3ढाका समेत कई शहरों की यात्राएं पूरी करने के बाद हमें नौगांव जाना था. साल 1984 से पहले यह राजशाही जिले के अंतर्गत था. रात करीब पौने ग्यारह बजे पुराना ढाका बस स्टैंड से यात्री बस में सवार होकर हम लोग नौगांव के लिए रवाना हुए. भारत की तुलना में यहां रेल नेटवर्क का उतना विस्तार नहीं हो पाया है. नतीजतन आवाजाही के लिए यहां लोगों को बसों का सहारा लेना पड़ता है. नौगांव राजधानी ढाका से लगभग ढाई सौ किलोमीटर दूर है. रात करीब दो बजे हमारी बस एक पुल के ऊपर से गुजर रही थी तभी एक सहयात्री ने बताया, यह बंगबंधु सेतु है, जो एशिया का सबसे लंबा सेतु है. पद्‌मा नदी पर बना यह सेतु बोगरा और सिराजगंज जिलों को आपस में जोड़ता है.

सुबह पौने पांच बजे अपने नियत समय पर बस नौगांव पहुंची. पहले से वहां खड़ीं दो कारें और कुछ लोग हमारा इंतजार कर रहे थे. कार में सवार होकर हम लोग गांव पतिसर के लिए रवाना हुए. इस गांव की दूरी नौगांव जिला मुख्यालय से पच्चीस किलोमीटर है. सुबह होने की वजह से सड़क पूरी तरह खाली थी.

दोनों तरफ धान के खेत और उसके बीच में काली सड़क काफी सुंदर दिख रही थी. कार में सवार ट्रेड यूनियन से जुड़ी नेता लवली यासमिन ने बताया कि पतिसर में मशहूर बांग्ला साहित्यकार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के पूर्वजों की जमींदारी थी. इसके अलावा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महान क्रांतिकारी प्रफुल्ल चंद्र चाकी का गृह जिला बोगरा भी नौगांव से ज्यादा दूर नहीं है.

सुबह ठीक छह बजे हमारी कार पतिसर स्थित डाकबंगले में रुकी. भारत में डाकबंगले अमूमन शहरों में होते हैं, लेकिन बांग्लादेश के एक गांव में सर्किट हाउस का होना इस गांव की अहमियत बताने के लिए काफी थी. गाड़ी से उतरते वक्त सबके चेहरे पर थकान और आंखों में नींद की झलक साफ दिख रही थी. अचानक नौजवानों का एक समूह जय बांग्ला-जय बंगबंधु का नारा लगाते डाकबंगला परिसर में दाखिल हुए और उन्होंने हमारा स्वागत किया.

करीब तीन घंटे के विश्राम के बाद हम डाकबंगला के बाहर रवींद्र सरोवर पहुंचे. स्थानीय लोगों ने खजूर का रस पीने के लिए हम लोगों को आमंत्रित किया. उन्होंने बताया कि बांग्लादेश के ग्रामीण इलाकों में सूर्योदय से पहले उतारा गया खजूर का रस लोग पीना पसंद करते हैं. स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसका सेवन फायदेमंद माना जाता है. हालांकि, भारत के कई राज्यों में नशे के लिए खजूर के रस का प्रयोग किया जाता है.

दोपहर के भोजन से पहले गांव में घूमने और स्थानीय लोगों से बात करने पर काफी नई जानकारियां मिलीं. बदलते वक्त के साथ बेशक इस गांव में भी काफी बदलाव हुए, लेकिन पतिसर की पहचान आज भी कवि रवींद्रनाथ ठाकुर से होती है.

साल 1830 में रवींद्रनाथ टैगोर के दादा द्वारकानाथ ठाकुर ने अंग्रेजों से यहां की जमींदारी खरीदी थी. नागौर नदी के तट पर बसे इस गांव के लिए राजधानी ढाका समेत देश के विभिन्न जिलों से आवागमन की अच्छी सुविधा है. पतिसर से 12 किलोमीटर की दूरी पर अतरई रेलवे स्टेशन है. ब्रिटिश भारत के समय निर्मित इस स्टेशन का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है. महात्मा गांधी, प्रफुल्ल चंद्र रॉय, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और मोहम्मद अली जिन्ना समेत कई बड़े नेताओं के आगमन का गवाह रहा है यह स्टेशन.

