narendra modiराजनीति को क़रीब से देखने-जानने वाले लोगों ने जो आशंका ज़ाहिर की थी, उसी के अनुरूप संसद बिना कोई विशेष काम किए अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गई. संसद का समय बिना कोई अर्थपूर्ण काम किए बर्बाद हुआ. इस सबका खतरा यह है कि लोगों का संसदीय लोकतंत्र में विश्वास कम होना शुरू हो जाएगा. मेरी राय में आज भी इस देश के संविधान और मौजूदा व्यवस्था में कांग्रेस की सर्वाधिक हिस्सेदारी है. कांग्रेस को मौजूदा परिदृश्य और घटनाक्रम पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों (फ्रंट आर्गेनाइजेशंस) का इस व्यवस्था में कभी ज़्यादा विश्वास रहा ही नहीं.

ज़ाहिर है, वे इसी संविधान के रास्ते सत्ता में आए हैं, इसलिए उन्हें यह संविधान मानना है. लेकिन, सत्ता में आने के कारण संविधान को मानना और सचमुच संविधान में विश्वास रखना, दो अलग-अलग बातें हैं. अगर उनकी बातों या कामों से भ्रम की स्थिति बनती है, तो यह उनके ही उद्देश्य पूरे करती है. आरएसएस के सहयोगी संगठन और सांसद जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह आ़खिर क्या है? ये लोग अप्रासंगिक मुद्दों जैसे बीफ और तार्किक लोगों की हत्या आदि के ज़रिये हरसंभव ऐसी कोशिश करते हैं, जिससे देश का माहौल खराब हो.

वैैधानिक तौर पर केंद्र सरकार सही कह रही है कि यह सब राज्य का विषय है, राज्य का मामला है, लेकिन असल में मुद्दा यह नहीं है. मुद्दा कोई वैधानिकता वाली बात नहीं है. मुद्दा यह है कि देश में किस तरह के वातावरण का निर्माण हो रहा है. महात्मा गांधी की हत्या सीधे तौर पर आरएसएस ने नहीं की थी, लेकिन उस हत्या के लिए माहौल या कहें कि घृणा का एक वातावरण तैयार किया गया था. हमें समझना होगा कि संसदीय लोकतंत्र में पांच साल पर चुनाव होते हैं, अच्छी बात है. एक सांसद पांच साल के लिए चुना जाता है, अच्छी बात है.

यह लोकतंत्र का एक पक्ष है, जो अच्छी तरह काम कर रहा है, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि लोकतंत्र संपूर्ण रूप से अच्छी तरह काम कर रहा है. यहां स्वतंत्र मीडिया और स्वतंत्र न्यायपालिका भी है. एक जीवंत लोकतंत्र का असल प्रतीक यह है कि कैसे एक सिविल सोसायटी (नागरिक समाज) काम करती है? क्या आलोचना के लिए पर्याप्त अवसर है? क्या असहमति जताने के लिए पर्याप्त अवसर है? दुर्भाग्य से, जबसे यह सरकार सत्ता में आई है, तबसे ऐसी चीजों का क्षरण हुआ है.

दूसरी तऱफ हम देख रहे हैं कि न्यायपालिका उन सभी क्षेत्रों में भी सक्रिय हो रही है, जहां उसका कोई काम नहीं है. लेकिन, एक जीवंत नागरिक समाज या संसद के अभाव में न्यायपालिका को यह सब करना पड़ रहा है. इसका एक सबसे खराब उदाहरण यह है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश का एक राज्य का राज्यपाल बनना. एक लोकतंत्र या न्यायपालिका के लिए इससे अधिक हास्यास्पद बात और भला क्या होगी?

अब दो ऐसे मुद्दे हैं, जो रा़ेजाना अ़खबारों की सुर्खियां बन रहे हैं. नंबर एक, दिल्ली की स्टेट क्रिकेट एसोसिएशन यानी डीडीसीए. यह कोई सरकारी संस्था नहीं है और न इसमें सरकारी पैसा लगा है, लेकिन यह मुद्दा सारे देश में छाया हुआ है. नंबर दो, नेशनल हेराल्ड का मुद्दा. यह कांग्रेस का मामला नहीं है. लेकिन, सुब्रमण्यम स्वामी एवं कीर्ति आज़ाद, दो स्वनियुक्त वाच डॉग, डीडीसीए और नेशनल हेराल्ड को लेकर काफी चिंतित हैं. यह सब देश को कैसे प्रभावित करता है, मेरे लिए समझना कठिन है. सारा मीडिया इन दो ग़ैर महत्वपूर्ण मुद्दों पर घंटों खर्च कर रहा है. मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि ऐसा क्यों है?

मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का, एक बुद्धिमान व्यक्ति के तौर पर आदर करता हूं. आ़िखरकार चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने तक की यात्रा को उन्होंने काफी अच्छे से मैनेज (संभाला) किया है. वह दुनिया भर के नेताओं से मिल रहे हैं, वह काम भी कर रहे हैं, लेकिन उनका डिजाइन समझ में नहीं आता. पहले उन्होंने दिल्ली में केजरीवाल बनाम लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग करा दिया. पुलिस कमिश्नर बस्सी मुख्यमंत्री केजरीवाल को हर दिन चुनौती दे रहे थे, जिससे एक खराब माहौल बन रहा था. लेकिन, अच्छी बात है कि पुलिस कमिश्नर बस्सी ने अब यह सब करना बंद कर दिया है.

