bosssबजट सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ता नज़र आ रहा है. दरअसल, हम समझ नहीं पा रहे हैं कि लोकसभा या राज्यसभा का चरित्र धूमिल करने में सरकारी पक्ष की रुचि है या विपक्ष की? यह सवाल इसलिए मन में उठता है, क्योंकि अब देश के लोगों को भी महसूस होने लगा है कि संसद देश की समस्याएं हल करने में असफल है. लोकतंत्र में निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था संसद है. हालांकि, निर्णयों में राजनीतिक दलों या फिर जिस राजनीतिक दल की सत्ता होती है, की प्रभावशाली भूमिका होती है. लेकिन, क़ानूनी तौर पर संसद ही निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था है.

हमारी संसद पिछले कुछ वर्षों में किसी भी समस्या का हल निकालने में असफल साबित हुई है. संसद समस्याओं का हल निकालने में असफल साबित हो रही है, यह एक पहलू है. लेकिन, इससे भी बड़ा पहलू यह है कि संसद में समस्याओं के ऊपर बात ही नहीं हो रही है. न कोई सांसद देश की बुनियादी समस्याओं के ऊपर बहस करने में रुचि रखता है और न संयुक्त रूप से सरकारी पक्ष और विपक्ष समस्याओं के ऊपर बातचीत करना चाहते हैं.

अख़बार में छपी किसी भी ख़बर को लेकर संसद में हंगामा होना आम बात हो गई है. राजनीतिज्ञों के दिमाग़ में यह सवाल नहीं उठता कि अगर इसी तरह संसद का इस्तेमाल, उन सवालों को उठाने या उन्हें लेकर हल्ला मचाने में होता रहा, जिनका संबंध समस्याओं से तो है, लेकिन बुनियादी समस्याओं से नहीं. तो, इसका एकमात्र परिणाम यह होगा कि लोकतंत्र और लोकतंत्र को चलाने वाले चेहरे यानी संसद से लोगों का विश्वास उठना शुरू हो जाएगा.

देश में महंगाई है, बेरा़ेजगारी है, भ्रष्टाचार है, पिछड़ेपन की समस्या है. और भी तमाम समस्याएं हैं, जिनकी जानकारी सांसदों को नहीं है. हालांकि, हर सांसद अपने क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं से परिचित है. जैसे पानी का स्तर तीन, चार, छह सौ फीट तक नीचे चला गया है. किसान खेतों की सिंचाई के लिए कर्ज लेकर बोरिंग कराता है, पर पानी नहीं मिलता, क्योंकि पहले ही इतना पानी निकाला जा चुका है कि अब धरती के भीतर पानी बचा ही नहीं है और दूसरी तऱफ हमारी नदियों का पानी व्यर्थ में बहकर समुद्र में चला जाता है. किसानों द्वारा आत्महत्या की एक वजह यह भी है.

जहां संसद जल संकट के निदान के बारे में बात नहीं करती, फसल के ऊपर बात नहीं करती, वहीं वह किसानों की आत्महत्या पर भी बात नहीं करती. शायद संसद किसानों की आत्महत्या और उसके कारणों के ऊपर बात करना ही नहीं चाहती. उसे लगता है कि अगर वह बातचीत करेगी, तो कहीं न कहीं उसका किसान विरोधी चेहरा भी सामने आएगा. सांसदों को थोड़ी तो लज्जा आनी चाहिए. जिस देश की 60 प्रतिशत आबादी का जीवन स़िर्फ खेती-किसानी पर निर्भर हो और किसान आत्महत्या करें, लेकिन राजनेता उसे गंभीरता से न लें, तो मानना चाहिए कि संसद में बैठे या राजनीति कर रहे लोगों की असंवेदनशीलता आपराधिक मोड़ पर पहुंच गई है.

संसद को इस बात की फिक्र नहीं है कि लोग धीरे-धीरे खेती छोड़ रहे हैं, खेत बेच रहे हैं. संसद को इस बात की भी फिक्र नहीं है कि लोग शहरों की तऱफ भागकर मज़दूर बन रहे हैं. मज़दूरी से उन्हें निम्नतम आय होती है, लेकिन उस निम्नतम आय में भी वे जीवन जीना ज़्यादा पसंद करते हैं, बजाय खेती से उपजी फसल के सहारे जीवन जीने के. क्योंकि, किसान अपनी सारी जमा पूंजी और बैंकों-सूदखोर साहूकारों से कर्ज लेकर सारा पैसा खेती में लगा तो देता है, लेकिन उसे भरोसा नहीं होता कि जो फसल आएगी, वह उस कर्ज का ब्याज भी चुका पाएगी अथवा नहीं.

