अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक

इसलिए नहीं कि इसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘मन की बात’ में किया बल्कि इसलिए भी कि बचपन के हमसफर खिलौनों के बारे में इस ‍देश में गंभीरता से शायद ही सोचा गया है। बावजूद इसके कि दुनिया का ज्ञात पहला खिलौना सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में ही मिला था। और यह भी कि आधुनिक और शिक्षाप्रद खिलौना निर्माण की दौड़ में हम बहुत पीछे हैं। क्योंकि हमने खिलौनों को हमेशा ‘खिलौने’ की तरह ही लिया। चंद उदाहरणों को छोड़ दें तो भारत का खिलौना उद्योग अब भी मोटे पर असंगठित क्षेत्र में ही है, जो अपने सी‍मित संसाधनों के चलते खिलौनों की दुनिया को गुड्डे-गुडि़या, हाथी-घोड़ा, सेठ -सेठानी, हाथ गाड़ी और गर्दन हिलाती नर्तकी से ज्यादा आगे नहीं ले जा सका है, इसके विपरीत हमारे शहरी बच्चे डिजीटल युग में जी रहे हैं। प्रधानमंत्री ने जिन ‘देसी खिलौनों’ की बात की, उनका कुछ लोगों ने मजाक भी उड़ाया। प्रधानमंत्री ने अगर भारत को दुनिया का ‘खिलौना ( टाॅय) हब’ बनाने का आव्हान किया तो इसके सभी पहलुओं की संजीदगी से पड़ताल जरूरी है। क्यों‍कि खिलौना निर्माण में आत्मनिर्भरता का भावार्थ देश के बचपन को सही दिशा में विकसित करने की क्षमता अर्जित करना भी है। इसके लिए जरूरी है कि देश के बचपन को संवर्द्धित करने के लिए हमे कैसे खिलौने चाहिए, बच्चों को किन खिलौनों से खेलना चाहिए और कौन से खिलौने हैं, जो खेल-खेल में बचपन को वयस्कता में बदलते हैं और हमे पता भी नहीं चलता।

खिलौनों के बगैर बचपन की कल्पना वैसे ही नामुमकिन है, जैसे कि खिलौनों की दुनिया भी बिन बचपन निष्प्राण-सी है। मासूम बचपन और मूक भाषा में बात करते खिलौने दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। बच्चे खिलौने से केवल खेलते भर नहीं है, वो अपनी अबोध भाषा में खिलौनों से भरपूर संवाद भी करते हैं।

कहते हैं कि दुनिया का पहला खिलौना सिंधु घाटी के लोगों ने बनाया, जो चार पहियों पर चलता एक प्राणी था और जिसे रस्सी से खींचा जा सकता था। यह खेल आज भी हर बचपन का जरूरी हिस्सा है। तब से लेकर मनुष्य सभ्यता के विकास के साथ खिलौना जगत भी बदला है, ज्यादा सुंदर, ज्यादा जटिल और कुछ खतरनाक भी हुआ है। औदयोगिक क्रांति के बाद 18 वीं सदी में खिलौना निर्माण में कुछ विविधता आई। 19 वीं शताब्दी में शिक्षाप्रद खिलौने भी बनने लगे। इन्हीं में से एक था कैलिडोस्कोप, जो कुछ साल पहले तक बच्चों में लोकप्रिय था। 20 वीं सदी में रचनात्मक खेल ‘मैकेनो’ का आविष्कार हुआ। यह आज भी लोकप्रिय है। इसी दौरान बच्चों की रेल और हवाई जहाज जैसे खिलौने भी बनने लगे, अपने पूर्वज‍ खिलौनों की तुलना में ज्यादा जटिल, यांत्रिक और रोचक थे। इस लिहाज से 20 वीं और 21 वीं सदी ‘खिलौनों का स्वर्ण युग’ है। आज इतने विविध प्रकार, रूप-रंग और तकनीक के खिलौने बाजार में मौजूद हैं कि बच्चों के रूप में जीवित खिलौने और कृत्रिम खिलौनों के बीच फर्क करना ही मुश्किल है। यकीनन आज के बच्चे खुशकिस्मत हैं कि खिलौनों की एक अंनत दुनिया उनके बचपन को शेयर करने के लिए मौजूद है। हमारे बचपन में ऐसा न था। उस जमाने में खिलौने सीमित थे, इसलिए बच्चे अपने खेल खुद विकसित कर मनोरंजन कर लिया करते थे। ‍ज्यादा से ज्यादा चाबी से चलने वाले कुछ खिलौने जरूर बाजार में मिलते थे। लेकिन उन्हें खरीदने की हैसियत कम ही लोगों की थी। अगर खिलौना  निर्माण की बात करें तो भारत में कई देसी खिलौना सेंटर वजूद में रहे हैं। जैसे, कर्नाटक के रामनगरम में चन्नापटना, आंध्र प्रदेश के कृष्णा में कोंडापल्ली, तमिलनाडु में तंजौर, असम में धुबरी, उत्तर प्रदेश में वाराणसी, मध्यप्रदेश में भी बुदनी, श्योपुर सहित लकड़ी के खिलौने का बनाने काम कई जगह होता रहा है।

