topउत्तर प्रदेश का चुनाव भविष्य में किस तरह की प्रयोगशाला बनेगा, इसे लेकर चिंता हो रही है. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का शासन है. माना जाता है कि मुलायम सिंह यादव बुनियादी तौर पर डॉ. लोहिया के आदर्शों में विश्‍वास करते हैं. वहां की दूसरी बड़ी पार्टी बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती, डॉ. अम्बेडकर के सिद्धांतों में विश्‍वास रखती हैं. उन दोनों के विचारों में बुनियादी तौर पर कोई मतभेद नहीं है, पर मतभेद इतना है कि दोनों एक दूसरे को औपचारिक तौर पर नमस्कार भी नहीं करते और आंखें भी नहीं मिलाते.

चिंता यह नहीं है कि मुलायम सिंह यादव और मायावती एक दूसरे की तरफ देखते नहीं हैं. चिंता यह है कि उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक शक्तियां जिस तरह की तैयारी कर रही हैं, उसकी इन्हें जरा भी चिंता नहीं है. एक तरफ कांवड़ के कपड़े पहने हुए लोग और उनके हाथ में भारत का राष्ट्रीय ध्वज. मानो भारत का राष्ट्रीय ध्वज एक खास तरह की धार्मिक विचारधारा का प्रतीक बन गया है. हर राजनीतिक दल फरवरी 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटा है, लेकिन कुछ ताकतें बिना किसी राजनीतिक विचारधारा के समूचे प्रदेश में भावनात्मक ध्रुवीकरण करना चाहती हैं. ये ध्रुवीकरण विकास के लिए नहीं है, ये ध्रुवीकरण गरीबी से लड़ने के लिए नहीं है, ये ध्रुवीकरण महंगाई का विरोध नहीं करता, ये ध्रुवीकरण भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की मांग भी नहीं करता. ये ध्रुवीकरण दिमागों को प्रदूषित कर सत्ता पर कब्जा करने का सबसे आसान रास्ता तलाश रहा है. अगर दिमाग में ये भर जाए कि पिछले विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की जीत इसलिए हुई थी, क्योंकि उन्हें बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों का वोट मिला था और उस अल्पसंख्यक समर्थन के मुकाबले बहुसंख्यक जनता को संगठित कर ध्रुवीकृत कर दिया जाए तो जीता जा सकता है. ये कैसा खतरनाक खेल है, जिसकी मंजिल वोट लेकर सत्ता पाने से ज्यादा उन लोगों के चेहरे को बर्बाद करना है, उनकी रोशनी समाप्त करना है जो उनसे विचारधारात्मक रूप से मेल नहीं खाते.

इन शक्तियों ने देश के तमाम प्रतीकों को साम्प्रदायिक धु्रवीकरण से जोड़ने की कोशिश की है. पटेल इसके पहले उदाहरण हैं, गांधी इसके दूसरे उदाहरण हैं, सुभाष चंद्र बोस इसके तीसरे उदाहरण हैं. मानो ये तीनों लोग इस देश में भाईचारा, एकता, साम्प्रदायिक सौहार्द चाहते ही नहीं थे और राष्ट्रीय झंडा, जो हमारे देश और संविधान का प्रतिनिधित्व करता है, अब धार्मिक उन्माद फैलाने वाली शक्तियों के हाथ में पहुंच गया है.

ये कोशिशें उत्तर प्रदेश को एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में तब्दील करने जा रही हैं, जहां  रोटी, कपड़ा, बेहतर जिंदगी और समाज में बराबरी की कोई जगह नहीं होगी. ये लोग धर्म के सनातनी व मानवीय  स्वरूप की जगह धर्म का एक ऐसा स्वरूप निर्मित करेंगे जिसमें घृणा, प्रतिशोध, जलन और ईर्ष्या दिखाई देगी. उत्तर प्रदेश में ये कोशिशें तेजी से शुरू हो चुकी हैं.

ये कोशिशें सरकार के मुखिया अखिलेश यादव को नहीं दिखाई देती हैं. ये कोशिशें समाजवादी विचारधारा के मुखिया मुलायम सिंह यादव को भी नहीं दिखाई देेती हैं. ये कोशिशें अंबेडकरवादी परिवर्तनकारी ताकतों की नेता मायावती को भी दिखाई नहीं देती हैं. कांग्रेस के देखने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि उसने अपना चश्मा ही अलग कर लिया है. अगर किसी को ये नहीं दिखाई देती हैं, तो फिर उत्तर प्रदेश में क्या होगा? शायद वो होगा जिसकी कल्पना आज हम नहीं कर सकते और जब हो जाएगा तब सिवाय सिर पीटने के और कुछ रह नहीं जाएगा. ये कोशिश करने वाले नहीं जानते कि जहां वे आग लगाना चाहते हैं, वहां उनका भी घर है. वो जिस घर को जलाना चाहते हैं, भूल जाते हैं कि उस घर से उनके घर की दीवार भी सटी हुई है. शायद वो स्वार्थ में इतने ज्यादा लिप्त हो चुके हैं कि वे ये नहीं देख पा रहे हैं कि इससे देश को कितना नुकसान होने वाला है?

उत्तर प्रदेश को सांप्रदायिकता की भट्ठी बनने से रोकने में मीडिया कोई भूमिका नहीं निभाएगा. शायद राजनैतिक दल भी अपनी कोई भूमिका न निभाएं और उससे लाभ उठाने की कोशिश करें. नेता और पत्रकार वो होता है जो आने वाले वक्त में घटने वाली संवेदनशील और निराशाजनक घटनाओं के संकेतों को समझ सके. अफसोस की बात है कि उत्तर प्रदेश में या तो ऐसे पत्रकार चुप हैं, राजनेता भी चुप हैं, जो इस आहट के संकेतों को पहचान सकें. इस संकेत की भाषा को न समझना उत्तर प्रदेश का आज सबसे बड़ा दुर्भाग्य है.

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