सिस्टम,जिसे हिंदी में व्यवस्था कहते हैं और व्यवस्था का मतलब प्रधान मंत्री से  लेकर एक क्लर्क तक का काम है। जिसमे पुलिस आती है, सेना आती है सभी इस देश के वह लोग आते हैं या वह संस्थाएँ आती हैं जिनके काम करने का या ना करने का देश के ऊपर प्रभाव पड़ता है।

इस कोरोना संकट के समय हमने देखा, हमने बहुत तारीफ़ भी की क्यूंकि उस समय शुरूआती समस्याएं बहुत ज्यादा थीं लोगो को उत्साहित करने की ज़रूरत थी पर अब जब हम देखते हैं, तो हमे दिखाई देता है की हमने जिनकी तारीफ़ की उन्होने पूरा काम नहीं किया। बहरहाल सबसे पहले जिन अधकारियों को पूर्वानुमान लगाना था के कोरोना अगर आया है तो क्या क्या करना चाहिए और इसकी कैसे सावधानी करनी चाहिए जिसमे शायद स्वस्थ्य मंत्रालय का अहम् रोल होता लेकिन वह किसी के किया नही।

जब 30 जनवरी  को हमरे देश में पहला कोरोना का संक्रमित व्यक्ति केरल में मिला। हमने नमस्ते ट्रम्प का आयोजन किया और भारत सरकार के अधिकारियो ने प्रधानमंत्री को ये नहीं चेताया कि हम नमस्ते ट्रम्प का आयोजन कर रहे है,इतने लोगो को इकट्ठा कर रहे है तो क्या इससे कोरोना महामारी फैल सकती है। एक दूसरे को संक्रमण लग सकता है। क्यूंकि उस समय तक हमारे पास चीन का और इटली का उदाहरण मौजूद था और कई देशों ने लॉक डाउन लगाने की शुरुआत कर दी थी। हमारे देश के अधिकारी या प्रधान मंत्री के जो सलाहकार थे उन्होने इसका क़तई अनुमान नहीं लगाया और जब 24 मार्च को सम्पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की जिसे प्रधानमंत्री ने कहा की यह कर्फ्यू ही है,कर्फ्यू जैसा है|

प्रधान मंत्री का यह कहना और एकदम देश का बंद हो जाना यह उन्होने किसी की सलाह पर तो किया होगा। जिन लोगो से उन्होने सलाह ली होगी वह यह अनुमान क्यों नहीं लगा पाए कि इसका परिणाम अगले 1 महीने में क्या निकलने वाला है।  उन्हे मालूम है कि हमारे देश में 20% लोग ही ऐसे है मध्यम वर्ग के जो किसी तरह से अपनी व्यवस्था कर सकते हैं, बाकि 70% लोग ऐसे हैं जो परेशान हो जाएँगे जिनकी परेशानी हमने देखी| गरीबो की, मज़दूरों की, वंचितो की, सामाजिक दर्जे के सबसे निचले तबक़े को छूने वाले वर्ग की। लोगो को ना खाने को मिला,ना  उनको राशन पहुँच पाया, ना उन्हें अपने घर लौटने की, भूख से मौत ना हो जाए उससे बचने के लिए अपने गाँव लौटने के लिए न कोई सुविधा सरकार ने मुहैया कराई| बयान आते रहे,हर एक ने बढ़-चढ़ कर बयान दिया, ऐसा लग रहा था कि उस दौर में बयान देने वालो में एक प्रतिस्पर्धा चल रही है, competition हो रहा है|

