आज की भारतीय जनता पार्टी के नेता ये भूल गए हैं कि कैसे नानाजी देशमुख को जेपी का प्यार मिला और नानाजी देशमुख ने उस प्यार के सहारे कैसे अटल बिहारी वाजपेयी जी और लालकृष्ण आडवाणी को जयप्रकाश जी के साथ खड़ा होने का आदेश दिया. लालू प्रसाद यादव सहित मुलायम सिंह यादव का भी नाम मैं लेना चाहूंगा, सारे समाजवादियों का मैं नाम लेना चाहूंगा कि इन्हें जयप्रकाश नारायण क्यों नहीं याद हैं. यह मैं समझ नहीं पाता. मैं यह समझ सकता हूं कि अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव को जयप्रकाश नारायण का नाम नहीं याद होगा, लेकिन मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव को तो उनका नाम याद होना ही चाहिए. बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक को भी जयप्रकाश नारायण का नाम याद नहीं है, जबकि बीजू दा को जयप्रकाश नारायण बहुत प्यार करते थे. वो भी उनसे मिलने अक्सर जाते थे.
11 अक्टूबर बहुत कम लोगों को याद है. 11 अक्टूबर उन्हें भी नहीं याद है, जिनकी पहचान देश में 11 अक्टूबर की वजह से ही बनी. 11 अक्टूबर लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन है और इस जन्मदिन को सभी भूल गए. सिर्फ कुछ लोगों को याद रहा, कुछ छिटपुट संस्थाओं को याद रहा और उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण को श्रद्धांजलि भी दी. लेकिन जिन्हें श्रद्धांजलि देनी चाहिए, वो इस दुनिया में कहां हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सामान्य सा ट्वीट करके अपने कर्तव्यों को पूरा हुआ मान लिया. इसी सरकार में अरुण जेटली हैं, वे अरुण जेटली नहीं होते, अगर जयप्रकाश नारायण नहीं होते. अरुण जेटली को जयप्रकाश नारायण याद ही नहीं आए. भारतीय जनता पार्टी के लगभग पूरा नेतृत्व की साख जयप्रकाश जी की वजह से ही बनी. मैं आज के नेतृत्व की बात नहीं कर रहा हूं, मैं अटल जी के समय के नेतृत्व की बात कर रहा हूं, नानाजी देशमुख के समय के नेतृत्व की बात कर रहा हूं, जिनमें सबकी पहचान लोकनायक जयप्रकाश नारायण के द्वारा बनी और जिन्हें जयप्रकाश जी की सहमति से मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में जगह मिली.
आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आपातकाल में जेल तो नहीं गए थे, लेकिन जेल में बंद अपने साथियों तक अखबार, उनकी चिट्ठी-पत्री और कुछ खाने-पीने का सामान पहुंचाने जरूर जाते थे. इसलिए उनका भी नाता तिरछे ढंग से ही सही, जयप्रकाश जी से सीधा जुड़ता है. लेकिन सरकार से अलग जो सरकार का हिस्सा हैं, जिनमें रामविलास पासवान प्रमुख हैं, उनकी तरफ से कोई श्रद्धांजलि 11 अक्टूबर को नजर नहीं आई.
बिहार सरकार जरूर अपने यहां कुछ कार्यक्रम किए. नीतीश कुमार भी जयप्रकाश आंदोलन की उपज हैं. वे कुछ समारोह में गए. सारे देश ने 11 अक्टूबर मनाई, लेकिन 11 अक्टूबर अमिताभ बच्चन की वजह से मनाई. उन्हें जयप्रकाश नारायण का नाम भी याद नहीं है. उन्हें अमिताभ बच्चन, उनका महानायकत्व, उनकी अदाकारी के लटके-झटके जरूर याद रहे. यह इस देश का सबसे बड़ा अंतरविरोध है, जहां पर चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण से ज्यादा वो याद किए जाते हैं, जिन्होंने देश को जिंदा रखने में कम, देश को मनोरंजन के मुहाने तक पहुंचाने में सबसे ज्यादा हिस्सा लिया. ये स्थिति भारत जैसे देश में ही हो सकती है.
मुझे याद है, एक बड़े लेखक ने लिखा था कि अच्छा हुआ जो ये सब हमारे बीच से चले गए. अगर ईश्वर इन्हें दोबारा भारत देखने के लिए बुलाए, तो ये कभी हिन्दुस्तान आना पसंद नहीं करेंगे. हिन्दुस्तान के लोगों की मानसिकता को देखकर और अपने शिष्यों के अमानवीय असंवेदनशील बर्ताव को देखकर ये अपना सर पीट लेंगे और ईश्वर से कहेंगे कि अब हमें कम से कम इस देश में मत भेजना जो देश जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों को भूल जाता है. वो देश इसी प्रकार के सामाजिक और राजनीतिक विक्षोभ के जाल में फंस जाता है जैसे हम फंसे हुए हैं.
