protestअभी भी देश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो चुनाव में किस पार्टी ने क्या किया और कौन सी पार्टी क्या करने वाली है, ये जानने में रुचि रखते हैं. दरअसल ये ऐसे लोग हैं, जिनके दिमाग पर अभी भी सिद्धांतों का, वादों का और ईमानदारी का बोझ दिखाई देता है. दूसरी तरफ, ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है, जो चुनाव को बाजीगरी, जादूगरी और तिकड़मी चालों का खेल मानते हैं. ये लोग इस खेल को खेलने में विश्वास रखते हैं. इन सबके लिए जिम्मेदार भी राजनीतिक दल ही हैं, जिन्होंने चुनाव को लोकतांत्रिक परीक्षा से हटाकर झूठे वादों और झूठे सवालों का सिनेमा बना दिया है.

देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों के नेता आमने-सामने हैं. भारतीय जनता पार्टी के सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी कर्नाटक चुनाव के मुखिया बन गए हैं, उन्हें और उनकी पार्टी को भी यही लगता है कि अगर नरेंद्र मोदी प्रचार नहीं करेंगे तो कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार जाएगी. दूसरी तरफ, राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद प्रत्यक्ष तौर पर पहला चुनाव मिला है, जहां उन्हें हर हाल में अपनी जीत दर्ज करानी है.

उन्हें और शायद उनकी पार्टी को भी इस बात का डर है कि अगर कांग्रेस कर्नाटक नहीं जीती, तो यह मान लिया जाएगा कि राहुल गांधी में वोट दिलाने की क्षमता नहीं है. कांग्रेस को कर्नाटक चुनाव जीतना है और राहुल गांधी की उपस्थिति के साथ जीतना है, ताकि सेहरा राहुल गांधी के सिर बंधे. इन सभी स्थितियों का अगर विश्लेषण करें, तो हम पाएंगे कि हमें न तो कर्नाटक के मुद्दे इस चुनाव में दिखाई दे रहे हैं और न कर्नाटक की समस्याओं का कोई हल चुनाव के बाद भी मिलता नजर आ रहा है.

सबसे पहले देश के नेता प्रधानमंत्री मोदी के बारे में अगर सोचें, तो हम पाएंगे कि प्रधानमंत्री बनने के बाद, उन्होंने जिन 50 उद्देश्यों या 50 वादों की घोषणा की थी, उनमें से एक भी वादा उपलब्धि के तौर पर प्रधानमंत्री के भाषणों में नजर नहीं आता. कई चुनाव हो चुके हैं, जिनमें नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के नाते कमान भी संभाली और वादों की झड़ियां भी लगाईं. लेकिन किसी भी एक चुनाव में उन्होंने अपनी किसी उपलब्धि को मुद्दा नहीं बनाया. बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, त्रिपुरा और अब कर्नाटक. आप कितना भी खंगाल लीजिए, प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में नए-नए वादों की झड़ी होती है, विपक्ष पर आरोपों के चाबुक होते हैं, अपनी पार्टी के छिद्र भरने की कोशिश होती है और विपक्षियों को किस तरह तोड़ा जाए,  इसके तीर होते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में जमीन पर उतारे गए वादों के जिक्र का नितांत अभाव दिखाई देता है.

प्रधानमंत्री मोदी स्वयं ही सेनानायक हैं, स्वयं ही रणनीति बनाते हैं, स्वयं ही पार्टी के नाव को खेते नजर आते हैं और स्वयं ही दोधारी तलवार से दुश्मन को परास्त करते दिखाई देते हैं. भारतीय जनता पार्टी अपने किसी भी दूसने नेता को कोई सम्मानजनक स्थान चुनाव प्रचार में नहीं देती, सिवाय योगी आदित्यनाथ के. अमित शाह पार्टी के अध्यक्ष हैं. वे हर जगह प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के बाद संभावित जीत की होली खेलते दिखाई देते हैं और योगी आदित्यनाथ पूरे चुनाव को कट्‌टर हिन्दुत्व की धारा में ले जाने की कोशिश करते नजर आते हैं. पार्टी में राजनाथ सिंह भी हैं, नितिन गडकरी भी हैं, शिवराज सिंह भी हैं, वसुंधरा राजे भी हैं. लेकिन इनकी झलक कहीं नहीं दिखाई देती और रमन सिंह जैसों का अस्तित्व तो पार्टी के लिए कोई मायने ही नहीं रखता.

दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी पर हमले कर रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी और संघ पर तीर छोड़ रहे हैं. लेकिन राहुल गांधी कहीं भी यह संदेश देते नहीं दिख रहे हैं कि उनके दिमाग में देश को बदलने का कोई नक्शा है भी या नहीं. राहुल गांधी पर पार्टी को सक्रिय करने की एक बड़ी जिम्मेदारी है. पार्टी को सक्रिय करने के लिए कैसी विचारधारा चाहिए, किस तरह की शब्दावली चाहिए और किस तरह का सपना चाहिए, अभी तक इसका अभाव दिखाई देता है. संभवतः कनार्टक चुनाव राहुल गांधी के लिए बहुत बड़ी परीक्षा की घड़ी है. किसी भी एक चुनाव से किसी पार्टी की हार या जीत का पता नहीं चलता, पर पार्टी के कार्यकर्ताओं के भीतर संदेश अवश्य जाता है कि उनका नेता उन्हें वोट दिलाने में कितना सक्षम है.

लेकिन पार्टी से बड़ा देश होता है. देश के लोग राहुल गांधी से अपेक्षा करते हैं कि वे चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद जनता के सामने यह रखें कि देश के भविष्य का नक्शा कैसा हो. यह संयोग ही है कि राहुल गांधी से जिस रणनीति की अपेक्षा थी, उसके दर्शन अभी तक नहीं हुए हैं. लोग अभी तक यह भी नहीं समझ पाए हैं कि कर्नाटक चुनाव के दौरान ही दिल्ली में जनाक्रोश रैली करने की क्या आवश्यकता थी. जो साधन जनाक्रोश रैली में कांग्रेस अध्यक्ष ने लगाया, अगर वो साधन कर्नाटक में लगा दिए जाते, तो शायद पार्टी को ज्यादा फायदा होता.

इसीलिए लोग तलाश रहे हैं कि कम से कम उस टीम का पता चले, जो राहुल गांधी को सलाह देने का काम करती है या उनके लिए तथ्य जुटाने का काम करती है. राहुल गांधी अपनी खोजी टीम या सलाहकारों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले में बीस नहीं पड़ रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी अपनी शैली में राहुल गांधी को हर जगह फंसाने में सफल हो जाते हैं. यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री मोदी क्या कहते हैं, इसके बारे में देश के लोगों को बहुत साफ पता नहीं चल पाता है. इसके बावजूद, मोदी और राहुल गांधी का युद्ध जारी है. लेकिन उस युद्ध के आधार और युद्ध के तथ्यों से देश के लोग पूरी तरह अनभिज्ञ हैं.

सवाल सिर्फ यह है कि क्या हम अब भी आशा रख सकते हैं कि ये दोनों नेता देश की मूल समस्या पर कोई स्पष्ट राय रखेंगे. मसलन, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसान आत्महत्या और कर्नाटक में पीने और सिंचाई के पानी की कमी जैसे मुद्दों पर क्या प्रधानमंत्री मोदी या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी आने वाले दिनों में देश के सामने कोई राय रख पाएंगे? लोग सुनना चाहते हैं. लेकिन दोनों ही स्थानीय सवालों से बचते नजर आते हैं.

अगर हम यह कहें कि देश में बेरोजगारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार और गरीबी का एक मुख्य कारण अर्थव्यवस्था की संरचना है, तो हम पाते हैं कि उसी अर्थव्यवस्था को बनाए रखने की जी जान से कोशिश मनमोहन सिंह के समय कांग्रेस ने की. मनमोहन सिंह के बाद इसकी कोशिश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं और राहुल गांधी इस अर्थव्यवस्था के खिलाफ कुछ बोलते, समझते नजर नहीं आ रहे हैं. मैं उन लोगों में से हूं, जो यह मानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था ही लोगों की खुशहाली का या लोगों की बदहाली का मुख्य कारण है. इस अर्थव्यवस्था को, जिसे 1991 में कांग्रेस ने लागू किया और जिसके प्रणेता नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह थे, उस अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाने का काम प्रधानमंत्री मोदी ने किया.

इसकी वजह से हम समस्याओं के अंबार में घिरे हुए हैं. राहुल गांधी को शायद अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोध, अर्थव्यवस्था की असफलता और अर्थव्यवस्था का क्रूर चेहरा न दिखाई देता है और न उन्हें समझ में आता है. इसलिए अब इसकी आशा छोड़ देनी चाहिए कि अर्थव्यवस्था पर कोई सार्थक बहस या इसे लेकर कोई चिंता या कोई समाधान निकालने की कोशिश प्रधानमंत्री मोदी या राहुल गांधी करेंगे. दोनों एक ही रास्ते के राही हैं. अलग रास्ता अपनाने की इच्छाशक्ति, जो देश के 80 प्रतिशत लोगों के हित में हो, न भारतीय जनता पार्टी में दिखाई देती है और न कांग्रेस में दिखाई देती है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here