इसके बाद प्रधान मंत्री को जिन्हीने भी सलाह दी की अब लॉकडाउन धीरे धीरे ढीला करना चाहिए,वह यह अंदाज़ा नहीं लगा पाए जो उन्हने लगाना चाहिए था कि लॉकडाउन में अगर कोरोना इस रफ़्तार से बड़ा है तो अगर लॉकडाउन खुलेगा तब कोरोना का संक्रमण किस रफ़्तार से बढ़ेगा। जिसका पहला सिग्नल तब आया जब सारे देश में शराब बैचने का फैसला सरकारों ने लिया, ज़ाहिर है केन्द्र की राय पर लिया होगा, अब जिस तरह से लोग सड़कों पर टूटे, अगर यह संक्रमण की बीमारी है जिसको कि प्रधानमंत्री ने बताया, डॉक्टर बता रहे है, विदेशो से भी खबर आ रही है की संक्रमण से बचने के लिए हाथ धोएँ , मास्क लगाएँ , सोशल डिसटेनसिंग   रखे जो की गलत शब्द है,शारीरिक दूरी (individual distancing) की बात होनी चाहिए कि लोग समझते उसको, लेकिन यह भी किसी ने अंदाज़ा नहीं किया कि लोग अगर नहीं समझेगे तो क्या होगा और वही हुआ। लोग इस सारे चीज़ को नहीं समझे और चाहे वह मंदिर हो, मस्जिद हो हर जगह पर लोग इकट्ठा होना शुरू हो गए। बड़े बड़े जुलूस निकले रथ यात्राएँ निकली। निज़ामुद्दीन मरकज में इतने दिनों तक एक समागम होता रहा जिसकी वजह से कोरोना फैला और सारा दोष मुसलमानो पर आ गया, जबकि इस देश में अभी तक यह अकड़ा जान-बूझ कर उपलब्ध नहीं कराया गया कि इस समय देश में कितने मुस्लिम संक्रमित है और कितने हिन्दू संक्रमित है। ज़ाहिर है मुसलमानो से हिन्दू नहीं संक्रमित हुए होंगे क्यूंकि नज़दीक संक्रमण तभी होता है जब आप हाथ मिलाएँ नज़दीक रहें, आप की साँस एक दूसरे को छुए वह अकड़ा नहीं है हमारे पास। मैं सिर्फ़ यह कह रहा हूँ जो हमारे यहाँ व्यवस्था को चलाने वाला दिमाग़ है वह दिमाग़ बहुत समझदारी का दिमाग़ नहीं है।

बहरहाल हमारे देश में डॉक्टर , नर्स उन्हें हथियार नहीं दिए गए (हथियार का मतलब ग्लव्स नहीं दिए गए , मास्क नहीं दिए गए , सेनेटाईज़र नहीं दिया गया) पुलिस को नहीं दिया गया , सेना को नहीं दिया गया और जिस देश में वो सारे लोग संक्रमिक होने लगे जो सीधे लोगो के संपर्क में नहीं आते जैसे पैरामिलिटरी फ़ोर्स, ITBP , CRPF , सेना, इन सब में कोरोना कहाँ से पहुँच गया| इसका मतलब है कि कही न कही कुछ झोल है। कहीं न कहीं छेद है, जिस छेद से कोरोना इन जगहों पर भी पंहुचा और फिर सरकार को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता उन लोगो को देनी चाहिए थी जो कोरोना से सीधे लड़ रहे हैं जैसे डॉक्टर हैं , नर्स हैं, उनके पास दवाएँ तो है ही नहीं, क्यों कि दवाई तो इसकी कोई बनी ही नहीं| लेकिन सामान्य दवाई भी होनी चाहिए थी वह नहीं थी सबसे बड़ी चीज़ इन डॉक्टरों के पास ग्लव्स तक नहीं थे और उस समय भी लोगो ने यह अंदाज़ा नहीं किया कि कोरोना से जो मौते होंगी उन लाशो का क्या होगा ? क्यों कि तब तक यह देखा जा चूका था कि इटली और रुस में लाशों को दफ़नाने के लिए भी लोग उपलब्ध नहीं हो रहे थे।

