muslimउत्तर प्रदेश की सरजमी पर इस लोकसभा चुनाव में कई तरीकों से नया इतिहास लिखा गया।संगठनात्मक स्तर से लेकर नेताओं की चुनावी रणनीति तक में तमाम बदलाव देखने को मिले।पिछले कई लोकसभा-विधान सभा चुनाव कांगे्रस बनाम अन्य दलों के बीच लड़े गये थे,जिसका फायदा उठा कर कांग्रे्रस ने देश पर वर्षो तक राज किया,लेकिन इस बार कांगे्रस,बसपा,सपा और यहां तक नई-नवेली आम आदमी पार्टी तक तराजू के एक पलड़े  पर बैठे दिखे तो दूसरे पल्ले पर नरेन्द्र मोदी अकेले थे,जो कांगे्रस के लिये शुभ संकेत नहीं रहा।इसका बड़ा नुकसान कांगे्रस सहित सपा-बसपा,लोकदल सभी को उठाना पड़ा।सत्ता विरोधी लहर और मोदी के तांनों से कांगे्रस का थिंक टैंक ही नहीं गांधी परिवार तक पूरे प्रचार के दौरान तमतमाया रहा।हार का डर चेहरे पर दिखा।पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के बाद पहली बार देश की राजनीति में कोई ऐसा नेता पैदा हुआ जिसने नेहरू-गांधी परिवार को सीधे-सीधे चुनौती देकर उसकी चूले हिला दीं।गांधी परिवार की सोच-समझ पर सवाल खड़े किये गये,वंशवाद,भ्रष्टाचार,मंहगाई,तुष्टिकरण,सीमा पर जवानों के सिर काटे जाने की घटना,राजीव गांाधी का गुस्सा,पूर्व प्रधानमंत्री नहसिंम्ह राव,,कांगे्रस के अध्यक्ष रहे सीताराम केसरी के साथ गांधी परिवार का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार, सोनिया के दामाद राबर्ट वाड्रा का जमीन घोटाला,प्रियंका वाड्रा की फजीहत, शायद ही कोई ऐसा मुद्दा बचा होगा जिसको लेकर दस जनपथ पर हमला नहीं बोला गया हो।दिल्ली की लड़ाई में कई बार तो हालात इतने खराब होते दिखे कि गांधी परिवार की साख को बचाये रखने के लिये कांगे्रस की पूरी टीम को मोर्चा संभालना पड़ गया।
गांधी परिवार का ‘हमलावार’ कोई और नहीं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी थे।कांगे्रस के लिये हालात इतने जटिल हो गये कि जो राहुल गांधी अमेठी में प्रचार करने तक नहीं जाते थे,उन्हीं राहुल गांधी को मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी में मतदान के दिन बूथ-बूथ पसीना बहाने को मजबूर कर दिया,उसके ऊपर से राहुल को यह ताना भी सुनने को मिला कि जो लोग पूरे देश को अपनी जेब में समझते हैं,वह अमेठी में दर-दर भटक रहे है।मोदी ने अपने बलबूते पर वर्षो से सोई भाजपा को जगा दिया तो प्रदेश में कांगे्रस ही नहीं जातिवाद की राजनीति करने वाली बसपा-समाजवादी पार्टी तक को चिंता करने को मजबूर कर दिया कि सिर्फ जातिवाद के सहारे चुनाव नहीं जीता जा सकता है।मोदी की ताजपोशी के बाद तो ऐसा लगता है कि सभी दलों को अपनी विचारधारा और राजनीतिक सोच की नये सिरे से समीक्षा करनी होगी।
मोदी फैक्टर के चलते यूपी में कांगे्रस-बसपा और समाजवादी नेताओं के पैरों तले सियासी जमीन खिसक गई तो यह भी साफ हो गया कि मोदी पर जितना कीचड़ उछाला गया वह उतरा निखर कर सामने आये।विध्वंस की भाषा बोलने वाले सपा के आजम खॉ,सांसद नरेश अग्रवाल,कांगे्रेस नेता बेनी प्रसाद वर्मा,सलमान खुर्शीद आदि को जनता ने छूल चटा दी।किसी को कहने में यह संकोच नहीं होना चाहिए कि एक वोट बैंक को खुश करने के चक्कर में भाजपा विरोधी तमाम नेताओं की वजह से राजनीति का ग्राफ काफी नीचे गिर गया।कांगे्रस के सहारनपुर के प्रत्याशी को तो मोदी के खिलाफ अभद्र भाषा के लिये जेल तक की हवा खानी पड़ गई।इसी तरह साम्प्रदायिक भाषा बोलने के कारण सपा नेता आजम खॉ और भाजपा के यूपी प्रभारी अमित शाह की रैलियों और रोड शो पर चुनाव आयोग को रोक तक लगानी पड़ गई।अमित शाह ने गलती मानी तो आयोग ने उन पर से बैन हटा लिया,लेकिन आजम खॉ अड़े रहे जिसका खामियाजा उन्हें प्रचार से दूर रहकर भुगतना पड़ा।इसी तरह से कांगे्रस के नेता और केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा को भी बदजुबानी के लिये चुनाव आयोग की फटकार खानी पड़ी।
