ब्रज श्रीवास्तव

आज प्रस्तुत हैं सुधीर देशपांडे की पाँच समकालीन कविताएँ।उनकी कविताओं में समाज में मौजूद विसंगतियों का खुलासा होता है।मूलतः वह अंतः चेतना से कविता लिखने को प्रेरित होते हैं जो बाह्य जगत में आकर एक संदेश बन जाती है।उनकी कविता की बनक और शब्द चयन अलग होता है।उनके जन्म दिन पर पेश हैं उनकी कविताएंँ।

 

सुनो,
यह शोर सुन रहे हो
सुन रहा हूँ मैने कहा और
उठकर बाहर जाने लगा

उसने कहा
रहने दो तुम्हें इससे क्या?
मैं बैठ गया

सुनो यह शोर
हमारे ही घर के सामने है

मैं अब नहीं रूका
मैं बाहर भागा
मेरे पीछे वह भी

अपने घर पर आई आफत
पहले जरूर
किसी और के घर थी

अपने घर को बचाने के लिए
दूसरे का घर बचाना
ज्यादा जरूरी था
मैंने कहा
वह चुप थी.

– सुधीर देशपांडे

घर लौटते वक्त

कुछ नजर नहीं आता
घर लौटते वक्त
याद आता है घर
मां बाप
पत्नी बच्चे
कितने दिनों से
नहीं मिल पाया इनमें से
किसी से भी
बिटिया और बेटे
पूछते रहे
कब आ रहे हो पापा
पत्नी के उलाहने
मां पिता की चिंताएं

लौटते वक्त
पता ही नहीं चल रहा
धूप का
छांव का
बरखा का
बस भागे चले जा रहे हैं
पांव घर के आकर्षण मे

अब पीछे मुडकर
भी देखना नहीं चाहता मन

सरपट भागने के
अंदाज में चलने के बाद भी
मंजिल है कि भाग रही है
पीछे पीछे

लौटना
सरल नहीं है
अपनी उम्मीदों से
कुछ जोडी आँखों की
उम्मीद बनकर लौटना
भी सरल नही है

पर पांव है कि
चल रहे हैं

जानते हैं
लौटना जिंदगी का अंत नहीं है।

– सुधीर देशपांडे

कविता और मैं

तुम आई थीं
उन दिनों जब सीखा ही था
समझना ककहरा
पहली बार,
जब हमउम्र बच्चों में छोटा था,
और कम उम्र बच्चों मे बडा
सपनों का विशाल बोझ था कांधों पर
और मेरे अपने सपने आकार ले रहे थे
कहने को बहुत था
पर नहीं था सुनने वाला
तुम्ही ने थामा था हाथ
कोमल सा कच्चा सा था
अस्फुट था कुछ

पहली बार सुनी थी
कविता सुमन से
तभी सुनाई भी
तूफानों की ओर उन्हें
और भीतर कहीं
एक तूफान उमडा था
महादेवी तभी आई थी खंडवा
और भागते गये थे
उनकी छवि को और
स्वर को संजोने कहीं भीतर
एक सोते की तरह
महसूसना चाहता था कविता को
अभावों से जूझते हुए
कविता से ये पहलौटी मुलाकात थी
और प्यार हो गया था

लिखता और मिटाता रहा
हर्फ कागज पर लिख लिख कर
कि मिले भवानीदा खुद
घर आकर

कुछ मित्र थे
शौकिया ही लिखते थे
कविता
संगत में आ लगे
तो चार दोस्तों की संगत में
नशा परवान चढा
कविता ही नहीं व्यंग्य और नाटकों में
खुद को मढा़
एक सफर था सिफर से
कुछ ही आगे बढा

कविता ने अभय दिया
कविता ने भाषा
कविता ने मौन तोडा
और बढाई आशा

कविता ने साहस दिया
आँसुओं को थामा
कविता ने दृष्टि दी
कविता ने
मुझे मेरी नई सृष्टि दी

तो मिले और भी सुगुनी
मीत राह में
मैं भी साथ चलता रहा
कविता की राह में।

– सुधीर देशपांडे

अभिलाषा

मैं
वह किताब हो जाना
चाहता हूं
जिसमें छुपा हो
एक फूल मुहब्बत का
एक टुकडा केंचुली हो
और हो विद्या की कुछ पत्ते
तुम्हारे सिरहाने रहना चाहता हूं
पढा जाए मुझे
वैसे ही बार बार
जैसे कि रामायण
कि न आता हो
अक्षरों का पहचानना
पर पंक्ति दर पंक्ति
कंठस्थ हो
कि तुम्हारी आंखों में
सपने की तरह बस सकूं
कर सकूं कुछ सच भी
मैं किताब हो जाना चाहता हूं
जिसे पढ सके हर कोई

– सुधीर देशपांडे

गंदे हाथ

उसने कभी
हाथ नहीं धोये
खाना खाने से
पहले
बहुत अच्छी तरह
जैसा कि बताया जाता है
धोए जाने चाहिए
बीस सेकेंड तक कम से कम

उठाकर रोटी
चटनी के संग ही तो
खाना था
और भागना था
मुकादम आवाज लगाए
उसके पहले
बच्चों ने भी कहां किया
परहेज
गंदले हाथों से

पर हम ही
परहेज करते रहे
उन हाथों से
जिन्होंने
हमारे लिए ही
उगाए गेंहूं
बनाए मकान
और अब चले आए
आपद दौर में
अपने घरों की ओर
उन्हीं हाथों के साथ
उन्हीं पर भरोसा कर

पता नहीं किस
जीवनी शक्ति से लबरेज थे
हाथ
कि कभी बीमार न पडे

– सुधीर देशपांडे

परिचय
नाम- सुधीर देशपांडे
जन्मतिथि- विवेकानंद के शिकागो भाषण के दिन सत्तर वर्ष बाद
शिक्षा- हिन्दी परास्नातक और शिक्षास्नातक
निवास स्थान- खंडवा
साहित्यिक विधाएं- कविता, व्यंग्य और नाटक
प्रकाशित पुस्तकें- हैप्पी बर्थडै नाटक, और प्रजापति और अन्य कविताएं
साहित्यिक उपलब्धियाँ- हिन्दी, मराठी, गुजराती, संस्कृत अंग्रेजी पंजाबी और बंगाली भाषाओं का ज्ञान। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, अक्षरा, वसुधा, साहित्य अमृत, अक्षत, सहित कई अन्य पत्र पत्रिकाओं में एवं आकाशवाणी के खंडवा इंदौर और जलगांव केंद्रों से नाटकों, कविताओं, कहानियो तथा 100 के करीब व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन।

 

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