हमारे देश में क्या स्थिति होगी यह सोचना व्यवस्था को चाहिए था यानी सरकार को सोचना चाहिए था, सरकार के अधिकारियो को चाहिए था, उन्होंने नहीं सोचा।  इसी तरह से, सरकार ने यह नहीं सोचा कि अगर इस कोरोना कि महामारी में जिस तरीके से मज़दूर सड़को से अपने गांव पहुँच रहे है गांव में भी संक्रमण फ़ैल सकता है| अगर शुरू के ही महीने में जब लॉकडाउन मार्च में लगा था अगर तभी से 1 महीने के भीतर सिर्फ रैल ही चला दी जाती, जिसकी लोग माँग कर रहे थे, सलाह भी दे रहे थे, लोग अपने अपने यहाँ चले जाते ज़्यादातर लोग उत्तर प्रदेश , बिहार , झारखण्ड और बंगाल के थे दक्षिण में आंध्र और तेलंगाना के थे लेकिन उन लोगो के लिए कोई व्यवस्था सरकार ने नहीं सोची कि सिर्फ़ रेल चला देते लेकिन बयान देते रहे। रेल मंत्री ने बयान दिया हमने 1800 के करीब रेलें चलाईं और वही रेल मंत्रालय कह रहा है 360 रेलें चलाई यह लोगो के साथ लोगो को भरमाने का जो खेल चला उस खेल ने बताया कि हमारी ब्यूरोक्रेसी, हमारे सिस्टम को चलाने वाले लोग कितने कम दिमाग़ के हैं।

फिर कोरोना एक भ्रष्ट्राचार का कारण बन गया। हॉस्पिटल में 6 लाख, 7 लाख,8  लाख का पैकेज बड़े हॉस्पिटलों में, छोटे हॉस्पिटलों में जगह नही। सबसे पहले जो चीन से टेस्ट किट आई कितनी संख्या में आई इसका पता नहीं, लेकिन सारे देश के लिए खरीदी गई और उसमे इतना बड़ा भ्रटाचार हुआ कि ICMR  ने खुद अपने द्वारा दिए गए आर्डर की आलोचना कर दी और कहा की टेस्ट किट इस्तेमाल नहीं होगी। बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों ने इस टेस्ट किट का इस्तेमाल करने से मना कर दिया तब अचानक लोगो को लगा की और भ्रटाचार का खुलासा होगा क्यूंकि वह टेस्ट किट ऐसी थी अगर आप नेगेटिव है तो पॉजिटिव बत्ताती थी और पॉजिटिव है तो नेगेटिव बत्ताती थी। इसके बाद मास्क की ख़रीदी में भ्रष्टाचार, पीपीइ किट की में भ्रष्टाचार। दिल्ली की गलियों में मेरठ की गलियों में पीपीइ किट सिली जा रही थी। टेलीविज़न चैनल्स ने इसको दिखाया, सोशल मीडिया ने इसको दिखाया, लेकिन सरकार ने कोई इसके ऊपर एक्शन नहीं लिया। कुल मिला कर के कोरोना इस देश में मौत का और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गया।

एक सवाल है की कोरोना आने से पहले जितने भी सरकारी हॉस्पिटल थे वह लोगो से भरे रहते थे औरतो की बीमारी हो , बच्चों की बीमारी हो , बुज़ुर्गो की बीमारी हो, अस्थमा हो , ब्रांकाइटिस हो कुछ भी हो, कोई भी बीमारी हो, दिल की बीमारी हो, टी बी हो, कैंसर हो, हॉस्पिटल भरे रहते थे, इनसे भी तो मौते होती थी लेकिन जब से यह कोरोना चला है तब से इन मौतों का आंकड़ा गायब हो गया। दो चीज़े हो सकती है या तो यह बीमारियाँ नकली थी, लोग ज़बरदस्ती हॉस्पिटलों में जाते थे गोली लेने के लिए। एक मनोवैज्ञानिक बीमारी से सारा देश ग्रसित था या फिर इनसे जो मौते हो रही है वह कोरोना में बताई जा रही है। क्यूंकि कोरोना में जितनी मौते होंगी विदेशी सहायता उतनी ही आएगी। इस देश के लोगो को यह नहीं पता की हमने कोरोना में खर्च कितना किया, सरकार ने कह दिया की हम नहीं बताएँगे कोरोना को लेकर हम क्या कर रहे है इसलिए मुझे यह लग रहा है कोरोना हमारे यहाँ एक ऐसा अवसर हो गया है जिसमे जिसे देखो वही अपनी लूट का हिस्सा उसमे से ले रहा है।

