kamal morarkaजयललिता की मृत्यु के बाद शशिकला को एआईएडीएमके ने अपना नेता चुन लिया है. यह पार्टी का आंतरिक मामला है कि वे किसे अपना नेता चुनते हैं. विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद भी गवर्नर का उनके शपथग्रहण में विलंब करना गवर्नर के अधिकार क्षेत्र से बाहर का मामला है. यह हकीकत है कि गवर्नर को भाजपा सरकार ने नियुक्त किया है और वे एक साथ महाराष्ट्र और तमिलनाडु के गवर्नर हैं.

दरअसल लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जानबूझ कर देरी कर वे संविधान के विरुद्ध काम कर रहे हैं. उसी तरह चुनाव आयोग पर भी दबाव डाला जा रहा है. आयोग ने एक हास्यास्पद बयान जारी किया है कि शशिकला को पार्टी का महासचिव नहीं चुना जा सकता है. किसी पार्टी के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.

बहरहाल शशिकला को विधायक दल का नेता चुना गया है, इसमें कोई विवाद नहीं है. यहां तक कि चुनाव आयोग को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं है, तो फिर विलंब क्यों? शशिकला को बिना किसी अतिरिक्त विलंब के तुरंत मुख्यमंत्री पद का शपथ दिलाया जाना चाहिए. यह एक हास्यास्पद बहाना है कि सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक जनहित याचिका लंबित है, इसलिए गवर्नर कानूनी सलाह ले रहे हैं. राज्यपाल का पक्ष तर्कसंगत नहीं है. वे दूसरे रामलाल बन गए हैं. यदि भाजपा ऐसे लोगों को नियुक्त करेगी, जो अपने संवैधानिक विवेक का इस्तेमाल नहीं कर सकते, तो भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. यह बहुत ही दुखद स्थिति है.

उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार जारी है. यहां सात चरणों में चुनाव होने हैं. चुनाव दरअसल हर पांच साल में होते हैं, इसमें कुछ भी नया नहीं है. लेकिन इसका दुखद पक्ष यह है कि न सिर्फ क्षेत्रीय, बल्कि राष्ट्रीय दलों (खास तौर पर भाजपा जो केंद्र में सत्ता में है,) ने भी निम्न स्तर की भाषा का प्रयोग कर चुनाव प्रचार के स्तर को गिरा दिया है.

विनय कटियार और योगी आदित्यनाथ की कौन कहे, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और खुद प्रधानमंत्री ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, जो प्रधानमंत्री के गरिमापूर्ण पद के लिए ठीक नहीं है. यह भाषा  लोकतंत्र में शोभा नहीं देती, किसी शिक्षित व प्रबुद्ध समाज को शोभा नहीं देती.

यहां तक कि यह भाजपा की परम्परा से भी मेल नहीं खाती है. भाजपा पहले विपक्ष में रही है और बहुत ही जोशोखरोश और ताक़त के साथ चुनाव प्रचार किया है. अटलबिहारी वाजपेयी, एलके आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नानाजी देशमुख, सुन्दर सिंह भंडारी आदि की भाषा को देखें, तो वे कांग्रेस की आलोचना में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे, लेकिन उनकी भाषा शालीन होती थी. नरेंद्र मोदी की तरह तो बिल्कुल ही नहीं थी.

फिलहाल वे सत्ता में हैं, जिसके कारण उनकी भाषा संयमित और शालीन होनी चाहिए थी. विपक्ष में रहते हुए कोई असंतुष्ट हो सकता है. वो 282 सदस्यों के पूर्ण बहुमत के साथ  सत्ता में हैं. वो जैसे चाहें, सरकार चला सकते हैं तो फिर असुरक्षा की भावना क्यों? वो इतने परेशान क्यों हैं? यह एक आम राजनीतिक विवेचक को हैरान करता है. वो यह नहीं समझ पाता कि वास्तव में क्या हो रहा है?

चुनाव के लिए सबको तैयार रहना चाहिए. कोई हारेगा, कोई जीतेगा. कोई कम अंतर से जीतेगा, कोई बड़े अंतर से जीतेगा. कोई कम अंतर से हारेगा, कोई बड़े अंतर से हारेगा. लेकिन यह संयम खोने वाली बात नहीं है. मेरे हिसाब से प्रधानमंत्री को खुद ही इस खामी को ठीक करनी होगी. लेकिन यदि वे खुद इस खामी का हिस्सा हैं, तो वे उसे कैसे दूर करेंगे? उन्हें तुरन्त अपनी भाषा को संयमित करना चाहिए, जिसका पालन पार्टी के दूसरे लोग भी करेंगे.

अगर उत्तर प्रदेश में चुनाव हार भी जाते हैं, तो उन्हें इसका फर्क नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि उसके बाद भी देश की सत्ता कम से कम दो साल तक उन्हीं के हाथों में रहेगी. लेकिन यदि आप बहस और संवाद के स्तर को नीचे गिराएंगे, तो आपको ऐसे व्यक्ति के रूप में चिन्हित किया जाएगा, जिसने चुनाव प्रचार में भाषा के स्तर में गिरावट की शुरुआत की.

वर्ष 2014 के चुनाव प्रचार में मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत की बात करना ही आपत्तिजनक था. कांग्रेस मुक्त सरकार कहना ठीक है, लेकिन कांग्रेस मुक्त भारत! इसका मतलब क्या है? क्या आप चाहते हैं कि कांग्रेस देश से चली जाए? क्या आप चाहते हैं कि पार्टी समाप्त हो जाए? क्या आप एक दलीय प्रणाली वाला लोकतंत्र चाहते हैं?

