आज का कश्मीरी युवा 1990 के बाद पैदा हुआ है. ये वो दौर था, जब घाटी में मिलिटेंसी शुरू हुई थी. इस वर्ग ने जन्म के बाद अपने आसपास हिंसा, गोली बंदूक, वर्दी, तलाशी अभियान और नारेबाज़ी ही देखी. कश्मीर की यह पीढ़ी मानसिक और भावनात्मक रूप से बहुत संवेदनशील है. इसलिए मौजूदा स्थिति में उसकी प्रतिक्रिया असाधारण होती है.
11 अक्टूबर को सीमावर्ती जिला कुपवाड़ा के शार्टगुंड क़ल्माबाद गांव में सुरक्षा बलों ने कई घंटों तक चलने वाली एक मुठभेड़ में मन्नान बशीर वानी को उसके अन्य साथियों के साथ मार गिराया. मन्नान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहा था. वह इसी वर्ष जनवरी में मिलिटेंसी में शामिल हुआ था.
जब पहली बार हाथों में राइफल लिए उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुईं, तो संजीदा सोच रखने वाले लोग चिंता में पड़ गए थे, क्योंकि पहले से ही घाटी में कम उम्र के नौजवानों का मिलिटेंसी की ओर रुझान बढ़ रहा था. मन्नान जैसे शिक्षित युवा का मिलिटेंसी का हिस्सा बन जाने के बाद इस संदेह को और बल मिलने लगा है कि कहीं उसकी देखादेखी अन्य छात्रों में भी मिलिटेंसी का रुझान आम न हो जाए.
पहले भी पढ़े लिखे नौजवानों के मिलिटेंसी में शामिल होने के उदाहरण मौजूद हैं. इसी वर्ष कश्मीर यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर एवं सहायक प्रोफेसर डॉ. रफ़ीक बट ने हिजबुल मुजाहिदीन का दामन थामा था. डॉ. रफ़ीक की मौत शोपियां जिले के एक एनकाउंटर में हुई थी. ऐसा नहीं है कि डॉ. रफ़ीक और मन्नान वानी जैसे उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवानों का मिलिटेंसी का रास्ता चुनना कोई अनोखी बात है.
पूर्व में भी इस तरह की कई मिसालें देखने को मिली हैं, लेकिन पिछले दो तीन-साल के दौरान पढ़े लिखे नौजवानों में मिलिटेंसी का रुझान अधिक हुआ है. पुलिस भी इस बात की पुष्टि कर चुकी है कि पिछले वर्ष यानी 2017 में घाटी के जिन 127 नौजवानों ने हथियार उठाया था, उनमें 39 स्नातक थे.
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों के दौरान घाटी में मिलिटेंसी की प्रकृति में कई बदलाव देखने को मिले हैं. इन बदलावों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यहां नई पीढ़ी अपनी भावनाओं का प्रदर्शन हिंसात्मक तरीके से करने लगी है. सोशल मीडिया पर भ्रमण करने वाले कई विडियो क्लिप्स में कश्मीरी नौजवानों को सुरक्षाबलों पर जिस गहनता से पथराव करते देखा जा सकता है, वो पूर्व में कभी नहीं देखा गया. जबकि पथराव कश्मीर में हमेशा विरोध की सियासत का हिस्सा रहा है.
लेकिन अब ऐसा लगता है कि न केवल पथराव की गहनता में बढ़ोतरी हुई है, बल्कि पथराव करने वाले नौजवानों की संख्या में भी असाधरण रूप से इजाफा हुआ है. इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2016 और 2017 में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पुलिस ने पथराव के इल्ज़ाम में 11 हज़ार 290 नौजवानों को गिरफ्तार किया, जिनमें से अधिकांश को बाद में रिहा कर दिया गया.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, घाटी में पथराव करने वालों के खिलाफ 3773 एफ़आईआर दर्ज किए गए हैं. इसके आलावा पिछले कुछ वर्षों के दौरान घाटी के हिंसात्मक हालात में जो नए बदलाव देखने को मिले हैं, उनमें आम नौजवानों का मुठभेड़ स्थल पर जा कर सुरक्षा बलों के घेरे में आए मिलिटेंटों को भगाने की कोशिश करना और मारे जाने वाले मिलिटेंटों के जनाजों में जोश-ओ-खरोश के साथ शिरकत करने जैसी बातें शामिल हैं.
समीक्षकों का मानना है कि कश्मीरी नौजवानों का अतिवाद की ओर बढ़ना चिंताजनक है. ऐसा इसलिए क्योंकि यदि नई पीढ़ी में हिंसात्मक प्रवृति इसी तरह बढ़ती रही, तो इसका दुष्परिणाम भविष्य की पीढ़ियों को झेलना पड़ेगा. इन समीक्षकों का यह भी मानना है कि नई दिल्ली ने कश्मीर मसले के शांतिपूर्ण हल के लिए बातचीत के दरवाजे बंद कर कश्मीरियों की नई नस्ल को इस स्थिति में ला खड़ा किया है.
