nitish-modiबिहार विधानसभा चुनाव के लिए निर्वाचन आयोग द्वारा तारीखों का ऐलान होना बाकी है, लेकिन दोनों कैम्पों की ओर से गतिविधियां तीव्र गति से बढ़ गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आचार संहिता लागू होने से पहले बिहार के लिए अधिकतम वादों, पैकेज और रियायतों की घोषणा कर देना चाहते हैं. अपने अति उत्साह में उन्होंने जो पैकेज वगैरह दिए हैं, वे पहले से ही आवंटित बजट या वित्त आयोग के आवंटन के हिस्से हैं. खैर, चुनाव के समय इस तरह की हेरफेर चलती है. हालांकि, एक प्रधानमंत्री के लिए, जिसके पास स्पष्ट बहुमत है, यह अच्छी बात नहीं है. लोग यह देखेंगे कि प्रधानमंत्री क्या वादे कर रहे हैं और वे कितने व्यवहारिक हैं. अगर ऐसे ही चलता रहा और अव्यवहारिक वादे होते रहे, तो फिर जनता उन्हें गंभीरता से लेना बंद कर देगी. फिर यह देश के लिए अच्छी बात नहीं होगी. तब यह भूल जाइए कि कौन जीतता है या कौन हारता है.

दूसरी ओर, नीतीश और लालू एक साथ आ गए हैं और भाजपा की ओर से यह कहने की कोशिश हो रही है कि ये दोनों एक-दूसरे से अलग हो गए थे और अब चुनावी लाभ उठाने के लिए बेमेल गठबंधन कर रहे हैं. इस सबका कोई मतलब नहीं है. चुनाव के समय ऐसे राजनीतिक मेल-मिलाप होते रहते हैं. जो लोग पहले साथ नहीं होते हैं, वे बाद में साथ आ जाते हैं. ये सब सामान्य चुनावी परिदृश्य हैं. लब्बोलुआब यह है कि एक तऱफ केंद्र में हमारे पास नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक सरकार है और दूसरी तऱफ ग़ैर-कांग्रेसी, ग़ैर-भाजपाई पक्ष है, जो पिछड़े वर्ग से है.

चुनाव इन दो गुटों के बीच है. भाजपा के पास बहुत सारा पैसा है, उसके साथ प्रधानमंत्री की अथॉरिटी है और संसाधन हैं. यह एक सकारात्मक पक्ष है. नकारात्मक पक्ष नरेंद्र मोदी सरकार का पिछले 15 महीने का कम तीव्रता वाला प्रदर्शन है, जो उनके लिए अच्छा संकेत नहीं है. लोकसभा चुनाव के दौरान किए गए वादों की तुलना अभी के प्रदर्शन से करें, तो यह काफी निराशाजनक है.

बेशक कई वादे ऐसे हैं, जो कार्यान्वित होने में योग्य नहीं थे, लेकिन मतदाता चुनाव के समय क्षमा नहीं करते हैं. लोग पूछेंगे कि काला धन वापसी का क्या हुआ, अन्य वादों का क्या हुआ? इस सबका क्या नतीजा हो सकता है, इसे दिल्ली के चुनाव से समझ सकते हैं. दिल्ली में जो हुआ, वह कोई छोटी बात नहीं है. 70 में से 67 सीटें भाजपा हार गई. यह उस पार्टी के लिए काफी दु:खभरी बात है, जो बड़े-बड़े वादों के साथ कुछ ही महीने पहले केंद्र की सत्ता में आई थी और ठीक अपनी नाक के नीचे होने वाला चुनाव हार गई.

बिहार में भाजपा के लिए दूसरी समस्या यह है कि उसके पास कोई चेहरा नहीं है. आप हर राज्य में नरेंद्र मोदी का चेहरा नहीं दिखा सकते, क्योंकि वह मुख्यमंत्री नहीं बन सकते हैं. आपको एक स्थानीय एवं विश्वसनीय चेहरा चाहिए. एक ऐसा नेता चाहिए, जो कह सके कि हां, अगर भाजपा को जनादेश मिला, तो मैं आपका नेतृत्व करने के लिए तैयार हूं या मैं नेतृत्व करूंगा. ऐसा कोई चेहरा भाजपा के पास नहीं है. उसके वर्तमान नेता सुशील मोदी हैं, लेकिन वह एक जननेता नहीं हैं. वह नीतीश कुमार के एक बेहतर सहयोगी थे. जब तक भाजपा और जद (यू) साथ थे, कभी किसी ने एक-दूसरे के ़िखला़फ कोई शिकायत नहीं की. वह एक ऐसे नेता नहीं दिखते, जो नतीजे दे सके.