रवींद्रनाथ टैगोर पहली बार वर्ष 1891 में पतिसर आए थे. वह बेशक एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे, लेकिन पेशा जमींदारी और काश्तकारी से उन्हें कोई खास सरोकार नहीं था. रवींद्रनाथ टैगोर प्रकृति प्रेमी थे और शायद यही वजह है कि उनकी कई रचनाओं में प्रकृति और उसकी अप्रतिम सुंदरता का विस्तारपूर्वक जिक्र है. रवींद्र सरोवर के चारों तरफ उन दिनों आम, पलाश और पीपल के कई पेड़ मौजूद थे. गुरु जी ने उन्हीं पेड़ों की छांव में बैठकर कई कालजयी उपन्यास, कहानियों और कविताओं की रचना की. गांव से होकर बहने वाली नागौर नदी, जिसमें इन दिनों पानी नहीं है, उसके किनारे बैठकर भी उन्होंने कई रचनाएं लिखीं.

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर संग्रहालय के प्रभारी मोहम्मद सोहेल इम्तियाज़ बताते हैं, वर्ष 1913 में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उन्हें मिला यह सम्मान पतिसर वासियों के लिए भी बेहद गर्व का विषय था. ग्रामवासियों के आग्रह पर रवींद्रनाथ टैगोर पतिसर आए और उन्होंने अपने रैयतों को संबोधित किया. साल 1937 में वह बांग्ला त्यौहार पुण्य उत्सव के मौके पर आखिरी बार पतिसर आए थे.

इसके कुछ समय बाद उनका निधन हो गया और उसके बाद 1947 में पूर्वी बंगाल पूर्वी पाकिस्तान बन गया. ज़मीन और नक्शे पर भले ही भारत और पाकिस्तान बन गए हों और उनके बीच संपत्तियों के बंटवारा हो गया हो, लेकिन दोनों देशों की साझी विरासत को न तो अंग्रेज ताकसीम (बांट) कर पाए और न ही उन दिनों के महत्वाकांक्षी नेता. राजशाही विश्वविद्यालय में प्रोफेसर मोहम्मद अमीरूल मोमिन चौधरी बताते हैं कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की हुकूमत यहां की बांग्ला भाषी जनता पर जबरन उर्दू थोपना चाहती थी.

उनकी नज़रों में हमारी भाषा और सहित्य का कोई मतलब नहीं था. उनकी ज्यादा दिनों तक नहीं चली और चौबीस वर्षों बाद यानी 1971 को बांग्लादेश का जन्म हुआ. नए देश के गठन के बाद गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का सम्मान और बढ़ गया, जब उनके लिखे गीत आमार सोनार बांग्ला को बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रूप में प्रतिष्ठित
किया गया.

पतिसर में ढाई एकड़ ज़मीन पर उनकी स्मृति में बना भव्य संग्रहालय है. इस संग्रहालय में उनके जीवन से जुड़ी कई महत्वपूर्ण वस्तुएं मौजूद हैं. जिस पलंग और कुर्सी पर कभी गुरु जी बैठा करते थे, वह इस संग्रहालय में आज भी अच्छी स्थिति में है. इस संग्रहालय में उनके जीवन से जुड़ी करीब साढ़े तीन सौ वस्तुएं हैं, जो उचित देखरेख की वजह से आज भी अच्छी स्थिति में हैं.

रवींद्र सरोवर के किनारे उनकी एक भव्य प्रतिमा भी है, जिसे देखने पूरे बांग्लादेश और भारत से हजारों लोग हर साल आते हैं. पतिसर आने वाले सैलानियों को कोई दिक्कत न हो, इसलिए स्थानीय जिला प्रशासन ने संग्रहालय से चंद कदम दूर एक डाकबंगला भी बनाया है.

अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस इस डाकबंगले में कुल 22 कमरे हैं. इसराफिल आलम बांग्लादेश अवामी लीग के स्थानीय सांसद हैं. उनके मुताबिक, रवींद्रनाथ टैगोर की वजह से इस गांव की पहचान पूरे विश्व में है. दुनिया के अलग-अलग कोने से लोग यहां घूमने और उनके विषय में शोध करने आते हैं. खासकर उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि के मौके पर यहां काफी भीड़ रहती है.

रवींद्रनाथ टैगोर और क़ाजी नजरूल इस्लाम भारत और बांग्लादेश की साझी विरासत हैं. साहित्य के क्षेत्र में इन्हें एक जैसा ही सम्मान दोनों देशों में हासिल है. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और स्वामी विवेकानंद को लोग उसी आदर और सम्मान से याद करते हैं, जितना कि भारत में. महात्मा गांधी को लोग यहां किस तरह याद करते हैं, उसका जीवंत उदाहरण पतिसर से 10 किलोमीटर दूर अतरई के गांधी आश्रम में देखने को मिला.