अब केजरीवाल भी क्रिकेट में हस्तक्षेप कर रहे हैं, बिना समझे कि यह सब उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है. ज़मीन डीडीए के तहत आती है, डीडीसीए कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के तहत आता है और यूपीए सरकार एवं कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा इन मुद्दों को पहले ही देखा जा चुका है. यह सही है कि डीडीसीए की कार्यप्रणाली में गड़बड़ी है, फंड में लीकेज है और ऐसा भारत के सभी संस्थानों में है, लेकिन यह सब केंद्रीय विषय नहीं हो सकता. इस सबके लिए आप केंद्रीय वित्त मंत्री से इस्ती़फा नहीं मांग सकते, जिसने वित्त मंत्री के तौर पर डीडीसीए में कुछ नहीं किया है. डीडीसीए प्रेसिडेंट रहते हुए दो साल पहले किए गए कुछ कार्यों के लिए आप वित्त मंत्री से इस्ती़फा नहीं मांग सकते. मैं समझता हूं कि यह हास्यास्पद है.

एक महत्वपूर्ण बात. किसी को आगे आकर हाउस को व्यवस्थित करना होगा. मैं नहीं जानता कि वह कौन होगा? मैं नहीं समझता कि प्रधानमंत्री के अलावा कोई और यह काम कर सकता है. उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि असल में क्या होना चाहिए. उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संसद के अगले सत्र में हर दिन काम हो. निश्चित तौर पर अवरोध उत्पन्न होंगे, लेकिन काम होने चाहिए.

अगला सत्र बजट सत्र होगा, जो देश के लिए महत्वपूर्ण होगा. बजट सत्र में देश के अगले एक साल के वित्तीय रास्ते का निर्णय होता है. बजट लोकसभा में पेश होता है, इसलिए हम यह भी नहीं कह सकते कि राज्यसभा अवरोध उत्पन्न कर रही है, लेकिन लोकसभा में भी कांग्रेस बहुत उत्तेजित है. दरअसल, चीजें जिस तरीके से चल रही हैं, उससे वह नाखुश है.

अमेरिका में राष्ट्रपति ओबामा ने भी कहा है कि सभी लोकतंत्र में आपको समझौते करने पड़ते हैं. एक अकेली पार्टी सारी बुद्धिमता दिखाते हुए काम नहीं कर सकती. कांग्रेस और भाजपा, दोनों को यह बात समझनी चाहिए और वे जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही बेहतर होगा. भाजपा यह सोचती है कि वह काम करना चाहती है, लेकिन कांग्रेस अवरोध उत्पन्न कर रही है. यह सब खत्म होना चाहिए, इससे कोई भला नहीं होने वाला. या फिर संविधान के पन्ने पलटने चाहिए. कुछ न्यायविद् संविधान को देखें और बताएं कि संसद कैसे चलती है.

कुछ लोग यह सलाह दे रहे हैं कि ऐसे सदस्यों को निलंबित कर देना चाहिए, जो हल्ला-हंगामा करते हैं. लेकिन यह सब किस तरह का संसदीय कार्य है? 1989 का उदाहरण लीजिए. वीपी सिंह ने इस्ती़फा दे दिया. सरकार ने चुनाव की घोषणा कर दी. सरकार चुनाव हार गई. लेकिन, सरकार में इतनी हिम्मत तो थी कि वह समय से पहले चुनाव कराने की घोषणा कर सकी. क्या कांग्रेस के पास इतनी हिम्मत है कि वह सरकार को समय से पहले चुनाव कराने के लिए बाध्य कर सके? लेकिन, सब कुछ सही तरीके से चले, इसके लिए रास्ता तलाशने की ज़रूरत है.

गुलाम नबी आज़ाद ने सही कहा कि भाजपा को नहीं पता कि संसद सही तरीके से कैसे चलानी चाहिए. संसद लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा नहीं, बल्कि सरकार द्वारा चलाई जाती है. सरकार एक संसदीय कार्य मंत्री नियुक्त करती है, जो सत्ता पक्ष समेत विपक्ष के सदस्यों के प्रति भी सहृदयी होता है. वह कठिन मुद्दों का समाधान ढूंढने की कोशिश करता है. सदन के चलने से पहले और बाद में बहुत सारा काम किया जाना ज़रूरी होता है.

संसद में काम अबाध गति से चलना चाहिए. निश्चित तौर पर विपक्ष के पास कहने के लिए अपनी बात है, लेकिन सरकार के पास अपने रास्ते हैं. आ़खिरकार सरकार के पास बहुमत है. लेकिन, अगर प्रवृत्ति ही बहस की जगह हो-हल्ला मचाना हो, संसद के अंदर की जगह संसद के बाहर गतिविधियां चलाना हो, तो यह देश के लोकतंत्र के भविष्य के लिए सही नहीं होगा. जितनी जल्दी इस सबका समाधान बुद्धिमान लोग निकाल लें, उतना ही बेहतर होगा.

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