ब्याज न चुका पाना, जवान होती बेटी का चेहरा देखना, बेटे का बेरोज़गार होना किसान को मौैत की तऱफ ले जाता है. इसी वजह से हर प्रदेश में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. मध्य प्रदेश इसका ताजा उदाहरण है. प्रधानमंत्री ने जिस मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को महान किसान की महान पैदावार के आधार पर पुरस्कृत किया, उसी मध्य प्रदेश में किसानों द्वारा आत्महत्या की अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं, जिन्हें सरकार ने अपने खाते में लिखा ही नहीं.

लेकिन अ़फसोस, हमारी संसद के पास ऐसे सवालों पर बातचीत करने के लिए वक्त नहीं है. शोर मचाकर संसद स्थगित कराकर सेंट्रल हॉल में बैठना या घर जाकर वे काम करना, जिनका जनता से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता, सांसदों के बीच यह आम चलन हो गया है. अगर हम सांसदों से पूछें कि आपने आज तक देश की किन समस्याओं पर बातचीत या सार्थक बहस की और किन समस्याओं का हल निकाला, ताकि लोग समझ सकें कि यह समस्या है क्या और हम इसके निदान का कोई रास्ता तलाश सकते हैं या नहीं? तो किसी को इसका जवाब नहीं सूझेगा.

स़िर्फ और स़िर्फ आरोप-प्रत्यारोप, हंगामा और फिर संसद का स्थगन! अब हम सवाल उठाएं, तो देशद्रोही माने जा सकते हैं, अलोकतांत्रिक माने जा सकते हैं और सरकार, विपक्ष एवं राजनीतिक दलों के विरोधी माने जा सकते हैं. हमें कोई डर नहीं. जिसे जो मानना हो माने, लेकिन हम एक छोटी-सी विनम्र चेतावनी देते हैं. आज संसद में बैठकर सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के जो सांसद मस्ती करते हैं, मौज लेते हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि जिस दिन कोई पागल आकर यह संसदीय व्यवस्था समाप्त करेगा, उस दिन उनका और देश का क्या हाल होगा.

जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है, वहां के किस्से हमारे सांसदों को नहीं मालूूम. लोकतंत्र को बनाए रखना और जनता की समस्याओं का हल निकालना कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है, इस एहसास से भी हमारे सांसद अछूते हैं. हम संसद और सांसदों से एक साधारण अनुरोध करते हैं कि जिन्होंने आपको चुना है, उनके चेहरे याद रखिए. आप और कुछ न कर सकें, तो कम से कम सार्थक बहस तो कीजिए, संसद में बैठे दिखाई दीजिए.

हम लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही जब टेलीविजन के ऊपर देखते हैं, तो हमें शर्म आती है यह कहते हुए कि हमारे सदनों में सदस्यों की उपस्थिति स़िर्फ कोरम लायक रहती है. दोपहर का शून्यकाल छोड़कर नगण्य रहती है. लोकतंत्र बहुत महत्वपूर्ण चीज है, सांसदों को इसकी इज्जत करनी चाहिए और समस्याओं का हल निकालने के लिए दलीय सीमा से ऊपर जाकर या दलीय सीमा की बकवास छोड़कर अपना दिमाग़ लगाना चाहिए.

कहीं हालात ऐसे न हो जाएं कि संसद में लात-घूंसे चलें, गाली-गलौच या मारपीट हो. कई बार स्थितियां बिगड़ चुकी हैं. अगर ऐसा हुआ, तो विश्व में लोकतंत्र का सम्मान ख़त्म हो जाएगा. यह ज़िम्मेदारी संसदीय कार्यमंत्री की है. श्री वेंकैया नायडू को कोई और ज़िम्मेदारी देनी चाहिए. संसदीय कार्यमंत्री अगर स्वयं विपक्ष पर हमला करने लगे, तो यह दुर्भाग्य की बात है. सांसदों और दलों के बीच सौहार्द्र बना रहे, इसके लिए किसी मुस्कराते चेहरे को संसदीय कार्यमंत्री बनाना चाहिए. संसद लोकतंत्र का आईना है और चेहरा भी.

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