अन्य नेताओं को पीछे की सीटों पर क्यों बैठाकर रखा गया है, यह भाजपा ही बेहतर जानती है. वह उनमें से किसी को भी आगे बढ़ाना नहीं चाहती. यह दूसरी बड़ी बाधा है.

नीतीश कुमार के पक्ष से यह कहा जा रहा है कि उनके दस वर्षों के शासन में लोग कोई कमी नहीं निकाल सकते. दरअसल, जब भाजपा नीतीश सरकार के दस वर्षों के शासन, जिसमें आठ साल वह खुद भागीदार रही है, में ग़लतियां निकाल रही है, तो वास्तव में इस सबका कोई फर्क़ नहीं पड़ता. तथ्य यह है कि नीतीश कुमार ने बिहार में एक अच्छा शासन दिया है. नकारात्मक पक्ष यह है कि उन्होंने एक ऐसी पार्टी से हाथ मिलाया है, जो कल तक उनके ़िखला़फ थी. लेकिन, जैसा मैंने कहा कि चुनाव के समय यह सब होता है.

असल परीक्षा यही है कि क्या इन दलों के वोट बैंक उनके साथ जुड़े रहते हैं? यदि ऊंची जाति-भूपति वर्ग भाजपा के साथ और पिछड़ा वर्ग नीतीश-लालू के साथ बना रहता है, तो नीतीश-लालू का पलड़ा भारी रहेगा. अब सरकार क्या करती है, केंद्र सरकार क्या करती है, संसाधनों का किस तरह से दुरुपयोग होता है, इस सबका अंतिम परिणाम से कोई मतलब नहीं होगा? आइए, हम सब इंतजार करें. एक बार आचार संहिता लागू हो जाए, तब आप बिहार के लिए मुफ्त के वादों की झड़ी नहीं लगा सकेंगे.

दूसरी बात यह कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार को निर्देश देने की घटनाएं बढ़ रही हैं. पुराने समय में, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब मुझे याद नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने कभी ऐसा किया हो. यदि सरकार कमज़ोर है, अपनी सामान्य गतिविधियां भी ठीक से नहीं निभा रही है, तो आप सुप्रीम कोर्ट को दोषी नहीं ठहरा सकते. ऐसे में न्यायपालिका निर्देश देगी ही. ताजा उदाहरण है, टोल टैक्स संग्रह का. कोर्ट ने उन सड़कों पर टोल टैक्स रोकने के निर्देश दिए हैं, जहां रखरखाव ठीक नहीं है. आ़िखरकार टोल टैक्स संग्रह सड़कों को बेहतर बनाए रखने के लिए ही तो किया जाता है. राजमार्ग के लिए पेट्रोल पर प्रति लीटर एक रुपये उपकर और टोल टैक्स की वसूली से एक बड़ी रकम हासिल होती है.

यह लोगों का पैसा है. इसलिए लोगों को बेहतर सुविधाएं मिलना उनका अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने मन की नहीं, बल्कि जनता के मन की बात कही है.

कई अन्य चीजें लंबित हैं, जैसे एनजेएसी बिल, जो न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए पहले की दो प्रणालियों से बेहतर है. पहले की प्रणाली में या तो सरकार नियुक्ति करती थी या अब न्यायपालिका खुद करती है. न्यायाधीश बनाए जाने वाले शख्स की वांछनीयता की समुचित जांच के बाद ही उसे नियुक्त किया जाना चाहिए. यदि आप एक बार किसी को उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के लिए नियुक्त कर देते हैं, तब उसे हटाना एक बहुत कठिन प्रक्रिया है. हटाने के लिए भी सरल प्रक्रिया होनी चाहिए. अभी संसद के दोनों सदनों द्वारा महाभियोग पास करना लगभग असंभव है.

इसे सरल बनाने के लिए भारत के तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों एवं भारत के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश को साथ बैठकर रास्ता निकालना चाहिए और उसे लागू किया जाना चाहिए. यदि कोई शख्स अक्षम है, उसने कुछ ग़लत किया है, भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है, तो उसे हटाना ही चाहिए. आ़िखरकार, एक राष्ट्र के तौर पर हमारा दायित्व है कि हम अपनी शीर्ष अदालतों को सा़फ-सुथरा रखें. जितनी जल्दी सरकार इस ओर ध्यान दे, उतना ही बेहतर होगा. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री ने अपना समय राज्यों के चुनाव के लिए समर्पित कर दिया है. भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चाहिए कि वे प्रधानमंत्री को उनके कर्तव्य पूरे करने और इस देश को चलाने के लिए छोड़ दें.

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