arajaktaअरब स्प्रिंग या अरब बहार क्रांति की शुरुआत दिसंबर 2010 में ट्यूनीशिया से हुई और देखते ही देखते यह उत्तरी अफ्रीका और अन्य अरब देशों फैल गई थी. कमोबेश इसे लेकर सभी अरब देशों में विरोध प्रदर्शन भी हुए. उन दिनों लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए. इस आंदोलन ने कई दशकों से सत्ता पर काबिज़ कई हुक्मरानों को सत्ता से बेदख़ल कर दिया. कई देशों में यह प्रदर्शन अहिंसात्मक और साधारणतः शांतिपूर्ण रहे, लेकिन कई देशों में यह उग्र रूप धारण कर लिया और वहां गृहयुद्ध की स्थिति बन गई. नतीजतन लीबिया और सीरिया जैसे ख़ुशहाल देश भी गृहयुद्ध की चपेट में आ गए. सीरिया में तो हिंसा का जो दौर तीन साल पहले शरू हुआ था, वह आज भी जारी है, लेकिन मिस्र जहां फ़ौज के साए में परवान चढ़ रहे तानाशाही का ख़ात्मा तो हुआ और लोकतंत्र की स्थापना भी हुई, लेकिन लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आई सरकार का तख्ता पलट कर फ़ौज एक बार फिर सत्ता पर काबिज़ हो गई. हालांकि, ज़्यादातर राजनीतिक समीक्षकों और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इस आंदोलन को निरंकुश तानाशाहों के विरुद्ध जनता का स्वतःस्फूर्त आक्रोश का नतीजा क़रार दिया था, लेकिन बाद की मीडिया रिपोर्टों से ज़ाहिर हुआ कि इस आदोलन का संचालन विदेशी फंड से चलने वाले ग़ैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने किया था, जिन्हें अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की पूरी सहायता प्राप्त थी.
पश्‍चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका में सिविल सोसाइटी के विकास के लिए विदेशी फंडिंग (ख़ास तौर पर अमेरिकी और यूरोपीय फंडिंग) वर्ष 1995 से शरू हुई थी, जिसका मकसद था यूरोप और भू-मध्यसागर के आस-पास के देशों के बीच संबंध मज़बूत करना. वैसे अरब-इज़राइल वार्ता में गतिरोध के कारण इस अभियान में कोई ख़ास तरक्की नहीं हो सकी, लेकिन वर्ष 2001 के बाद डायलॉग ऑफ पीपुल प्रोग्राम के तहत यूरोपीय यूनियन ने उत्तरी अफ्रीकी और मध्य एशियाई देशों के महिला संगठनों, ट्रेड यूनियनों, अधिवक्ता एसोसिएशनों, छात्रों, मानवाधिकार संगठनों, पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों, युवाओं के बीच आपसी नेटवर्किंग बढ़ाने के लिए करोड़ों यूरो की सहायता दी. उसी तरह अमेरिका के नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी, एएफएल-सीआईओ और फ्रीडम हाउस जैसी संस्थाओं ने सिविल सोसाइटी के निर्माण के नाम पर इस क्षेत्र के देशों के एनजीओ को करोड़ों डॉलर की फंडिंग मुहैया कराई थी. नतीजतन ये संस्थाएं इस पूरे क्षेत्र में फलने-फूलने लगीं और क्षेत्रीय, जातीय, धार्मिक और राष्ट्रीय दूरी के बावजूद भी एक दूसरे से जुड़ने लगीं. मज़े की बात यह है कि यहां के तानाशाहों और सरकारों ने इन संगठनों से उस समय कोई ख़ास ख़तरा महसूस नहीं किया और जब ख़तरा महसूस हुआ तो बहुत देर हो चुकी थी.
