1947 में देश विभाजन की महान मानवीय त्रासदी के बाद धीरे-धीरे दिलों पर लगे हुए ज़ख्मों के दाग तो धुंधले हो गए, लेकिन उसने जिन समस्याओं को जन्म दिया वो 70 साल बाद भी समाप्त होने को नहीं आ रही हैं. वैसी ही एक समस्या है, भारत में अवैध प्रवासन की. खास तौर पर पिछले 70 वर्षों में विभाजित हुए देश बांग्लादेश से गैर-कानूनी तौर पर भारत में दो बार घुसपैठ की कोशिश हुई. यह समस्या एक राजनैतिक समस्या है और असम व पूर्वोत्तर के मूल निवासियों के लिए एक बड़ी सामाजिक समस्या भी है. फिलहाल यह मसला एक बार फिर सुर्ख़ियों में है, क्योंकि केंद्र सरकार नागरिकता (संशोधन) बिल, 2016 संसद में पेश करने की तैयारी कर रही है. इस बिल को लेकर असम और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. हालांकि इन प्रदर्शनों ने अभी व्यापक रूप नहीं लिया है, लेकिन यहां के सामाजिक और राजनैतिक संगठनों ने जिस तरह इस बिल का संज्ञान लिया है, उसे देखते हुए इसे व्यापक रूप धारण कर लेने की पूरी आशंका है.

घुसपैठ असम का भावनात्मक मुद्दा

गौरतलब है कि असम में इस बिल को लेकर विरोध करने वाले संगठनों का कहना है कि यह बिल, 1985 में हुए ‘असम समझौते’ के प्रावधानों का खुला उल्लंघन है. समझौते में एक प्रावधान यह रखा गया था कि 25 मार्च 1971 (बांग्लादेश स्वतंत्रता युद्ध की शुरुआत) के बाद बांग्लादेश से आए सभी धर्मों के अवैध नागरिकों को वहां से निर्वासित किया जाएगा. ज़ाहिर है यह एक भावनात्मक मुद्दा है, जिसके इर्द-गिर्द असम की राजनीति कई दशकों से घूम रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने इस मुद्दे को उठाया था और उसे इसमें कामयाबी भी मिली थी. लेकिन भाजपा ने 2014 में एक और चुनावी वादा किया था, जिसमें कहा गया था कि सताए गए हिंदुओं के लिए भारत एक प्राकृतिक निवास बनेगा और यहां शरण मांगने वालों का स्वागत किया जाएगा. ज़ाहिर है यहां आशय पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए और अवैध रूप से भारत में रह रहे हिन्दुओं से था.

दरअसल भाजपा यहां एक तीर से दो शिकार खेल रही थी. एक तरफ वह असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों के निर्वासन की बात कर असम में अपनी पकड़ मज़बूत कर रही थी, दूसरी ओर नागरिकता (संशोधन) बिल लाकर अपना चुनावी वादा पूरा कर हिन्दू वोट बैंक मज़बूत करना चाहती थी. लेकिन फिलहाल असम में उसकी चाल उलटी पड़ती दिख रही है, क्योंकि इस बिल को लेकर राज्य में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन के बाद राज्य की भाजपा सरकार की प्रमुख घटक असम गण परिषद (एजीपी) ने धमकी दी है कि अगर यह बिल पास होता है तो वह गठबंधन से अलग हो जाएगा. एजीपी ने न केवल इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए हैं, बल्कि उसने इस बिल के ख़िला़फ राज्य में हस्ताक्षर अभियान भी शुरू किया है.

हालांकि कांग्रेस ने भी इस बिल का विरोध किया है, लेकिन उसका रुख नपा-तुला है (इस पर आगे चर्चा करेंगे). फिलहाल कांग्रेस का कहना है कि यह विधेयक 1985 के असम समझौते की भावना के ख़िला़फ है और यह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (देखें बॉक्स 1) को भी प्रभावित करेगा. विरोध के सुर खुद भाजपा के अन्दर से भी सुनाई दिए. मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने राज्य के लोगों के हितों की रक्षा नहीं कर पाने की स्थिति में इस्तीफा देने की बात कह दी. सोनोवाल ने कहा, मुख्यमंत्री होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि सभी को साथ लेकर चलें और केवल ख़ुद से ही निर्णय नहीं लें. असम के लोगों की राय लेकर हम इस मुद्दे पर फैसला करेंगे. कहने का अर्थ यह कि मुख्यमंत्री खुल कर इस बिल कर विरोध नहीं कर सके.