लेकिन इससे जयप्रकाश नारायण को कोई फर्क नहीं पड़ता. जयप्रकाश नारायण ने अपने समय में असंभव को संभव बना दिया था. इस मुर्दा देश के लोगों में ये साहस नहीं था कि वो सूर्य की रोशनी को, उसकी गर्मी को बर्दाश्त कर सके. उस देश के लोगों को जयप्रकाश नारायण ने जलते हुए आग का सामना करने के लिए तैयार कर दिया था. इस देश के लोगों को लोकतंत्र के बुनियादी तत्वों का ज्ञान जयप्रकाश नारायण ने ही कराया. उन्होंने लोगों को बताया कि अपने प्रतिनिधियों को कैसे कब्जे में रखें. उन्होंने यह भी कहा कि जो बायलॉजिकल विपक्ष है या शास्त्रीय विपक्ष है उसपर मत भरोसा करो, बल्कि जनता को स्वयं विपक्ष का रोल निभाने के लिए तैयार रहना चाहिए.
इसी के लिए उन्होंने शब्द इस्तेमाल किया था, एक्स्ट्रा पार्लियामेंटरी अपोजिशन. उनका कहना था जब तक ये स्थिति देश में नहीं बनती, तब तक इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुना हुआ हर आदमी जनता के हित के खिलाफ ही काम करेगा. जनता का क्या दबाव होता है, जनता कैसे सत्ता पलटती है, इसका उदाहरण गांधी के बाद देश में जयप्रकाश नारायण ने ही प्रस्तुत किया.
कांग्रेस के लोग भूलने में बहुत उस्ताद हैं. वो ये भूल गए कि 1977 में जनता पार्टी की जीत और कांग्रेस की हार के बाद इंदिरा गांधी जब भूतपूर्व प्रधानमंत्री बनकर अपने घर में डरी सहमी बैठी थीं, तब उनके दरवाजे पर जो पहला व्यक्ति पहुंचा था, यह कहने के लिए कि ‘इन्दू डरो मत, मैं हूं’, वो जयप्रकाश नारायण ही थे. वही जयप्रकाश नारायण, जिन्हें इंदिरा गांधी ने 26 जून 1975 को जेल में डाल दिया था, जहां उनकी दोनों किडनियां बेकार हो गईं और सारी जिन्दगी उन्हें डायलिसिस कराना पड़ा.
आज की भारतीय जनता पार्टी के नेता ये भूल गए हैं कि कैसे नानाजी देशमुख को जेपी का प्यार मिला और नानाजी देशमुख ने उस प्यार के सहारे कैसे अटल बिहारी वाजपेयी जी और लालकृष्ण आडवाणी को जयप्रकाश जी के साथ खड़ा होने का आदेश दिया. लालू प्रसाद यादव सहित मुलायम सिंह यादव का भी नाम मैं लेना चाहूंगा, सारे समाजवादियों का मैं नाम लेना चाहूंगा कि इन्हें जयप्रकाश नारायण क्यों नहीं याद हैं. यह मैं समझ नहीं पाता.
मैं यह समझ सकता हूं कि अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव को जयप्रकाश नारायण का नाम नहीं याद होगा, लेकिन मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव को तो उनका नाम याद होना ही चाहिए. बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक को भी जयप्रकाश नारायण का नाम याद नहीं है, जबकि बीजू दा को जयप्रकाश नारायण बहुत प्यार करते थे. वो भी उनसे मिलने अक्सर जाते थे.
जयप्रकाश नारायण से ताकत लेकर आज इस देश में चमकने वाला संपूर्ण नेतृत्व कहीं न कहीं लोकनायक जयप्रकाश नारायण का ऋृृणी है. लेकिन वो इतना नाशुक्रा है कि इस बात को नहीं मानता. रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था, ‘जयप्रकाश है नाम समय की करवट का, अंगड़ाई का, भूचाल बवंडर के ख्वाबों से भरी हुई तरुणाई का.’ इस लाइन का अर्थ आप तलाशिए और सोचिए कि ये पंक्तियां कैसे शरीर में आग फैला देती है. जयप्रकाश के बाद वाली पीढ़ी के लिए क्या ये कहा जा सकता है कि वो भूचाल-बंवडर के ख्वाबों से भरी हुई तरुणाई है.
अच्छा है कि हम जयप्रकाश नारायण का नाम भूल जाएं, अच्छा है कि हम गांधी का भी नाम भूल जाएं. क्योंकि इनका नाम याद करने से अपनी अकल्पनाशीलता, अपनी कमजोरी, अपनी असहायता का अहसास होता है. क्योंकि जयप्रकाश नारायण ने परिस्थिति के बीच हस्तक्षेप किया था. वो एक बात कहते थे कि अगर तुम कुछ नहीं कर सकते हो, तो तुम अन्याय के खिलाफ अपना कांपता हुआ हाथ उठा सकते हो. असहमति के लिए अपना हाथ उठा सकते हो.
आज कितने हैं इस देश में जो परिस्थितियों के झंझावत में हस्तक्षेप करने की ताकत रखते हैं या असहज स्थिति के खिलाफ अपना असहमति का हाथ उठा सकते हैं. जो इस सच्चाई को स्वीकार कर, आगे बढ़ने की हिम्मत रखे, उसी को जयप्रकाश नारायण का नाम लेने का हक है. बाकी सबके लिए श्रेयस्कर यही है कि जयप्रकाश नारायण का नाम भूल जाएं और यह सोच लें कि इस्ट इंडिया कंपनी के समय हम जिस राजनीतिक और आर्थिक गुलामी में थे, हम उसी में रहने और जीने लायक हैं. आजादी का हमारे लिए कोई मतलब नहीं.
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