ये लोकतांत्रिक कथन नहीं है. ऐसे बयान से तानाशाही एवं राजशाही की बू आती है और लोकतंत्र में ऐसी चीज़ें अराजकता की तरफ ले जाती हैं. पहले ही उनकी चमक समाप्त हो गई है. दिल्ली और बिहार में वे बुरी तरह से हारे हैं. यदि उनका निष्कर्ष यह था कि जनता ने कांग्रेस को हमेशा के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया है, तो यह एक ग़लत निष्कर्ष है. मेरे विचार से ये सारी चीज़ें उसी गलत निष्कर्ष की वजह से हो रही हैं.

कोई कभी हारता है, कभी जीतता है. 2014 में भाजपा ने कुल 31 प्रतिशत वोट हासिल किया था. तो यह सोचना कि पूरा देश उनके साथ है और कांग्रेस हमेशा के लिए हार गई है, गलत है.

यह बिल्कुल सही है कि कांग्रेस बुरी तरह से हारी है, लेकिन उन्हें यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि लोगों ने कांग्रेस के शासन काल में जो आदर्श थे, उसे छोड़ कर संघ के दृष्टिकोण को अपना लिया है. ऐसा बिल्कुल नहीं है. निस्संदेह उन्होंने बीफ बैन किया, मोरल पुलिसिंग की हौसला अफजाई की और सेंसर बोर्ड में संघ के लोगों की नियुक्ति की. लेकिन उन्हें इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए कि देश का बहुमत या देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उनके दृष्टिकोण को अपनाएगा. उत्तर प्रदेश चुनाव में उन्हें ये पता चल जाएगा.

विनय कटियार और योगी, इस तरह की जितनी अधिक बातें करेंगे, उन्हें उतना ही अधिक नुकसान होगा. लेकिन मैं वो बात नहीं कर रहा हूं. यह उनके पार्टी का मामला है. प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष के रूप में अमित शाह को अपनी भाषा पर नियंत्रण रखना चाहिए. कांग्रेस की सख्त आलोचना कीजिए. मैं किसी की तरफ से बात नहीं कर रहा हूं, लेकिन भाषा का स्तर नीचे नहीं होना चाहिए.

भाजपा कहती है कि हम पार्टी विद डिफरेंस हैं. कांग्रेस सत्ता की लालची है, क्योंकि उसे पैसा कमाना है. हमलोग एक नए तरह का शासन देंगे. न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन. पिछले तीन साल में क्या हुआ? उन्होंने सिर्फ कांग्रेस की नकल की है. कांग्रेस के फ्लैगशिप प्रोग्राम जैसे मनरेगा और आधार को आगे ब़ढा रहे हैं. इसके बाद भी ये लोग कांग्रेस को कोसते हैं.

कश्मीर में इन्होंने किस सिद्धांत के आधार पर मुफ्ती के साथ मिल कर सरकार बनाई? वहां राष्ट्रपति शासन रहने देते, लेकिन नहीं. ये भी सत्ता के लिए उतने ही उतावले हैं, जितना कि कांग्रेस या कहें कि उससे भी कहीं अधिक. उत्तराखंड में आपने क्या किया? वहां आपने कांग्रेस से दस आदमी लिए और उन्हें टिकट दे दिया. अपनी ही पार्टी में असंतोष भर दिया. यह काम तो कांग्रेस करती रही है.

दूसरे शब्दों में कहें, तो भाजपा अपने काम से ये साबित कर रही है कि कांग्रेस इस देश को ठीक से चला रही थी और वे ये काम ठीक से नहीं कर रहे हैं. लेकिन, पार्टी विद डिफरेंस का दावा कहां गया? आज मोदी और शाह जिस तरह से उत्तर प्रदेश में बोल रहे हैं, उससे लग रहा है कि वहां भाजपा की स्थिति काफी कमजोर हो चुकी है. यही कारण है कि खराब और अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है. मेरे हिसाब से अगर अभी भी भाजपा नए मानदंड स्थापित करना चाहती है, तो इसे राज्यों के विधान सभा चुनावों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए.

जीतने दीजिए, जो जीत रहा है, या फिर जो हार रहा है. मानकों को बनाए रखिए. आप क्यों तमिलनाडु में हस्तक्षेप कर रहे हैं? क्यों गवर्नर को बोल रहे हैं कि शशिकला को शपथ न दिलाएं? उन्हें सीएम बनने दीजिए. वह इतनी लोकप्रिय नहीं हैं. पार्टी उन्हें एक समय के बाद हटा देगी. लोकतंत्र को अपना काम खुद करने दीजिए. लोकतंत्र के रास्ते में अवरोध पैदा करना तो गलत है. इंदिरा गांधी ने यही काम आपातकाल के समय किया.

लोगों ने उन्हें हटा दिया. एक व्यक्ति चाहे कितना लोकप्रिय क्यों न हो, वह सब के लिए नहीं बोल सकता, सब काम नहीं कर सकता. दुर्भाग्य से भाजपा अघोषित आपातकाल थोपने की कोशिश कर रही है. लोकतंत्र में सबके लिए स्कोप होना चाहिए. निश्चित तौर पर भाजपा चुनाव लड़ना चाहती है, केंद्र में शासन करना चाहती है, करना भी चाहिए, लेकिन लोकतांत्रिक सीमा और संवैधानिक मूल्यों के भीतर. देखते हैं, क्या होता है?

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