भाजपा का असमंजस

बहरहाल, भाजपा को इन सब बातों के परिणामों का एहसास है, इसलिए उसकी तरफ से नुकसान को कम करने की कवायद भी शुरू हो गई है. पूर्वोत्तर में भाजपा के चुनावी रणनीतिकार हेमंत बिस्वा सरमा का कहना है कि इन विरोध प्रदर्शनों से 2019 में भाजपा के चुनावी गणित पर कोई असर नहीं पड़ेगा. उनका कहना है कि यह बिल राज्य के परिप्रेक्ष्य में नहीं बल्कि देश के परिप्रेक्ष्य में है. असम इस देश का हिस्सा है, इसलिए इस बिल का विरोध करने वाले संगठनों पर इस बयान का कोई असर नहीं हुआ और यह पंक्तियां लिखे जाने तक विरोध का सिलसिला जारी था. इस विरोध के मद्देनज़र सरकार ने इस बिल को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के हवाले कर दिया है. भाजपा सांसद राजेन्द्र अग्रवाल की अध्यक्षता वाली 16 सदस्यीय जेपीसी ने इस बिल पर राज्य के सभी पक्षों की राय जानने के लिए 7-9 मई तक राज्य का दौरा किया था. 7 मई को गुवाहाटी में इसकी एक बैठक हुई थी, लेकिन कई संगठनों ने इस बैठक का विरोध किया था.

ऐसा नहीं है कि पूरे राज्य में इस बिल को लेकर विरोध हो रहे हों. दरअसल असम के दो क्षेत्रों ब्रह्मपुत्र घाटी और बराक घाटी में रहने वाले लोगों के विचार इस बिल को लेकर अलग-अलग हैं. बंगाली बहुल बराक घाटी के ज़्यादातर लोग इस विधेयक के पक्ष में हैं, जबकि ब्रह्मपुत्र घाटी में इसका ज़बरदस्त विरोध हो रहा है. यहां खबरें यह भी आ रही हैं कि कांग्रेस और भाजपा दोनों का इन दोनों क्षेत्रों में अलग-अलग मत है. कांग्रेस ब्रहमपुत्र घाटी में बिल का विरोध कर रही है, वहीं बराक घाटी में इस का समर्थन कर रही है या खामोश है. भाजपा का भी रवैया इसी से मिलता जुलता है. बहरहाल गुवाहाटी में जेपीसी की सुनवाई के बाद विधेयक के ख़िला़फ ब्रह्मपुत्र घाटी में नियमित रूप से विरोध हो रहा है. वहीं नागरिकता बिल को लेकर मेघालय में भी कुछ असम जैसी ही स्थिति बनी हुई है. यहां भी भाजपा गठबंधन की सरकार है. मेघालय के मुख्यमंत्री कर्नाड के. संगमा ने इस बिल का विरोध करने का निर्णय लिया है. उनके मुताबिक यह बिल इस छोटे जनजातीय राज्य के लोगों के हितों की रक्षा नहीं करता है.

कुल मिला कर देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि नागरिकता (संशोधन) बिल 2016 एक ऐसा बिल है जो असम और पूर्वोत्तर के राज्यों के बहुसंख्यक मूल निवासियों के दिलों में अल्पसंख्यक हो जाने का खौफ पैदा करता है. यहां जेपीसी की गुवाहाटी और सिलचर की सुनवाई के बाद यह अंदाज़ा हो जाता है कि मसला कितना जटिल है और भाजपा इसे कितनी आसानी से हल करना चाहती है. सिलचर की सुनवाई के दौरान बराक घाटी के अधिकतर लोगों ने इस बिल का समर्थन किया, जबकि गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र घाटी के लोगों ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया. स्थिति की जटिलता का अंदाज़ा उल्फा के रुख से भी लगाया जा सकता है. ख़बरों के मुताबिक सक्रिय सशस्त्र संगठन उल्फा (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑ़फ असम) ने कहा है कि वो भारत के खिलाफ अपना सशस्त्र आन्दोलन औपचारिक रूप से उस समय समाप्त करेगा, जब सुप्रीम कोर्ट विवादित नागरिकता के मसले पर अपना फैसला सुनाएगा.