मैं वह चर्चा ही नहीं करता की 70 सालो में इस देश में शिक्षा क्यों ऐसी हो गई, स्वस्थ्य क्यों ऐसा हो गया,  हॉस्पिटलों की 70 सालो के बाद कमी क्यों आ गई, किस प्रधानमंत्री के समय या किस पार्टी के समय कितने हॉस्पिटल बने, क्यूंकि इस समय तो हॉस्पिटलों की जगह नहीं है,  तो स्टेडियम में और टेंटो में हॉस्पिटल चलाए जा रहे है। पहली बार यह पता चला की इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर के या बुनयादी सुविधाओं को लेकर के जो सरकारों ने नहीं किया उसका भुगतान जनता को भुगतना पड़ा और पड़ रहा है। इसलिए मुझे यह लगता है की अब सोचने का वक़्त आ गया है की हमारा सिस्टम कैसे लोगो के प्रति ज़िम्मेदार हो। सरकार कैसे लोगो के प्रति रेस्पॉन्सिव हो और फिर जिन लोगो ने यह तय किया की जितनी भी भारत सरकार की बड़ी कंपनियाँ है,  नवरत्न कंपनियाँ है उन सारी कंपनियों को बेच दिया जाए| यह जिन लोगो ने तय किया उन लोगो ने देश के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी की है।

अगर देश को आत्मनिर्भर बनना है जिसको की सातवें साल में या छठे साल में प्रधानमंत्री मोदी ने देश को नया लक्ष्य दिया आत्मनिर्भर बनो। सवाल यह है, सरकार उसमे क्या कर रही है ? सरकार तो सिवाए कंपनियों को बेचने के, रेल को बेचने के, हवाई जहाज़ को बेचने के, हवाई अड्डों को बेचने के जो उसकी संपत्ति  70 साल में बनी थी हमारी हम उस सम्पति को कैसे बेचे और पेट्रोलियम कम्पनीयो को बेचने के लिए इसके अलावा सरकार कुछ और कर रही हो तो पता चले, लेकिन कर नहीं रही, इसलिए पता नहीं चल रहा। किसानो के लिए कुछ नहीं हो रहा है यह व्यवस्था है हमारी। किसानो के लिए कुछ नहीं सोच रही है, बेरोजगारों के लिए कुछ नहीं सोच रही है, रोजगार कैसे बड़े इसके लिए नहीं सोच रहे है, लॉ एंड आर्डर कैसे कंट्रोल में रहे इसके लिए नहीं सोच रही है, पुलिस में सुधार कैसे हो इसके लिए नहीं सोच रही है, अमेरिका का या सारी दुनिया का यूरोप का उदाहरण हमारे सामने है बस हमने एक काम कर दिया है की टेलीविज़न चैनलों के माध्यम से ख़बरें ज्यादा न आयें जहाँ पर लोग प्रदर्शन कर रहे हो। शायद उन्हें लगता है की लोग सोशल मीडिया में सिर्फ मनोरंजन देखते है खबरे उनके पास नहीं पहुँचती पर ऐसा है नहीं, खबरे पहुँचती है|

कुल मिला कर के हमे यह देखना है की हमारा सिस्टम, हमारी व्यवस्था, हमारे सोचने समझने वाले लोग, हमारा थिंक टैंक, देश के लिए योजना बनाने वाले लोग, सही दांग से योजना बनाएँ जिसका की फ़ायदा देश के लोगो को हो। इस कोरोना ने बता दिया की अभी हमारे पास ऐसे लोगो की कमी है चाहे वह सरकार के लोग हो या विपक्ष के हो, क्यूंकि सबसे ज्यादा एक्सपोज़ अगर कोई हुआ है इस कोरोना बीमारी में तो देश का विपक्ष भी हुआ है।

मीडिया के बारे में बात करने की ज़रूरत नहीं है क्यूंकि मीडिया तो अपने आप में एक अलग कहानी है। मुझे लगता है सरकार को गंभीरता से देश के पूरे सिस्टम के बारे में सोचना चाहिए और सिस्टम को चुस्त और दरुस्त करना चाहिए ताकि हम कोरोना जैसी बीमारी का या ऐसी ही किसी और भविष्य में आने वाली बीमारी का हिम्मत के साथ मुकाबला कर सके और जिसका शिकार इस देश के लोग ना बने।

संतोष भारतीय

प्रधान संपादक चौथी दुनिया

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