लगभग पंद्रह बीघा ज़मीन में बना यह आश्रम काफी पुराना है. गांधी आश्रम के अध्यक्ष मोहम्मद अमीनुल इस्लाम बताते हैं कि साल 1939 में राजशाही डिवीजन के कई जिलों में भीषण बाढ़ आई थी. बाढ़ पीड़ितों से मिलने के लिए महात्मा गांधी यहां आए थे और इसी आश्रम में वह कई दिनों तक रहे. आश्रम में उनका चरखा व कई अन्य वस्तुएं आज भी मौजूद हैं. आश्रम के उपाध्यक्ष निरंजन कुमार दास बताते हैं कि महात्मा गांधी से पहले प्रफुल्ल चंद्र रॉय और नेताजी सुभाषचंद्र बोस 1922 में यहां आए थे.

महात्मा गांधी को अतरई से काफी लगाव था, क्योंकि भारत विभाजन के समय नोआखाली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में काफी लोग मारे गए थे, जबकि नौगांव, राजशाही, बोगरा और सिराजगंज में खून-खराबे की कोई बड़ी घटना घटित नहीं हुई थी. नोआखाली से लौटते वक्त महात्मा गांधी अतरई स्थित इसी आश्रम में प्रार्थना सभा की. साथ ही उन्होंने यहां हिंदू और मुस्लिम समुदाय के आपसी भाईचारे की बहुत प्रशंसा की थी. निरंजन के मुताबिक, बांग्लादेश के नागरिक महात्मा गांधी का काफी सम्मान करते हैं. यहां होने वाले सांस्कृतिक और शैक्षणिक कार्यक्रमों के पोस्टर-बैनरों में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान और महात्मा गांधी की तस्वीरें देखी जा सकती हैं.

बांग्लादेश में शिक्षा के प्रति लोगों में कितनी जागरुकता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अकेले नौगांव जिले में ही 95 शैक्षणिक संस्थान हैं. यही स्थिति पूरे बांग्लादेश में है. यहां की मुस्लिम महिलाएं पाकिस्तान के मुक़ाबले कहीं ज्यादा शिक्षित हैं.

गौरतलब है कि दो वर्ष पूर्व ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग ने गांधी आश्रम में लाखों रुपये की लागत से एक नए भवन का निर्माण कराया. ज्यादातर लोग रवींद्रनाथ टैगोर को एक महान साहित्यकार के रूप में जानते हैं, लेकिन यह बेदह कम लोगों को यह मालूम है कि वह एक समाजसेवी भी थे. पूर्वी बंगाल में उन्होंने अपने निजी संपत्ति खर्च कर कई विद्यालयों की स्थापना की. इतना ही नहीं, वर्ष 1905 में उन्होंने राजशाही जिले में एक कृषि बैंक भी बनाया, जिसका फायदा स्थानीय किसानों को आज भी मिल रहा है.

बांग्लादेश में जिस तरह गांधी, टैगोर, सुभाषचंद्र बोस और क़ाजी नजरूल इस्लाम को याद किया जाता है, दरअसल वह दोनों देशों की साझी विरासत है. इसकी बुनियाद इतनी मजबूत है कि इस पर कोई मजहबी रंग नहीं चढ़ सका. वैसे भी धर्म और संस्कृति में काफी अंतर है. आज धर्म का इस्तेमाल समाज को तोड़ने के लिए किया जाता है, लेकिन संस्कृति समाज का जोड़ने का काम करती है. हालांकि, इन दिनों इस्लामिक कट्टरपंथी बांग्लादेश को नफरत और हिंसा की आग में झोंकने की कोशिशों में जुटे हैं. पिछले दिनों ढाका में युवा ब्लॉगर नजीमुद्दीन समद की हत्या कर दी गई.

समद ढाका स्थित जगन्नाथ विश्वविद्यालय में एलएलएम की पढ़ाई कर रहे थे. बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथ और अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे गैर-बराबरी के खिलाफ वह सोशल मीडिया पर लगातार लिख रहे थे. उनकी यह उदारवादी छवि उनकी मौत का कारण बनी. पिछले साल भी बांग्लादेश में कई ऐसे ब्लॉगरों की हत्या हुई, जो बांग्लादेश में मुखर होकर अपने विचार प्रकट करते थे. बांग्लादेश की मौजूदा स्थिति वाकई खराब है और ऐसी सूरत में वहां गांधी, टैगोर और क़ाजी नजरूल इस्लाम की प्रासंगिकता काफी बढ़ जाती है. प

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