जहां तक अरब क्रांति में सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाने वाले एनजीओ के विदेशी कनेक्शन का सवाल है, तो इस संबंध में वर्ष 2011 से ही मीडिया में रिपोर्टें आने लगीं थीं. इन रिपोर्टों से यह ज़ाहिर होता है कि अमेरिका का लोकतंत्र बहाली अभियान और यूरोपीय यूनियन ने इन एनजीओ की मदद कर अरब स्प्रिंग आंदोलनों को हवा देने में अहम भूमिका निभाई थी. इस आंदोलन में शामिल प्रमुख नेताओं जैसे इंतेसार अल-क़ाज़ी को अमेरिका में ट्रेनिंग दी गई और जीओ 6 अप्रैल यूथ मूवमेंट (मिस्र), बहरीन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स जैसे एनजीओ की फंडिंग इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट, नेशनल डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूट और फ्रीडम हाउस जैसी संस्थानों की तरफ़ से की गई थी. इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट और नेशनल डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूट क्रमशः रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों से जुड़ी संस्थाएं हैं, जिनकी फंडिंग वर्ष 1983 में वजूद में आए नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी के द्वारा होती है. नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी (एनइडी) का सालाना बजट लगभग 10 करोड़ डॉलर है, जिसे अमेरिकी कांग्रेस मुहैया कराती है. फ्रीडम हाउस के बजट का बड़ा हिस्सा भी अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट (गृह मंत्रालय) से आता है. इन संस्थानों से फंडिंग प्राप्त करने वाले संगठनों में ट्यूनीशिया की लेबर यूनियन मूवमेंट, यूरो-मेडिट्रेनियन ह्यूमन राइट्स नेटवर्क, ट्यूनीशियन लॉयर एंड मजिस्ट्रेट एसोसिएशन, बहरीन की बहरीन यूथ सोसाइटी फॉर ह्यूमन राइट्स, यमन की वीमेन जर्नलिस्ट विदआउट चेन और अरब सोसाइटी फॉर ह्यूमन राइट्स इत्यादि एनजीओ शामिल हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि अरब स्प्रिंग आंदोलन में स्थानीय लोग ही शामिल थे. अगर लीबिया को छोड़ दिया जाए, तो इसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई विदेशी हस्तक्षेप नहीं था, लेकिन यह सच्चाई का एक पहलू है. अमेरिका और यूरोपीय यूनियन इस आंदोलन में शामिल एनजीओ की आर्थिक और लॉजिस्टिक सहायता कर परोक्ष रूप से अपना सहयोग दे रहे थे. हालांकि प्रोजेक्ट ऑन मिडिल ईस्ट डेमोक्रेसी जैसी संस्थाएं यह कहती हैं कि उसने इन आंदोलनों को शुरू कराने के लिए फंडिंग नहीं की, अलबत्ता आंदोलनकारियों के कौशल विकास और नेटवर्किंग में सहायता कर इस क्रांति में एक महत्वपूर्ण भूमिका ज़रूर निभाई. वैसे कई एनजीओ के नुमाईंदों और प्रभावित देशों के नेताओं ने वर्ष 2008 में न्यूयॉर्क में होने वाले टेक्नॉलजी मीटिंग में सोशल नेटवर्किंग और मोबाइल टेक्नॉलजी के ज़रिए लोकतंत्र लाने की ट्रेनिंग हासिल की थी, जो उनके इस दावे की कलई खोल देते हैं. इस मीटिंग को फेसबुक, गूगल और एमटीवी ने भी प्रायाजित किया था.
अगर किसी देश में कोई आंदोलन (चाहे वह लोकतंत्र की बहाली के लिए ही क्यों न हो) जब विदेशी फंडिंग द्वारा चलाए जा रहे एनजीओ के तत्वाधान में चल रहा हो, तो उस एनजीओ से फंडिंग हासिल करने वाले देशों के हितों की अनदेखी की आशा कैसे की जा सकती है? भले ही वे संगठन लाख दावे करें कि उनका अमेरिका और यूरोपीय ताक़तों से फंड लेना और सहायता हासिल करना एक रणनीति का हिस्सा है. जिस तरह ये ताक़तें हमें धन उपलब्ध करा रहीं हैं, उसी तरह ये उन शासकों को भी संरक्षण दे रही हैं, जिनके ख़िलाफ़ हम आंदोलन कर रहे हैं. लोकतंत्र और मानवाधिकार के नाम पर अमेरिका और उसके सहयोगी देशों का किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कोई नई बात नहीं है. दरअसल, यह अमेरिकी विदेश नीति का एक हिस्सा है. इस काम के लिए अमेरिका प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई के साथ- साथ दूसरे माध्यमों का भी प्रयोग करता है, ताकि उसके लिए सामरिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण देश या क्षेत्र में अस्थिरता पैदा की जा सके. इराक और अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप की विफलता और अमेरिकी अर्थव्यवस्था कमज़ोर होने के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने अपना हित साधने के लिए अब दूसरे माध्यमों का प्रयोग कर रहे हैं. इसके तहत एनजीओ की सहायता से किसी देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों का फ़ायदा उठाकर वहां अस्थिरता की स्थिति पैदा करना है.
ऐसे में सवाल यह है कि अरब स्प्रिंग के बाद अरब दुनिया में फैली अराजकता के लिए दोषी कौन है? मिस्र में हुई हज़ारों लोगों की मौत की ज़िम्मेदारी किसके सर है? सीरिया और लीबिया की बर्बादी का ज़िम्मा कौन लेगा? ज़ाहिर है इसके लिए यूरोपीय और अमेरिकी मदद से चलाए जा रहे एनजीओ सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं. अगर पश्‍चिम एशिया में इन एनजीओ की क्रियाकलापों पर नज़र डालें, तो यह पूरी तरह अमेरिकी विदेश नीति के विस्तार का हिस्सा ही नज़र आते हैं.

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