्या राजनीतिक दल, जनता में यह विश्‍वास पैदा होने देंगे कि वे अपना उम्मीदवार खड़ा करें और क्या देश की जनता में इतना भरोसा आ गया है कि वह अपना उम्मीदवार ख़ुद खड़ा कर सके. इस सवाल की सबसे बड़ी वज़ह है धनबल और बाहुबल का राजनीति पर हावी होना. इन धन पशुओं के सामने जनता का उम्मीदवार कैसे टिक पाएगा. यह चिंता जायज़ है, लेकिन देश का इतिहास गवाह है कि इसी जनता  ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है और एक बार फिर जनता इसे आज़ादी की दूसरी लड़ाई समझकर यह तय कर ले कि हम रिश्‍वत लेकर वोट नहीं देंगे.
दाग़ियों को वोट नहीं देंगे. अपने खड़े किए हुए उम्मीदवारों को चुनेंगे. जनता की प्रतिबद्धता के सामने बड़ी-बड़ी मुश्किलें हल हुई हैं, यह भी हल होगी.
हमें यह भी समझना होगा कि युवा शक्ति राष्ट्र शक्ति है. हालांकि राजनीतिक पार्टियां, युवाओं को भी अपने पक्ष में लाने के लिए इनके बीच दलगत राजनीति का बीज बो रही हैं, लेकिन आपने देखा कि देश का युवा अब भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जाग गया है. समूचे देश को इसी तरह जागना होगा.  इस मानसिक परिवर्तन में समय लगेगा, लेकिन जितनी जल्दी लोग इस अवस्था से बाहर निकल कर, भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बाहर आएंगे, उतना ही जल्दी देश सही मायनों में स्वतंत्र होगा.
आज़ादी की दूसरी लड़ाई को कामयाब बनाने के लिए ज़रूरी है कि जनता पहले राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार का ख़ात्मा करे. इसके लिए जनता अपने बीच से निष्ठावान, चरित्रवान व सच्चे उम्मीदवार का चयन करे. ऐसे जनता उम्मीदवारों के साथ मेरा समर्थन रहेगा. उनके लिए मैं देश भर में भ्रमण करूंगा. मैं ऐसे लोगों के पक्ष में रहूंगा और जनता के सहयोग से जब ऐसे लोग जीत कर आएंगे, तभी सही मायने में लोकतंत्र की अवधारणा को अर्थ मिलेगा.
जनता इन सभी परिस्थितियों को समझती है. मैं मानता हूं कि देश में संवेदनशील लोगों की कमी नहीं है, लेकिन इस संवेदनशील जनता को राजनेताओं ने हमेशा धोखा दिया है. देश के प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं कि हम जनलोकपाल लाएंगे, लेकिन यह अभी तक हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो पाया है. सरकार ने जनता के साथ धोखा किया है और मैं इसी धोखे को इस संवदेनशील जनता के सामने लाना चाहता हूं और इसका माध्यम मैं आत्मक्लेश समझता हूं. गांधी जी ने अहिंसा और आत्मक्लेश के मार्ग की बात की थी. इस लिए भी और देश की दूसरी आज़ादी की आवाज़ को बल देने के लिए मैं संसद के आगामी शीतकालीन सत्र के पहले दिन से आत्मक्लेश-आत्मशुद्धि के लिए उपवास करने जा रहा हूं. मुझे यक़ीन है कि इसकी संवेदना जनता तक पहुंचेगी. मुझे यह भी विश्‍वास है कि 16 अगस्त, 2011 के दौर में जिस तरह जनता जन लोकपाल के समर्थन में सड़कों पर उतर आई थी, उससे कहीं बड़ी संख्या में इस बार लोग भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हाथ से हाथ मिलाएंगे, क्योंकि उन्हें न केवल छला गया है, बल्कि स्थितियों को और भी बदतर बना दिया गया है.
इन्हीं बदतर स्थितियों ने देश की जनता के बीच से कई हाथों में बंदूकें थमा दी हैं. यह देश तो गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों पर चलने वाला देश था, लेकिन यह सरकार की नाक़ामी है कि जो हाथ साकार के लिए उठते थे, वह प्रतिकार के लिए उठ रहे हैं. और सरकार का यह तानाशाही रवैया तो देखिए, वह उन हाथों में विकास की डोर देने के  बजाए उनका दमन कर रही है. सरकार ग़लतफ़हमी में है कि वह मालिक है. इस देश में प्रजा सत्ता है और जिस दिन सत्ता में बैठे लोगों की समझ में यह बात आ जाएगी, उसी दिन समाज में व्याप्त सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी.
राजनीतिक दल जनता में भरोसा नहीं करते. वे जनता को केवल वोट बैंक में बदलने के लिए धर्म-जाति व अन्य आधारों पर बांट रहे हैं. मेरा संघर्ष यह है कि राजनीतिक पार्टियां जनता का इस्तेमाल अपने छुद्र स्वार्थों के लिए न करें. इसीलिए मैं बार-बार जनता की सहभागिता की बात कर रहा हूं. जनता के दिल में जाति-पंथ जैसा कोई विभेद नहीं है. नेता के दिमाग़ में लोकसेवा के बजाए वोट बैठ गया है. देश की जनता इन विचारों से ऊपर है, बस उनमें समन्वय बनाए रखना होगा. मेरी कोशिश भी इसी समन्वय को बनाए रखने की है. हो सकता है कि इसमें थोड़ा वक्त लगे, लेकिन मैं इसे जनता के साथ चलकर हर क़दम मंजिल को हासिल करने के लिए बढ़ाऊंगा.
मेरी दूसरी आज़ादी की लड़ाई को लेकर एक सवाल यह खड़ा हो सकता है कि जब पहली आज़ादी की लड़ाई के बाद देश के कर्णधार ग़लत रास्तों पर चलने लगें, तो अब जनता जिन लोगों को चुनकर भेजेगी, क्या वे निष्ठावान बने रहेंगे, इस बात की क्या गारंटी है. मेरा जवाब है कि जनता के जो उम्मीदवार चुन के जाएंगे, वह राइट टु रीकॉल की सीमा में बंधे रहेंगे. अगर वो जनता के हित में नहीं रहेंगे, तो जनता उन्हें वापस बुलाकर सबक सिखाएगी. जनता के हाथ और  उसकी सोच दोनों मज़बूत हैं. इसलिए जब वह अपने ही भीतर से, अपने पैमानों के आधार पर लोगों को चुनेगी, तो निश्‍चित रूप से चुने गए वे लोग, देश और समाज के बारे में सोचने वाले लोग होंगे.
जनता को पता है कि आज़ादी की लड़ाई की क्या क़ीमत चुकाई गई थी और जनता उस कुर्बानी को न भूले और जिस आज़ाद और आदर्श भारत की कल्पना उन शहीदों ने की थी, उसे क़ायम रखने के लिए क़दम आगे बढ़ाए. यही उन शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी और यही सोच असली स्वतंत्रता को साकार रूप दे पाएगी.
हमें यह भी समझना होगा कि युवा शक्ति राष्ट्र शक्ति है. हालांकि राजनीतिक पार्टियां, युवाओं को भी अपने पक्ष में लाने के लिए इनके बीच दलगत राजनीति का बीज बो रही हैं, लेकिन आपने देखा कि देश का युवा अब भ्रष्टाचार के ख़िलाफ जाग गया है. समूचे देश को इसी तरह जागना होगा

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