लेकिन हमारे देश में खिलौना निर्माण और समयानुकूल खिलौनों की मांग में बड़ा फर्क रहा है। चिंताजनक यह है कि पूरी दुनिया के 2.8 फीसदी बच्चे ( 0-14 साल तक) भारत में हैं, लेकिन विश्व के खिलौना बाजार में हमारी‍ ‍िहस्सेदारी केवल 0.5 फीसदी है। इसका एक कारण तो ये हमारे देश में खिलौना खरीदना भी ‘फील गुड’ का व्यावहारिक प्रतिफलन है। अमूमन हमारे यहां खिलौने भी शादी-ब्याह पर गहने खरीदने की मानिंद खरीदे जाते हैं, उसमें भी सस्ता, सुंदर और टिकाऊ पर ज्यादा जोर होता है। जिस देश के बचपन के एक ‍बड़े हिस्से के तन पर पूरे कपड़े तक न हों, वो खिलौने खरीदकर अपने बचपन का रंजन कैसे करें? दूसरा बड़ा कारण इस क्षेत्र में वक्त के मुताबिक खिलौनों का विकास और निर्माण नवाचार का अभाव है। हमारे पारंपरिक खिलौना निर्माताओं को जरूरी शोध के साथ आधुनिक‍ खिलौने बनाने की तकनीक और पूंजी उपलब्ध कराई जाए तो वो भी कमाल दिखा सकते हैं। आज दुनिया में खिलौनों का बाजार करीब 7 लाख करोड़ रू. का है। जबकि भारतीय खिलौना बाजार केवल 16 हजार करोड़ रू. का है। इनमें भी मात्र 25 फीसदी खिलौने ही स्वदेशी हैं। बाकी 75 प्रतिशत खिलौनों का कच्चा माल भी चीन से ही आता है।