गौरतलब है कि भारतीय नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6(ए) के मुताबिक 24 मार्च 1971 से पहले जो भी असम में दाखिल हो गया है, वो वहां का कानूनी नागरिक है. इस प्रावधान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है, जिस पर सुनवाई चल रही है. इस याचिका में यह गुहार लगाई गई है कि नागरिकता के लिए 19 जुलाई 1948 को आखिरी सीमा मानना चाहिए, जो देश के दूसरे हिस्सों के लिए लागू है. मामले की जटिलता को देखते हुए फिलहाल भाजपा स्थिति का पुनर्वालोकन कर रही है. हर क़दम फूंक-फूंक कर रखना चाहती है, क्योंकि वो न इधर के रहे न उधर के की स्थिति से बचाना चाहती है.

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर

फिलहाल असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अंतिम रूप देने का काम चल रहा है. यह एक बहुत बड़ा काम है. इसके तहत अपनी नागरिकता साबित करने के लिए असम के 68.27 लाख परिवारों के 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन के साथ 6.5 करोड़ दस्तावेज पेश किए हैं. ज़ाहिर है कि यह एक बहुत बड़ा काम है, जिसमें इस बात की पूरी सम्भावना है कि वास्तविक नागरिक भी अपनी नागरिकता खो सकते हैं, जो 24 मार्च 1971 से पहले भारत आने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे. अब तक राज्य सरकार 3.29 करोड़ आवेदकों में 1.9 करोड़ लोगों की नागरिकता को सत्यापित कर चुकी है. एनआरसी की आखिरी लिस्ट 30 जून को आने वाली है और तब तक जेपीसी ने अपनी सुनवाई स्थगित कर रखी है.

गौरतलब है कि एनआरसी भारतीय नागरिकों के नाम वाला रजिस्टर है, जिसे 1951 की जनगणना की बुनियाद पर तैयार किया गया था. इसमें असम राज्य के नागरिकों के नाम, घर, ज़मीन आदि से सम्बन्धित जानकारियां दर्ज हैं. पहले यह रजिस्टर डिप्टी कमिश्नर के पास रहता था, लेकिन बाद में इसे स्थानीय पुलिस के हवाले कर दिया गया. दरअसल असम में लंबे समय से बांग्लादेश से अवैध लोगों का आना लगा रहा है और यह इस राज्य का एक बड़ा मुद्दा है, इसलिए राज्य में अवैध प्रवासियों को ढूंढ निकालने के लिए इस रजिस्टर को अपडेट किया जा रहा है.

लेकिन इसमें अब कट-ऑफ डेट 24 मार्च 1971 कर दिया गया है. ज़ाहिर है यह कदम नागरिकों की पहचान कर और असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों को निर्वासित करने के लिए उठाया गया है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि अवैध प्रवासियों की पहचान कर भी ली गई तो उन्हें बांग्लादेश कैसे भेजा जाएगा? बांग्लादेश अब तक भारत में अपने नागरिकों के अवैध प्रवास की बात से इंकार करता रहा है. ऐसे में भारत सरकार इस काम को कैसे अंजाम देगी?

नागरिकता विधेयक

नागरिकता संशोधन बिल, जिसपर असम और पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों में घमासान चल रहा है, के तहत केंद्र सरकार ने अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाइयों को बिना वैध दस्तावेज़ के भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव रखा है. साथ ही 1955 के नागरिकता एक्ट के उस प्रावधान में भी संशोधन का प्रस्ताव है, जिसके तहत देशीकरण (नेचुरलाइजेशन) द्वारा नागरिकता हासिल करने के लिए आवेदनकर्ता आवेदन करने से 12 महीने पहले से भारत में रह रहा हो और उसने पिछले 14 वर्षों में से 11 वर्ष भारत में बिताए हों. यह बिल उक्त तीन देशों के गैर मुस्लिमों के लिए 11 वर्ष की इस शर्त को 6 वर्ष करता है. इसके अतिरिक्त इस बिल में नागरिकता की कट-ऑफ लाइन 19 जुलाई 1948 से बढ़ाकर 31 दिसम्बर 2014 कर दी गई है.

दरअसल इस बिल में धर्म आधारित नागरिकता के प्रावधान की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह धर्म के आधार पर भेदभावपूर्ण है, जो संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है. इस धारा के तहत सबको समानता का अधिकार है, लेकिन केंद्र में मोदी सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में सताए गए हिन्दुओं को भारत में शरण देने की बात कहकर हिन्दू वोट के ध्रुवीकरण की कोशिश की है. अब देखना यह है कि इस बिल को जेपीसी से आगे निकलने और संसद में पेश होने में कितना समय लगता है या फिर असम और पूर्वोत्तर के राज्यों के दबाव में यह बिल सर्द खाने में चला जाता है.

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