उत्तर प्रदेश के फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उप चुनावों से एकजुट हो रहीं विपक्षी पार्टियों के सामने भाजपा की हार का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह हाल में कैराना और नूरपुर समेत अन्य जगहों पर हुए उप चुनावों में भी जारी रहा. उप चुनावों में भाजपा की लगातार जारी हार से अब मोदी-शाह के अपराजित होने का मिथक टूटता जा रहा है. पिछले चार साल में देश के बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों, संस्थाओं, समाज, संस्कृति और सभ्यता के लिए अभूतपूर्व संकट पैदा करने वाले मोदी राज से निजात पाने में यदि विपक्षी दलों की एकजुटता सफल होती है, तो यह निश्चित तौर पर देश और लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा. लेकिन क्या इससे जनता के अच्छे दिन आ जाएंगे?

इन दलों और बन रहे गठबंधन के पास बदहाल होते जा रहे किसानों और कृषि संकट का क्या समाधान है? बेरोजगारी की मार झेल रहे नौजवानों को रोजगार देने की क्या नीति है? शोषित वर्गों और दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिलाओं समेत वंचित तबकों की बेहतरी और न्याय के लिए उनकी क्या नीतियां हैं? इस कसौटी पर तस्वीर बेहद निराशाजनक है.

कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन की मनमोहन सरकार के दस साल के शासन में जो जनविरोधी नीतियां देश पर थोपी गईं, उनसे जनता के विभिन्न वर्गों के विक्षोभ से फायदा उठाकर सत्ता में आई मोदी सरकार अपने पूर्ववर्तियों की उन्हीं आर्थिक-औद्योगिक नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाने का काम कर रही है. जनता के जीवन का संकट और अधिक गहराता गया और कॉरपोरेट मीडिया द्वारा गढ़ी गई मोदी की छवि से पैदा हुई छदम-उम्मीदें धरातल पर दम तोड़ने लगीं. जनता के विभिन्न वर्गों के जीवन के मूलभूत प्रश्नों को पीछे धकेलने के मोदी-संघ द्वारा किए जा रहे विभाजनकारी प्रयास अब लोकप्रिय जनमत तैयार कर पाने में तात्कालिक तौर पर ही सही, सफल नहीं हो पा रहे हैं.

जाहिर है संकट ढांचागत है और नव उदारीकृत नई आर्थिक-औद्योगिक नीतियों ने इसे और गहरा किया है. कांग्रेस ने इन जनविरोधी नीतियों से पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दिया है और मानवीय चेहरे के साथ उदारीकरण का मनमोहन मॉडल कितना मानवीय था, सब देख चुके हैं. यूपीए गठबंधन की अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी इन्हीं नीतियों की पिछलग्गू हैं. अजीत सिंह तो खुद कैबिनेट के अंग रहे, उत्तर प्रदेश की सपा और बसपा यूपीए-2 को बाहर से समर्थन करती रहीं और सूबे में इनकी सरकारें नई आर्थिक-औद्योगिक नीतियों की पैरोकारी में पीछे नहीं रहीं. अब 2019 में सत्ता के बदलाव में यदि ये सफल होते हैं, तो यूपीए-1 जैसी स्थिति भी नहीं होगी, जहां वामदलों के दबाब में नई आर्थिक नीतियों की रफ्तार धीमी हुई, कुछ जनपक्षधर काम करने पड़े और जनता को कुछ राहत मिली. यह यूपीए-2 की नीतियों का ही विस्तार होगा. जनविरोधी नीतियों पर कोई लगाम नहीं होगी और जनता के लिए कोई विशेष राहत की उम्मीद नहीं की जा सकती.

राष्ट्रीय स्तर पर आमतौर पर यूपीए-1 के समय जैसी ही गठबंधन की स्थिति है. सीपीएम ने कांग्रेस के साथ किसी भी राजनीतिक गठबंधन को नकार दिया है. जिस भाजपा हराओ महागठबंधन की बात की जा रही है, यह उत्तर प्रदेश केंद्रित परिघटना दिखती है, जहां सपा और बसपा जो यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन तो पहले भी देती रही थीं, लेकिन सूबे की राजनीति में धुर विरोधी रहते हुए भी इस बार लोकसभा चुनावों में एक गठबंधन की दिशा में बढ़ रही हैं. इन दलों का यह गठबंधन भाजपा को हराने की कोई राजनीतिक-वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है. बल्कि यह गठबंधन अपने-अपने राजनीतिक वजूद को बचाने की कवायद ज्यादा दिखता है.

उप चुनावों में भाजपा की हार से यह स्पष्ट हो गया है कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के गठबंधन से बन रहा बड़ा संगठित सामाजिक आधार चुनावी शक्ति संतुलन में भाजपा पर भारी पड़ रहा है और भाजपा तात्कालिक तौर पर उसकी काट नहीं कर पा रही है. लेकिन सपा-बसपा गठबंधन की जनमुद्दों पर चुप्पी और इसके द्वारा कोई घोषित जनपक्षधर कार्यक्रम के साथ सामने न आना इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है. इस मसले पर कांग्रेस की तरफ भी चुप्पी ही सधी है.

मोदी को सत्ता से हटा देने भर से जनता के अच्छे दिन नहीं आ जाएंगे. जन आंदोलन की ताकतों और जनपक्षधर लोकतांत्रिक शक्तियों को भाजपा हराने के राजनीतिक कार्यभार को सामने रखते हुए कांग्रेस सहित सपा और बसपा आदि भाजपा विरोधी गठबंधन के सामने जनता के सवालों को उठाना चाहिए और जनविरोधी नई आर्थिक-औद्योगिक नीतियों से पीछे हटने की मांग मजबूती से रखनी होगी.

(लेखक मजदूर किसान मंच, उत्तर प्रदेश के संयोजक हैं)

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