चौहत्तर में लिखी लाइनें, जिन्हें बुंदेलखंड के जनकवि राम गोपाल दीक्षित ने लिखा था, कौन चलेगा आज देश से भ्रष्टाचार मिटाने को, बर्बरता से लोहा लेने सत्ता से टकराने को, आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है, उठो जवानों तुम्हें जगाने क्रांति द्वार पर आई है, याद आती हैं. संयोग है कि उन दिनों सत्ता में इंदिरा गांधी थीं और उनके ख़िला़फ छात्र आंदोलन चल रहा था, जिसका मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था. छात्र युवा उठ खड़े हुए, इंदिरा जी चुनाव हार गईं, लेकिन जो सत्ता में आए, न उसे संभाल सके और न जनता की आशाएं पूरा कर सके.
फिर आया अस्सी का दशक. राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. एक साफ बोलने वाला चेहरा था, जिस पर देश ने भरोसा किया और लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार चार सौ बारह सीटों पर उन्हें जीत दिलाई. तीन साल बीतते-बीतते भ्रष्टाचार का मुद्दा ऐसा बना कि उनकी सरकार चली गई. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन कहानी पुरानी दोहराई गई. वह भी न सत्ता संभाल पाए, न जनता के लिए भ्रष्टाचार से लड़ते शख्स की आकांक्षा पूरी कर पाए. सरकार गिरी, पर सबसे दु:खद रहा राजीव गांधी का शहीद होना. और अब फिर मनमोहन सिंह की सरकार है, यानी कांग्रेस की सरकार है. भ्रष्टाचार का मुद्दा एक बार फिर केंद्रीय मुद्दा बनता जा रहा है. संयोग कह सकते हैं या चिंताजनक हालात कह सकते हैं कि इस बार लोकतांत्रिक संस्थाओं से ज्यादा सुप्रीम कोर्ट चिंतित है. उसकी टिप्पणियां आंख खोलने वाली हैं. सुप्रीम कोर्ट ने एक नायाब काम और किया है. उसने न केवल 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर सख्त टिप्पणियां की हैं, बल्कि इलाहाबाद हाईकोर्ट पर भी सख्त टिप्पणियां की हैं. जब सर्वोच्च न्यायालय हाईकोर्ट में चल रही गंदगी से परेशान हो जाए तो गंभीरता सभी को समझ लेनी चाहिए.

कांग्रेस के लिए सुनहरा मौक़ा है कि वह अपने को बिल्कुल पाक साफ साबित कर सकती है और अगर उसका कोई सदस्य इस जांच में आता भी है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए, उससे पीछा छुड़ाना चाहिए. दूसरा, अख़बारों में ख़बरें छपने से वोट नहीं घटते हैं और न बढ़ते हैं. इसका उदाहरण बिहार है, जहां कांग्रेस ने प्रचार पर कितना ख़र्च किया, टेलीविजन, अख़बार विज्ञापनों से, ख़बरों से भरे थे, लेकिन कितने वोट मिले, दो सौ तैंतालिस सीटों में चार पर जीत मिली, दो सौ में ज़मानत ज़ब्त हुई. कांग्रेस को अपनी रणनीति पर, अपनी दिशा पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है.