इस हकीकत के बाद भी प्रधानमंत्री ने देसी खिलौनों को बढ़ावा देने की बात कही तो उसके और भी कारण हैं। पहला तो यह कि वो चीन को तगड़ी ‘खिलौना चुनौती’ देना चाहते हैं। क्योंकि आज हमारे देश में खिलौनों की रंग-बिरंगी और सपनीली दुनिया के 80 फीसदी‍ हिस्से पर चीनी खिलौनों ने कब्जा कर लिया है। चीन में निर्मित खिलौनों की सुंदरता, सजीवता और कल्पनाशीलता अद्भुत है। कई खिलौने तो बच्चों से ज्यादा बड़ों को उनके बचपन में खींच ले जाते हैं। रश्क होने लगता है कि हम बड़े हुए ही क्यों? हालांकि चीन में खिलौने बनाने वाली ज्यादातर कंपनियां भी विदेशी ही हैं, लेकिन कम कीमत में बेहतरीन और दिलकश खिलौने ये बनाती और वाजिब दाम में पूरी दुनिया को सप्लाई करती हैं। इनमें पहला नाम डेनिश कंपनी लीगो का है। इसके बाद मैटल, बांदाई जैसी नामी कंपनियां हैं। पीएम मोदी ने आंध्र के सी.वी. राजू द्वारा निर्मित एति कोप्पका टॉयज का जिक्र किया। उनके मुताबिक राजू ने खिलौनों की खोई हुई गरिमा को वापस ला दिया है। प्रधानमंत्री ने देसी खिलौना उद्योग को बढ़ावा देने की अपील की, लेकिन खुद उनकी सरकार की नीतियां इससे मेल नहीं खाती, जो पारंपरिक खिलौना क्लस्टर हैं, वो भी आज मुश्किल में हैं। देश के खिलौना उद्योग को पहला झटका नोटबंदी ने दिया था। दूसरा झटका मोदी सरकार ने खिलौनों पर 12 फीसदी जीएसटी लगाकर दे दिया। इसके पहले खिलौनों पर 5.5 फीसदी वैट ही लगता था। इससे खिलौने और महंगे हो गए। तीसरा मुद्दा नवाचार (इनोवेशन) का है, इस मामले में चीन हमसे मीलों आगे है। क्योंकि उसने जिस क्वालिटी और वेरायटी के खिलौनों की आदत बच्चों और अभिभावकों में डाल दी है, उस तक पहुंचने में देसी खिलौना उद्योग को बरसों लगेंगे। इस क्षेत्र में अगर चीन को मात देना है तो हमे खिलौनों की आरएंडडी ( शोध और अनुसंधान) पर भी पर्याप्त खर्च करना होगा। हमे बच्चों की रूचि और मानसिक विकास को ध्यान में रखकर खिलौने डिजाइन करने होंगे, जिस पर हमारे यहां ध्यान शायद ही दिया जाता है। दरअसल चीन सेकंड हैंड खिलौना मोल्ड का सप्लायर भी है, जिसका बड़ा खरीदार भारत है। क्यों‍कि यह बहुत सस्ते में मिल जाते हैं। इस बीच भारत सरकार ने इसी माह से खिलौनों की गुणवत्ता के लिए बीएसआई मार्क अनिवार्य कर दिया  है। एक और अघोषित कारण यह भी है कि मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने पिछले साल दुनिया की सबसे पुरानी ब्रिटिश खिलौना निर्माता कंपनी हेमलेज को 620 करोड़ रू. में खरीद लिया था। अब उसे भी बाजार चाहिए। यह बताना गैर जरूरी है कि भारतीय खिलौना हब का सिरमौर कौन होगा।

खिलौना निर्यात से चीन की कमाई का को देखें तो वर्ष 2018 में चीन ने दुनिया भर के देशों को 25 अरब अमेरिकी डाॅलर के खिलौनों का निर्यात किया। उसी साल हमने चीन से 1 अरब डाॅलर के खिलौने आयात किए। यानी हम खिलौनों से ज्यादा उसकी सस्ताई को देख रहे हैं। ऐसा नहीं कि हम खिलौनों के मामले में चीन को चुनौती दे नहीं सकते, लेकिन इसके लिए पूरी ताकत, गंभीरता और दूरदर्शिता के साथ काम होना चाहिए वरना हमारे यहां तो पूरा देश ही खिलौना है, जिसके साथ जो जैसा जी चाहे खेल रहा है। गहराई से देखें तो ‘खिलौनों की दुनिया’ और ‘दुनिया के खिलौने’ में फर्क केवल यथार्थ का है। शायद इसीिलए निदा फाजली कह गए हैं-‘दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।‘

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