मोदी का सिक्का ऐसा चला कि यूपी में जातीय समीकरण पूरी तरह से बिखर गये।बड़ी संख्या में बसपा सुप्रीमों मायावती के दलित वोटरों ने मोदी वाले खाने का बटन दबा दिया तो समाजवादी पार्टी को भी मुस्लिम और पिछडा वोटरों ने काफी नुकसान पहुंचाया।जातिवाद की राजनीति के सहारे सत्ता की रोटियां सेंकने में माहिर माया  का किला तो पूरी तरह से ध्वस्व हुहा ही मुलायम को इस बार अपना कुनबा बचाना मुश्किल हो गया।मुजफ्फरनगर दंगों के बाद समाजवादी पार्टी-बसपा और कांगे्रस की मुस्लिम तुष्टिकरण की पराकाष्ठा का ही नतीजा था कि इस तरह (मुस्लिम तुष्टिकरण ) की राजनीति से नाराज होकर तमाम वर्गो के मतदाता अबकी से जातिवाद को भूलकर मोदी के पीछे मजबूती के साथ लामबंद हो गये।राहुल से लेकर माया-मुलायम,राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजित सिंह,आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल तक मोदी पर साम्प्रदायिक होने का अरोप लगाते रहे,परंतु मोदी ने अपनी जुबान से कोई ऐसा जुमला नहीं बोला जिससे लगे कि वह साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर हैं,जिसका फायदा उन्हें जमीनी सियासत पर मिला।मोदी का नारा,‘ सबका साथ-सबका विकास’ लोगों को खूब रास आया।मोदी के विकास और सबको साथ लेकर चलने के नारे की हवा विरोधियों ने गुजरात के 2002 के दंगों की आड़ में निकालने की भरसक कोशिश की लेकिन कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने ही इस पर प्रश्‍न चिंह खड़ा कर दिया।पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मुजफ्फनगर का दंगा भाजपा से अधिक समाजवादी पार्टी के नेताओं को सताता रहा।इसके लिये समाजवादी नेता कोई काट नहीं निकाल पाये।
बहरहाल,बात भाजपा की कि जाये तो अबकी से भारतीय जनता पार्टी अपवाद को छोड़कर यूपी में कहीं भी चुनाव लड़ती दिखी। भाजपा की जगह नरेन्द्र मोदी ने ले रखी थी।अबकी बार भाजपा सरकार की जगह,अबकी बार मोदी सरकार के नारे फिजाओं में थे।यूपी भाजपा के तमाम सूरमा मोदी के आगे-पीछे घूमते दिखे तो ऐसे नेताओं की संख्या भी कम नहीं थी जिनकी कहीं कोई पूछ नहीं हुई।न लखनऊ के बुजुर्ग सांसद लाल जी टंडन का गुस्सा काम आया, न वाराणसी से चुनाव लड़ने की जिद कर रहे दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी के सामने आलाकमान ने हथियार डाले।उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की चुनावी कमान तक गुजरात से आये और नरेन्द्र मोदी के करीबी रहे अमित शाह के हाथों में रही,कल्याण सिंह जैसे नेता तक को टिकट चाहने वालों से कहना पड़ गया कि अबकी से टिकट के दावेदार उनके यहां हाजिरी न लगाये।अमित शाह के कई फैसले भाजपा के लिये मील का पत्थर साबित हुए।मोदी को वाराणसी से चुनाव लड़ाना भी शाह की रणनीति का हिस्सा था,जिसका पूरा फायदा भाजपा को मिला।कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यूपी में अपनी जड़े जमाये रखने के लिये सपा-बसपा,कांगे्रस,लोकदल सभी को नये सिरे से विचार करना होगा।अब जातिवाद और वंशवाद की राजनीति ज्यादा दिन चलने वाली नहीं है।राष्ट्रीय लोकदल का सफाया यूपी की सियासत को  कई संकते दे गया है।इसके साथ यह भी तय हो गया है कि जातिवाद की राजनीतिक करने वाले गैर भाजपा दलों की तमाम साजिशों के बाद भी उत्तर प्रदेश विधान सभा का अगला चुनाव भी लोकसभा चुनाव की तरह विकास के मुद्दे पर ही लड़ा जायेगा।

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