|| अक्स ||
तुम पहलू में बैठी हो और रात ढली है
महफ़िल में सब अपनी-अपनी परछाई में गुम बैठे हैं
ढूंढ रहे हैं अक़्स किसी का खो जाने को
या आंखों ही आँखों में फिर ख्व़ाब-ख्व़ाब में और किसी का हो जाने को।
मैं बैठा जगती आंखों से ख्व़ाब तुम्हारे देख रहा हूँ।
बैठा-बैठा सोच रहा हूँ
जैसा तुमको ख्व़ाब में देखा
क्या तुम वैसी ही दिखती हो
बड़ी-बड़ी दो आंखें जैसे खामोशी से कोई सपना ढूंढ रही हैं,
कोई अपना ढूंढ रही हैं।
पत्तों के दो फाँकों जैसे होठ तुम्हारे,
मुस्कानों की मिष्ठी घोले बोल रहे हैं
पर भीतर की ख़ामोशी भी टोल रहे हैं
गालों पर एक सुर्ख़ी है जो ज़र्द पड़ी उम्मीदों की बाहें थामे है
वो सुर्ख़ी जो भोर भए परबत पर चढ़ कर मरे हुए पतथर को ज़िंदा कर देती है
वो सुर्ख़ी जो मजदूरों के माथे पर चढ़ जाए तो फिर इन्क़लाब आ कर रहता है
गालों के उस सुर्ख़ रंग में तुम भी मुझको
इन्क़लाब जैसी लगती हो
मैं तुमको यूँही अपने ख़्वाबों में देखा करता हूँ
सुबह-शाम सोचा करता हूँ
पर फिर ये भी सोच रहा हूँ
ख़्वाब तो आख़िर ख़्वाब ही ठहरा
आंखों का सैलाब ही ठहरा
फिर भी तुमसे पूछ रहा हूँ
क्या तुम मेरे ख़्वाब बनोगी
आंखों का सैलाब बनोगी
अच्छा छोड़ो
चलो सवालों के जंगल से बाहर आकर मान लिया है
जब तुम मेरे ख़्वाब बनोगी
आंखों का सैलाब बनोगी
इन्क़लाब जैसा आएगा
सब कुछ अपना हो जाएगा
तब पूछुंगा तुमको कितना समझ सका मैं
ख़्वाब में तुमको जितना देखा
वही तुम्हारा अक़्स है या कुछ और भी हो तुम
जिसको देख नहीं सकता मैं
जिसको सोच नहीं सकता मैं
शशि भूषण ‘समद’