कांग्रेस के सामने कोई चुनौती नहीं थी. न प्रधानमंत्री या सोनिया गांधी का स्पेक्ट्रम घोटाले में नाम आ रहा है, पर खामोश रहने और खुली आंखों भ्रष्टाचार देखने के गुनहगार तो ये हैं ही. पर सबसे ज़्यादा आश्चर्य तब होता है, जब कांग्रेस के सहयोगी संगठन राष्ट्रवादी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस भी कह दें कि जेपीसी बना देनी चाहिए तो क्यों कांग्रेस इसे नहीं मान रही. इतना ही नहीं, सिर से पैर तक सनी डीएमके भी जब कह दे कि उसे कोई एतराज नहीं है तो कांग्रेस का न मानना विरोधियों को नए हथियार दे देगा.
दो तर्क हो सकते हैं कि यदि जेपीसी की जांच चलती है तो वह कांग्रेस के कुछ नेताओं के दरवाज़े पर भी पहुंच सकती है और दूसरा कि यदि जेपीसी बनती है तो अगले तीन साल झूठी सच्ची ख़बरें अख़बारों में आती रहेंगी. दोनों तर्क सही नहीं हैं. कांग्रेस के लिए सुनहरा मौक़ा है कि वह अपने को बिल्कुल पाक साफ साबित कर सकती है और अगर उसका कोई सदस्य इस जांच में आता भी है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए, उससे पीछा छुड़ाना चाहिए. दूसरा अख़बारों में ख़बरें छपने से वोट नहीं घटते हैं और न बढ़ते हैं. इसका उदाहरण बिहार है, जहां कांग्रेस ने प्रचार पर कितना खर्च किया, टेलीविजन, अख़बार विज्ञापनों से, ख़बरों से भरे थे, लेकिन कितने वोट मिले, दो सौ तैंतालिस सीटों में चार पर जीत मिली, दो सौ में जमानत ज़ब्त हुई.
कांगे्रस को अपनी रणनीति पर, अपनी दिशा पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है. अगर भाजपा की कमजोरियों को भुनाकर ही जीतने की योजना बनानी है तो बिहार की हार को फिर याद करना चाहिए, जहां मुसलमानों तक ने नीतीश को पसंद किया, कांग्रेस को नहीं. वक्त बदल रहा है, नए लोग मतदाता बन रहे हैं. पुराने लोग वायदों का, सपनों का टूटना देख रहे हैं. एक नई सोच आ रही है जो जाति व धर्म से थोड़ी सी अलग है. इसे कांगे्रस को पहचानना चाहिए.
कांग्रेस का एआईसीसी का अधिवेशन हुआ, पर उसमें से कोई उत्साह नहीं निकला, स़िर्फ सोनिया गांधी को अगला अध्यक्ष बनाने की पुष्टि हुई. अब कांग्रेस का महाअधिवेशन होने जा रहा है. कांग्रेस नेतृत्व की परीक्षा है कि वह कैसा कार्यक्रम कांग्रेस के लोगों के सामने रखता है. यह कार्यक्रम ही संकेत देगा कि बंगाल, आसाम, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और गुजरात के कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साह में आते हैं, जी जान से पार्टी को जिताने की कोशिश करते हैं या उसे अपने हाल पर छोड़ देते हैं. कांगे्रस एक गलती कर चुकी है कि उसने एआईसीसी में उन्हें ज़्यादा तरजीह नहीं दी, जिन्होंने काम किया है. अगर ऐसी ही गलती उम्मीदवार चुनने में भी हुई तो फिर कांगे्रस का ईश्वर ही मालिक है.
उत्तर प्रदेश में संगठन खड़ा करने का काम रीता बहुगुणा नहीं कर रही हैं, बल्कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कर रहे हैं. उनकी रणनीति है कि जल्दी से जल्दी उम्मीदवारों की घोषणा कर दो, फिर इन उम्मीदवारों के इर्द-गिर्द ही संगठन का ढांचा बनाओ. उम्मीदवार अवश्य बूथ स्तर की कमेटियां बनाएगा, इससे कांगे्रस का गांव तक का नया ढांचा खड़ा हो जाएगा. राहुल गांधी ने इस योजना को सहमति दे दी है. आशा है कि जनवरी तक शायद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस विधानसभा के लिए उम्मीदवारों की एक बड़ी सूची जारी कर दे.
बिहार के बाद यह दूसरा प्रयोग होगा. इस प्रयोग में एक ही ख़तरा है कि कांग्रेस ने यदि तीस प्रतिशत भी गलत उम्मीदवारों को टिकट दिए तो पूरा संगठन ही भविष्यहीन हो जाएगा. इन सारे राज्यों में विशेषकर उत्तर प्रदेश में अगर किसी की प्रतिभा की परीक्षा होनी है तो वह राहुल गांधी की होनी है. राहुल गांधी कांग्रेस के अघोषित सर्वमान्य भावी प्रधानमंत्री हैं. उनके विचार, उनका दिमाग, उनकी भाषा और उनकी समझ के साथ संगठन क्षमता की भी परीक्षा इन चुनावों में होगी. सभाओं में आने वाली भीड़ को वोट में बदलने की कुशलता भी राहुल गांधी को दिखानी होगी. इसमें वह अकेले होंगे, उनकी मदद उनकी मां नहीं कर पाएंगी, क्योंकि जब सवाल होंगे तो केवल वही सामने होंगे. राहुल गांधी पिछली बंगाल यात्रा में शांति निकेतन गए थे. वहां छात्रों ने उनसे पूछा कि जब वह प्रधानमंत्री बनेंगे तो शिक्षा में बदलाव का उनका खाका क्या होगा. राहुल गांधी ने जवाब दिया कि उनके पास प्रधानमंत्री बनने से ज़रूरी काम हैं. सवाल यह नहीं था, सवाल था शिक्षा में बदलाव का कोई नक्शा उनके पास है या नहीं, वह सवाल टाल गए. शांति निकेतन के छात्र निराश हुए. देश के प्रधानमंत्री पद पर जाने वाले को बहुत से सवालों के जवाब आने चाहिए और यही इम्तहान राहुल गांधी का आने वाले राज्यों के विधानसभाओं के चुनावों में होने वाला है, जिसकी शुरुआत कांग्रेस महाअधिवेशन में होनी है.
देश के कांग्रेसजन जानना चाहेंगे, देश के लोग जानना चाहेंगे कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी देश की समस्याओं पर क्या बोलते हैं. पिछली एआईसीसी में भ्रष्टाचार के सवाल पर किसी ने मुंह नहीं खोला और आज भ्रष्टाचार का सवाल देश में चारों ओर खड़ा हो गया है. इस महाअधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष और उसके महासचिवगण भ्रष्टाचार पर कोई बात कहते भी हैं या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा. ग़ैर भाजपा दलों की अनुपस्थिति ने कांग्रेस की प्रासंगिकता बढ़ा दी है. लेकिन इस प्रासंगिकता को तार्किक साबित करना ख़ुद कांग्रेस के हाथ में है. कांग्रेस अगर संतुलित दिमा़ग से नहीं चली तो यह अपने आप मुसीबत बुलाने वाली पार्टी बन जाएगी. जैसे उसने राजा के भ्रष्टाचार की मुसीबत अपने सिर ले ली. इसलिए कांगे्रस के लिए इम्तहान तो है ही.

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