वरिष्ठ पत्रकार और संपादक ताहिर मोहिउद्दीन का मानना है कि 2014 में नई दिल्ली में मोदी सरकार के वजूद में आने के बाद कश्मीरी नौजवानों में हिंसात्मक प्रवृति में इजाफा देखने को मिला. उन्होंने चौथी दुनिया को बताया कि मुझे लगता है कि आज घाटी में जो हालात देखने को मिल रहे हैं, उसे नई दिल्ली की भाजपा सरकार ने पैदा किया है. इस सरकार ने सुलह सफाई और वार्ता जैसी बातों की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी है.
अलगाववादी नेताओं को उनके घरों तक सीमित कर दिया गया है. हर चीज़ पर पाबंदी लगा दी गई है. इन हालात में 1990 के बाद पैदा हुए कश्मीरी नौजवानों में हिंसात्मक प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. उनका कहना है कि ये वो नौजवान हैं, जिन्होंने पैदा होने के बाद हमेशा बंदूकें, वर्दियां, गोलियां, नारेबाजी, तलाशी अभियान जैसी चीज़ें देखी और सुनी हैं.
उन्होंने कहा कि ये मानसिक और भावनात्मक रूप से संवेदनशील बच्चे हैं, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया असाधारण है. ताहिर मोहिउद्दीन का कहना है कि सोशल मीडिया तक कम उम्र लड़कों की पहुंच भी हिंसात्मक प्रवृति के फैलाव का कारण बन रही है. उन्होंने कहा कि अगर 1990 (जब कश्मीर में सशत्र संघर्ष शुरू हुआ था) में भी सोशल मीडिया होता, तो शायद उस समय भी हिंसा की तीव्रता में बढ़ोतरी देखने को मिलती. उनका यह भी कहना है कि मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी नीतियों की वजह से भी नई पीढ़ी में गुस्सा है.
ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि कश्मीर घाटी की हालात में बेहतरी की क्या संभावनाएं हैं. राजनैतिक समीक्षक रियाज़ मलिक कहते हैं कि मोदी सरकार अपने मौजूदा कार्यकाल के आखिरी चरण में है. ऐसे में वो अपनी कश्मीर नीति में ज़रा सी भी लचक पैदा करने की स्थिति में नहीं है. बल्कि उल्टा इस बात की संभावना है कि कश्मीर पर भाजपा सरकार का रवैया और सख्त होगा. मलिक ने चौथी दुनिया को बताया कि 2014 में नई दिल्ली में सत्ता संभालने के बाद भाजपा ने जो नीतियां अपनाई, उसकी वजह से इस सरकार की छवि पाकिस्तान विरोधी, कश्मीरी अलगावाद विरोधी और मुस्लिम विरोधी बन गई.
खुद सरकार ने जानबूझकर या अनजाने में इस छवि को बदलने की कोशिश नहीं की है. अब जबकि आने वाले कुछ दिनों में नए चुनावों की तैयारियां शुरू हो जाएंगी, ऐसे में केंद्र सरकार कश्मीर पर कोई नर्म नीति नहीं ला सकती है और न ही विश्वास बहाली के लिए कोई बड़ा क़दम उठा सकती है. क्योंकि सरकार कई मोर्चों पर अपने वोटरों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है और अब अगर उसने कश्मीर जैसे संवेदनशील मामले में सख्त नीति भी बदल दी, तो उसकी रही सही साख भी गिर जाएगी.
ज़ाहिर है अगर नई दिल्ली फिलहाल अपनी कश्मीर नीति में कोई बदलाव नहीं लाएगी, तो यहां के हालात में किसी सकारात्मक बदलाव की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि कश्मीर कब तक इस तरह के हालात से जूझता रहेगा? ताहिर मोहिउद्दीन कहते हैं कि मेरे ख्याल में यदि हमारे यहां अगले कुछ वर्षों तक हालात ऐसे ही रहे और हमारी नई पीढ़ी इसी तरह हिंसात्मक प्रवृति में गिरफ्तार रही तो कश्मीर में सीरिया जैसे हालात पैदा हो जाना कल्पना से परे नहीं है.
एक तरफ केंद्र सरकार तत्काल कश्मीर को कोई सियासी रियायत देने या शांति स्थापित करने की सुगबुगाहट के मूड में भी नहीं है. दूसरी ओर, सेना का ऑपरेशन ऑल आउट भी जारी है. इस ऑपरेशन के तहत अब तक सैकड़ों कश्मीरी मिलिटेंट मारे जा चुके हैं. ऐसी स्थिति में आने वाले दिनों या हफ़्तों में घाटी के हालात में बेहतरी के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं.